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वर्तमान विसंगतियाँ और गाँधीवादी चेतना

डॉ. एस. ज़हीर अली

'वर्तमान विसंगतियाँ और गाँधीवादी चेतना' विषय संकेतात्मक है। इसमें एक पहलू यह निकलता है कि विसंगति इसलिए है कि हम गाँधीवादी चेतना को भूल गये। तो पहले हमको यह तय करना होगा कि विसंगति किस प्रकार की है? इस संकट का दायरा अगर निश्चित हो जाये तो फिर जो समस्याएँ इस संकट के प्रभाव में हैं, उन पर पहले बात हो जाये। उसके बाद गाँधीवादी चेतना या गाँधीवाद के बारे में बात की जाये। तीसरा पहलू इस चर्चा का यह होगा कि क्या इस संकट का समाधान हम गाँधीवादी विचार पर अमल करके व़ाकई ढूँढ़ सकते हैं?

जहाँ तक संकट और विसंगतियों का सवाल है, हमारे देश में ही नहीं, बल्कि विश्व-स्तर पर यह समस्या जारी है। इसमें कई समस्याएँ हमारे देश से सम्बन्धित हैं। कई ऐसी समस्याएँ हैं, जो सर्वव्यापी हैं। इस विषय पर थोड़ी-बहुत रोशनी डालना चाहूँगा।

आज हम जिस परिवेश (वातावरण) में साँस ले रहे हैं, वह राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद का है। अब यह लम्बी बहस है कि आतंकवाद किन कारणों से जनमा और इसे क्यों पाला-पोसा गया। एक नज़रिया यह भी है कि जब सोवियत यूनियन विखंडित और साम्यवाद पतनशील हुआ, तब अमरीकी रक्षा-विभाग 'पेंटागन' के अधिकारियों ने अमरीकी सत्ता पर अपनी पकड़ मज़बूत रखने के लिए इस्लामी आतंकवाद की बात की और इस तरह विभिन्न सभ्यताएँ जान-बूझकर टकरायीं। कारण यह कि साम्राज्यवादी देशों को एक नये दुश्मन की ज़रूरत थी। 'कम्युनिज़्म', जो पहला दुश्मन था, अब नहीं रहा। आज रूस अमेरिका का अनुयायी है, तो उनको एक नया दुश्मन इस्लामी आतंकवाद के रूप में मिला। यही वे सबको समझा भी रहे हैं। इसलिए आज भी अमरीका पर, वहाँ की अर्थव्यवस्था पर हथियार बनानेवाले कारख़ानों के मालिकें की पकड़ बहुत मज़बूत है। यह एक बहस का विषय है। इसका एक दूसरा दृष्टिकोण भी हो सकता है, लेकिन इस्लामी आतंकवाद एक वास्तविक समस्या है। कारण जो भी हों, लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि यह कोरी कल्पना है, यह एक हौवा है, जिसे खड़ा किया गया है।

दूसरी समस्या, जो आज के समय में है, वह हमारे देश में फैली हुई साप्रदायिकता, हिन्दुत्व के नाम पर फासीवाद, घृणा और द्वेष है, जिसकी वजह से अल्पसंख्यकों का जीना दूभर हो गया है। इनका अस्तित्व ख़तरे में है। इनकी सम्पत्ति ख़तरे में है। और ज़ाहिर है, यह सब उन्होंने ही किया, जो गाँधीवाद के शुरू से विरोधी थे।

तीसरी ख़ास बात, जो विसंगतियों के सिलसिले में कही जा सकती है, वह वैश्वीकरण (Globalization) की है, जो विश्व-भर की संस्कृति, व्यापार और अर्थव्यवस्था पर फैला हुआ है। और इसका प्रभाव हमारी राजनीति, हमारी अर्थ-व्यवस्था, हमारी संस्कृति और जीवन-शैली पर पड़ रहा है - जि़न्दगी का हर पहलू इससे प्रभावित हो रहा है। असल में वैश्वीकरण एक तरह का विश्वव्यापी व्यापार है। हमने 'विश्व व्यापार संघ' के दस्तावेज़ (World Trade Organization) पर हस्ताक्षर करके अपने देश में बेकारी को निमंत्रण दे दिया है।

