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आर्थिक समानता कैसे लायी जाये?

गांधीजी

अहिंसा के द्वारा आर्थिक समानता कैसे लायी जा सकती हैं? इसका विचार करें। पहले कदम यह है कि जिसने आदर्श को अपनाया हो, वह अपने जीवन में आवश्यक परिवर्तन करे। हिन्दुस्तान की गरीब प्रजा के साथ अपनी तुलना करके अपनी आवश्यकताएँ कम करे। अपनी धन कमाने की शक्ति को नियंत्रण में रखे। जो धन कमाये उसे ईमानदारी से कमाने का निश्चय करे। सट्टे की वृत्ति हो तो उसका त्याग करे। घर भी अपनी सामान्य आवश्यकता पूरी करने लायक ही रखे और जीवन को हर तरह से संयमी बनाये। अपने जीवन में संभव सुधार कर लेने के बाद अपने मिलने-जुलने वाले और अपने पड़ौसियों में समानता के आदर्श का प्रचार करे।

        आर्थिक समानता की जड़ में धनिक का ट्रस्टीपन निहित है। इस आदर्श के अनुसार धनिक को अपने पड़ोसी से एक कौड़ी भी ज्यादा रखने का अधिकार नहीं है। तब उसके पास जो ज्यादा है, क्या वह उससे छीन लिया जाए? ऐसा करने के लिए हिंसा का आश्रय लेना पड़ेगा। और हिंसा के द्वारा ऐसा करना संभव हो, तो भी समाज को उससे कुछ फायदा हेनेवाला नहीं है। क्योंकि द्रव्य इकट्ठा करने की शक्ति रखने वाले एक आदमी की शक्ति को समाज खो बैठेगा। इसलिए अहिंसक मार्ग यह हुआ कि जितनी मान्य हो सकें उतनी अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने के बाद जो पैसा बाकी बचे, उसका वह प्रजा की ओर से ट्रस्टी बन जाए। अगर वह प्रामाणिकता से संरक्षक बनेगा, तो जो पैसा पैदा करेगा उसका सदव्यय भी करेगा। जब मनुष्य अपने-आपको समाज का सेवक मानेगा, समाज के खातिर धन कमायेगा, समाज के कल्याण के लिए उसे खर्च करेगा, तब उसकी कमाई में शुद्धता आयेगी। उसके साहस में भी अहिंसा होगी। इस प्रकार की कार्य-प्रणाली का आयोजन किया जाए तो समाज में बगैर संघर्ष के मूक क्रान्ति पैदा हो सकती है।

        इस प्रकार मनुष्य-स्वभाव में परिवर्तन होने का उल्लेख इतिहास में कहीं देखा गया है? ऐसा प्रश्न हो सकता है। व्यक्तियों में तो ऐसा हुआ ही है। बड़े पैमाने पर समाज में परिवर्तन हुआ है, यह शायद सिद्ध न किया जा सके। इसका अर्थ इतना ही है कि व्यापक अहिंसा का प्रयोग आज तक नहीं किया गया। हम लोगों के हृदय में इस झूठी मान्यता ने घर कर लिया है कि अहिंसा व्यक्तिगत रूप से ही विकसित की जा सकती है और वह व्यक्ति तक ही मर्यादित है। दरअसल बात ऐसी है नहीं। अहिंसा सामाजिक धर्म है, सामाजिक धर्म के तौर पर वह विकसित किया जा सकता है, वह मनवाने का मेरा प्रयत्न और प्रयोग है। यह नयी चीज है, इसलिए इसे झूठ समझकर फेंक देने की बात इस युग में तो कोई नहीं कहेगा। यह कठिन है, इसलिए अशक्य है, यह भी इस युग में कोई नहीं कहेगा। क्योंकि बहुत-सी चीजें अपनी आँखों के सामने नयी-पुरानी होती हमने देखी हैं। मेरी यह मान्यता है कि अहिंसा के क्षेत्र में इससे बहुत ज्यादा साहस शक्य है, और विविध धर्मों के इतिहास इस बात के प्रमाणों से भरे पड़े हैं...

स्त्रोत : हरिजन सेवक,  24 अगस्त 1940

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