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12. संघर्ष का नया पहलू

गाँधीजी 28 दिसम्बर को बम्बई पहुंच गये। बहुत बड़ी भीड़ उनके स्वागत के लिये एकत्र थी। उन्होंने उदास भाव से कहा, "मैं खाली हाथ लौट आया हूं मगर मैंने अपने देश के सम्मान को ताक में रख कर कोई समझौता नहीं किया।"

गाँधीजी को अनुभव हुआ कि लार्ड विलिंगडन और ब्रिटेन की नई सरकार भारत के स्वतंत्रता के अहसास को नष्ट कर देने पर तुले थे। लार्ड विलिंगडन ने पहले दी गई रियायतों को वापस ले लिया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पर कड़े प्रतिबंध लगा दिये। गाँधीजी का स्वागत करने बम्बई जाते हुए जवाहरलाल नेहरू को गिरफ्तार कर लिया गया। उत्तर प्रदेश, उत्तर पश्चिम सीमान्त प्रांत और बंगाल में लगान न देने के आन्दोलन का सामना करने के लिए संकटकालीन अध्यादेश जारी किया गया। इस अध्यादेश के अन्तर्गत सरकार किसी को भी हिरासत में लेकर बिना मुकदमा चलाये उन्हें जेल में रख सकती थी जिन्हें वह विद्रौही समझती थी। सरकार ने प्रेस पर भी प्रतिबंध लगा दिया। इमारतों, सम्पत्ति और बैंक खातों को भी जब्त करने का अधिकार ले लिया।

गाँधीजी ने बम्बई में भीड़ के सामने टिप्पणी की, "ये सब हमारे ईसाई वाइसराय लार्ड विलिंगडन के क्रिसमस उपहार हैं।"

"वेलफेयर आफ इंडिया" से बात करते हुए गाँधीजी ने कहा, "तीन महीने इंग्लैंड और यूरोप में रहकर मुझे एक बार भी ऐसा अनुभव नहीं हुआ जिससे मुझे यह लगे कि आखिर पूर्व-पूर्व है और पश्चिम-पश्चिम। इसके विपरीत मुझे पक्का विश्वास होता जा रहा है कि मनुष्य की प्रकृति सब जगह एक जैसी है, चाहे वह कैसे भी जलवायु में क्यों न पनपा हो। यह भी है कि यदि आप विश्वास और प्यार से लोगों के पास जायें तो आपको दस गुना विश्वास और हजार गुना प्यार मिलता है।"

उन्होंने बताया कि ब्रिटिश सरकार उनके प्रति मैत्री भाव रखती है और, "हम अच्छे मित्रों की तरह अलग हुए लेकिन यहां आने पर मैंने देखा कि बात कुछ और ही है।"

गाँधीजी ने वाइसराय को एक तार भेजा जिसमें उन्होंने अध्यादेशों, गिरफ्तारियों की भर्त्सना की और भेंट का सुझाव दिया। वाइसराय के सचिव ने उत्तर दिया कि कांग्रेस द्वारा सरकार का विरोध करने के कारण ये अध्यादेश आवश्यक हैं। लार्ड विलिंगडन ने गाँधीजी से मिलने से इंकार कर दिया।

4 जनवरी सन् 1932 में गाँधीजी को सन् 1827 के अधिनियम 25 के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया। पहले की तरह ही उन्हें यरवदा सेंट्रल जेल भेज दिया गया।

कुछ समय पहले ही वह बकिंगघम महल में सम्राट के मेहमान थे। अब भी सम्राट के अतिथि थे मगर यरवदा सेंट्रल जेल में। सरकार ने फिर से दमन की नीति अपनाई थी और स्वतंत्रता आन्दोलन के कई महत्वपूर्ण नेता गिरफ्तार कर लिये और उन्हें जेल में डाल दिया।

जनवरी में चौदह हजार आठ सौ लोगों को राजनैतिक कारणों से जेल में डाल दिया। फरवरी में यह संख्या बढ़कर सतरह हजार आठ सौ हो गई।

क्या नमक सत्याग्रह और हजारों स्त्राh-पुरुषों का बलिदान बेकार गया था?

यदि हम नमक सत्याग्रह आरम्भ करने में गाँधीजी के कारण जानते तो हम ऐसा नहीं समझेंगे। उनका कहना था कि सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दो ध्येय थे। नमक कर रद्द करवाना और ब्रिटिश दासत्व को तोड़ना जिसका प्रतीक नमक था।

असली मंतव्य और भी गहरा था। गाँधीजी ने कहा, "सविनय अवज्ञा आन्दोलन जनता में वह शक्ति उत्प़ करेगा जिससे राष्ट्र अपने उद्देश्य में सफल हो सकेगा। उद्देश्य है स्वतंत्रता।" और वह शक्ति उत्प़ हो गई थी। भारतवासियों को अपनी शक्ति का पता लग गया था और ब्रिटिश साम्राज्य को अपनी कमज़ोरियों का।

यद्यपि ब्रिटिश लोग कुछ वर्ष और भारत में शासन करते रहे, मगर एक बहुत बड़ी तबदीली आ चुकी थी। इसका प्रभाव केवल भारत में ही नहीं बल्कि ब्रिटेन में भी पड़ा था।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस परिवर्तन का वर्णन इन शब्दों में किया है "यूरोप का पुराना नैतिक सम्मान एशिया में खत्म हो गया है। यूरोप के लिये यह एक नैतिक हार है। यद्यपि एशिया अभी भी शारीरिक तौर से कमज़ोर है और अपनी रक्षा नहीं कर सकता फिर भी अब वह यूरोप को नीची नज़र से देख सकता है जबकि पहले इससे उल्टी बात थी।"

केवल ब्रिटिश ही नहीं बल्कि सारे यूरोपियन उपनिवेशवाद के दिन समाप्त हो चले थे। गाँधीजी के नमक सत्याग्रह के सत्तरह वर्ष पीचात भारत स्वतंत्र हो गया। और इसके पीचात जल्दी ही एशिया और अफ्रीका के जिन उपनिवेशों में यूरोपियन शासन था वे भी स्वाधीन हो गये।

गाँधीजी ने यह दिखा दिया था कि अगर उनका लक्ष्य न्यायोचित हो और वे अपने शासकों का सामना साहस और सहनशीलता से करने को तैयार हो तो, निहत्थे लोग भी अत्यंत शक्तिशाली देशों से संघर्ष में विजयी हो सकते हैं।

'कानून तोड़ने वाले' जो लोग सन् 1930 में उस दिन डांडी के समुद्र तट पर खड़े थे उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ पाया था।

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