कुछ समस्याएँ केवल हमारे देश की हैं, जैसे निरक्षरता और घूसख़ोरी। ये समस्याएँ हिन्दुस्तान में बहुत गम्भीर हैं। एक और विपदा है, जिससे आज सारी दुनिया जूझ रही है, इसके संकट का मुख्य कारण है पर्यावरण में प्रदूषण। इसके बारे में चर्चा भारत या अन्य विकासशील और पिछड़े देशों में भी होती है, लेकिन ज़्यादा चर्चा उन्नत देशों में होती है। ये सारी बातें इन विसंगतियों में शामिल हैं।

मगर इन तमाम विसंगतियों का समाधान गाँधीवाद या गाँधीवादी चेतना में ढूँढ़ना गाँधीजी और गाँधीवाद दोनों के साथ ज्य़ादती होगी। हर विचार, हर आस्था, हर नज़रिया अपनी जन्मभूमि और समय की सीमा में होता है। गाँधीवाद भी इसका अपवाद नहीं है। इसलिए हमें इन विवादों के सम्बन्ध में गाँधीजी के मुख्य विचारों पर नज़र डालनी होगी। उसके बाद हमको यह देखना होगा कि क्या हम उनके बुनियादी विचारों के सहारे इन विसंगतियों से लड़ सकते हैं? अगर हम गाँधीजी की ज़िन्दगी पर नज़र डालें तो हमको यह अंदाज़ा होगा कि उनके जीवन का संघर्ष दो दिशाओ में चलता रहा -एक बाहरी जद्दोजहद थी, जिसके बल पर उन्होंने ब्रिटिश सत्ता का सत्याग्रह जैसे हथियार से सामना किया और हमारे देश को आज़ादी दिलायी। और दूसरी थी - सत्य की खोज के लिए उन्होंने अपने अस्तित्व से संघर्ष किया और कई प्रयोग किये। असल में दूसरे संघर्ष से उनके विचार या गाँधीवादी चेतना का सम्बन्ध है। यह ज़्यादा अहम् है। गाँधीजी एक दृढ़ विश्वासवाले हिन्दू थे। भगवान अर्थात् समझ में न आनेवाली एक शक्ति पर उनका पूर्ण विश्वास था। इस बात पर वे भरपूर य़कीन रखते थे कि इस कायनात को बनाने और इसमें एकात्मता रखनेवाला जो भी है, जिस नाम से भी आप उसे याद करें, वह ईश्वर (ख़ुदा) है और वही सत्य है। गोया सत्य गाँधीयाई सोच का मौलिक बिन्दु है, गाँधीजी ने सत्य की खोज के सिलसिले में जो लेख लिखे, उनमें बार-बार वे इस बात पर बल देते रहे कि 'सत्य ही भगवान है'। तो इसमें वे लोग भी भागीदार हो जाते हैं, जो नास्तिक या अनीश्वरवादी हैं। तो क्या हम ऐसे लोगों को भी गले लगा सकते हैं? गाँधीजी का कहना था कि अगर आप सत्य पर हैं तो दुनिया की कोई त़ाकत, कोई सत्ता, कोई अत्याचार आप का कुछ बिगाड़ नहीं सकता, क्योंकि उनका यह मानना था कि सत्ता या सरकार या अत्याचारी शासक मनुष्य की सम्पत्ति या उसके शरीर पर आधिपत्य जमा सकता है, लेकिन किसी की आत्मा या अंतरात्मा पर उसका क़ब्जा नहीं रहता। उन्होंने सत्य को भगवान मानकर एक उदार नज़रिया दिया तो गाँधीजी के धर्म में दुनिया के विभिन्न धर्मों के लोगों के अलावा वे भी सम्मिलित हो गये, जो नास्तिक या अनीश्वरवादी थे। यह जो उदारवादी और उन्मुक्त नज़रिया गाँधीजी का है, बहुत अहम् है। उनकी बड़ाई क्या गिनवाऊँ! बस इतना कि आइन्स्टाइन ने कहा था कि 'आनेवाली पीढ़ी बहुत मुश्किल से य़कीन करेगी कि कभी इस तरह का व्यक्ति इस धरती पर चलता-फिरता था।' दलाईलामा और मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने न केवल गाँधीजी से प्रेरित होकर अपना आंदोलन चलाया और सफलता पायी, बल्कि उन्हें उन लोगों ने स्वीकार भी किया। इसी क्रम में एक और प्रमुख नाम जनरल मैड्रिड का है, जो स्वीडन के अर्थशास्त्री हैं। विसंगतियों के विषय में उनका नाम लेना ज़रूरी है।

यह कैसी विडम्बना है कि आज हमारे अपने देश में क्या, गाँधीजी के ही राज्य गुजरात में भी उन्हीं के सिद्धांतों को न सिर्फ़ रद्द कर दिया गया है; बल्कि हर दिन उन्हें रौंदा भी जा रहा है। हमने आज़ादी मिलते ही गाँधीजी को शारीरिक रूप में ख़त्म कर दिया, उन्हें गोली मार दी। आज हर रोज़ उनके विचारों, विश्वासों का ख़ून किया जा रहा है।

दूसरी विशेष बात उनके चिंतन की है, अहिंसा पर वे पूरा विश्वास करते थे। अहिंसा के विषय में उन्होंने यहाँ तक लिखा है कि -''मेरे लिए अहिंसा स्वराज्य से ज़्यादा अहम् है। यदि स्वराज्य हिंसा के रास्ते से आता है तो वह मुझे स्वीकार नहीं। ये जो बातें हैं अहिंसा और सत्य की, इन्हीं दो आधार-बिन्दुओं को लेकर गाँधीजी ने अपनी राजनीतिक रणनीति तैयार की थी, जिसे 'सत्याग्रह' कहा जाता है। इसे उन्होंने हिन्दुस्तान में नहीं, बल्कि दक्षिण अ़फ्रीका में ही तैयार कर लिया था। वे जब वहाँ पहुँचे, उन्होंने सोचा कि कुछ सप्ताह में वापस आ जाऊँगा। वहाँ वे म़ुकदमे की पैरवी के लिए गये थे। लेकिन उन्हें वहाँ कोई पच्चीस साल रुकना पड़ गया, क्योंकि वहाँ उन्होंने रंग-भेद का भयानक चेहरा देखा। उन्होंने ऐसे क़ानून की मुख़ालफ़त की और भारतीयों को एकजुट और संगठित किया। उन्होंने एक अख़बार भी निकाला। जिसका नाम था 'इंडियन ओपिनियन' (Indian Opinion)। उसमें वे जो लिखते थे, उसका वहाँ की दूसरी पत्र-पत्रिकाएँ विरोध करती थीं। गाँधीजी इससे संतुष्ट नहीं थे, तब उन्होंने अपने अख़बार में यह विज्ञापन छापा कि जो भी शख़्स उनके इस आंदोलन को, जो अहिंसात्मक है, अगर किसी और ढंग से परिभाषित कर सकता है, तो उसे पुरस्कार दिया जायेगा। तब मदनलाल गाँधी ने, जो उनके सहकर्मी थे, 'सत्य + आग्रह' की परिभाषा दी -न्याय और सत्य के मार्ग और काम में अडिग रहना। गाँधीजी ने मदनलाल गाँधी को पुरस्कृत तो किया, लेकिन वे 'सत्य + आग्रह' की परिभाषा से ज़्यादा संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने संस्कृत के दो शब्द सत्य और आग्रह को मिलाकर एक संयुक्त शब्द 'सत्याग्रह बनाया, जिसका शाब्दिक अर्थ है - सच्चाई के लिए आग्रह करना, लेकिन रणनीति के तौर पर यह एक हथियार है - हर उस अत्याचारी शासक, हर उस क़ानून से लड़ने का, जो अंतरात्मा के खिलाफ़ हो। गाँधीजी कहते थे कि हर उस कार्य का, जो अनियमित या प्राकृतिक सिद्धांतों या आपकी अंतरात्मा के विरुद्ध हो, प्रतिरोध करना हर सत्याग्रही का कर्तव्य है और यह सत्याग्रह के रास्ते से ही सम्भव है। लेकिन सत्याग्रह के लिए अहिंसा अनिवार्य है। ये थे उनके चिंतन के मौलिक बिन्दु।

इसके बाद सबसे प्रमुख बात थी हिन्दू-मुस्लिम एकता की। वैसे यह मुद्दा उनके विचार का बुनियादी अंग नहीं था, पर उन्होंने जो राजनीतिक संघर्ष किया, उसके लिए वे हिन्दू-मुस्लिम एकता को बहुत ज़रूरी समझते थे। उनका कहना था कि भारत के इन दोनों समुदायों में अपनत्व का भाव नहीं होगा तो इस देश की उन्नति नहीं हो सकेगी।

गाँधीजी मशीनों के अनावश्यक इस्तेमाल के ख़िलाफ थे। यह बात गाँधीजी के विरुद्ध प्रचार का हथियार बनी। प्रचार करने के कई तऱीके हैं। जो लोग उनके विरोध में तर्कपूर्ण कुछ नहीं कह सकते, वे यह कहते हैं कि वे संत आदमी थे। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि वे संत-महात्मा थे, ठीक है; पर किसी की व्यावहारिक ज़िन्दगी से उनका क्या लेना-देना? वे तो मशीनों के ख़िलाफ़ थे, क्योंकि वे मशीनों का सीमित इस्तेमाल चाहते थे।

गाँधीजी ने जहाँ सियासी हिन्दुस्तान का नक़्शा पेश किया, वहीं वे हर गाँव को आर्थिक रूप से स्वावलंबी और एक स्वायत्त इकाई के रूप में देखना चाहते थे। वे चाहते थे कि गाँव अपने लिए अनाज ख़ुद उपजाये, कपास ख़ुद पैदा करे और सिर्फ़ वही चीज़ दूसरे गाँव से आये, जो स्थानीय तौर पर पैदा नहीं होती है। साथ-साथ वे यह भी चाहते थे कि इन सारे स्वायत्त हिन्दुस्तानी गाँवों में आपसी तालमेल रहे। गर्ज़ यह कि उन्होंने बहुत सादी ज़िन्दगी पर ज़ोर दिया और यही है गाँधीवादी चेतना का सार।

अब तीसरा पहलू मेरे लेख का यह है कि क्या हम गाँधीवादी चेतना की रोशनी में आज की विसंगतियों का समाधान ढूँढ़ सकते हैं? जहाँ तक आतंकवाद, साप्रदायिकता और फासीवाद का सम्बन्ध है, तो अहिंसा का रास्ता ज़रूरी है। गाँधीजी का दुर्भाग्य है कि वे जिन दो प्रमुख समूहों -मुसलमानों और दलितों के लिए लड़े, उन्होंने ही गाँधीवाद का रास्ता छोड़ दिया। 11 सितम्बर 2001 की घटना हो या संसद पर हमला या अक्षरधाम का कांड, इसके परिप्रेक्ष्य में यह नहीं कहा जा सकता कि किसी अमुक कारण से हम हिंसा और आक्रमण पर उतर आयें। यह गाँधीवाद के प्रतिकूल है, गाँधीवादी चेतना के बिल्कुल विरुद्ध है। अगर आप सच्चाई पर हैं और आप समझते हैं कि आपके अधिकार छीने जा रहे हैं, अगर आप समझते हैं कि आपके साथ अत्याचार हो रहा है, अन्याय हो रहा है तो आप केवल अहिंसा के रास्ते पर रहें।

गाँधीजी मारे गये, क्योंकि उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम इत्तेहाद के लिए तीन अहम् उपवास रखे - पहला उपवास तब, जब सन् 1924 में कोहाट में दंगा हुआ। दूसरा तब, जब आज़ादी के समय वे नोआखाली जाना चाहते थे। वे कलकत्ते में रोके गये। सुहरावर्दी तब मुख्यमंत्री थे। मुसलमानों का नरसंहार किया जा रहा था। गाँधीजी ने वहाँ उपवास रखा। उसके बाद दिल्ली में उन्होंने 12 जनवरी 1948 को उपवास शुरू किया, जो 18 जनवरी 1948 तक चला। अबुलकलाम आज़ाद ने शरबत देकर वह उपवास ख़त्म कराया। फिर तो हिन्दू, सिक्ख और मुसलमान आये यह कहने कि अब अमन व शान्ति है। लेकिन जो सत्ताधीन थे, उन्हें यह बात पसंद नहीं आयी, क्योंकि गाँधीजी के अहिंसा के रास्ते से इस देश में मुसलमान भी रहते। तभी तो उन लोगों ने उन्हें गोली मार दी। एक आदमी ने मुसलमानों के लिए अपनी जान दे दी। आज मुसलमान कहते हैं कि हमारे साथ अन्याय हो रहा है, हमारे अधिकारों का शोषण हो रहा है, इसलिए हम आतंकवाद का रास्ता अपना सकते हैं। यह घोर अन्याय होगा गाँधीजी के साथ। मुसलमानों को सोचना चाहिए कि यह बहुत ग़लत धारणा है। बेरोज़गारी की समस्या भी वहीं से जुड़ी हुई है। मशीनें हों या स्वचालित यंत्र, इनके बेलगाम प्रयोग को बंद कीजिए। वैश्वीकरण पर फिर से ग़ौर कीजिए। 'विश्व व्यापार संघ' के दस्तावेज़ पर जो हस्ताक्षर किये गये हैं, उस पर फिर विचार करें। मेडलमेन की राय इसलिए अहम् है कि वे कहते हैं कि एशिया महाद्वीप के देशों में ख़ास कर प्रशांत महासागर में जो छोटे-छोटे देश हैं, जिन्हें हम Far East (फ़ार ईस्ट) कहते हैं, उन देशों में जो प्रगति आयी, वह इसलिए कि उन्होंने गाँधीजी के सिद्धांतों का अनुकरण किया। चाहे चीन कुछ भी कह ले कि हम साम्यवाद और मार्क्सवाद का रास्ता अपनाये हुए हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि चीन की अर्थव्यवस्था गाँधीवाद की सफलता का प्रमाण है। वहाँ श्रमिकों पर ज़्यादा तवज्जो दी गयी और ऐसे ही कारख़ानों को प्राथमिकता दी गयी, जहाँ अधिक संख्या में मज़दूरों को रोज़गार मिलता है। गाँधीजी का यही विचार था।

हमारे यहाँ निरक्षरता और जहालत जो फैली हुई है, उसे मिटाने के लिए गाँधीजी चाहते थे कि प्राथमिक शिक्षा नि:शुल्क और अनिवार्य हो। हमारे पास इसके लिए कोष का अभाव है, क्योंकि हमें श़ौक है परमाणु हथियार बनाने का। वह फ़ंड हम उधर ख़र्च कर रहे हैं। हमको श़ौक है हथियार ख़रीदने का। हिन्दुस्तान गाँधीजी के नाम का ढिंढोरा तो पीटता है, लेकिन वह आज सबसे ज़्यादा हथियार ख़रीदनेवाला देश है। हमारे जी. एन. सी. (G.N.C.) का अच्छा-ख़ासा हिस्सा हथियारों की ख़रीदारी में जाता है। आप इसको रोकिए। आपके पास शिक्षा के लिए फ़ंड मुहैया हो जायेगा। पर्यावरण, प्रदूषण का जहाँ तक सम्बन्ध है, पश्चिम के देशें और यहाँ भारत में भी पर्यावरण को प्रदूषित करनेवाले कारख़ानों को बन्द करने और प्राकृतिक सम्पदा को बचाने की बातें हो रही हैं। इन सबसे पहले सत्तर साल पूर्व उन्होंने (गाँधीजी ने) लिखा था कि ''जब तक आप ग्रामीण समाज, सादी ज़िन्दगी अथवा गाँव को नहीं लौटेंगे, अपनी जड़ों से नहीं जुड़ेंगे, तब तक आप औद्योगिक संस्कृति के गुलाम बने रहेंगे।'' औद्योगिक संस्कृति के वे इसलिए विरुद्ध थे कि यह भी हिंसा की प्रतीक है। हिंसा का केवल मनुष्य के ख़िलाफ़ होना ज़रूरी नहीं, पेड़ काटना भी हिंसा है। इसलिए गाँधीजी ने कहा था कि 'इससे पर्यावरण प्रदूषित होगा।' सीधी-सादी ज़िन्दगी की ओर लौटना एक आदर्श है। इस पर अमल करना सम्भव है। इसलिए उन्होंने जो कुछ लिखा या कहा, उस पर अमल करके भी दिखाया ।

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