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गाँधी : भारतीय परम्परा का पुनरावलोकन

डॉ. सत्येन्द्र शर्मा

बीसवीं शताब्दी के यथार्थ को रेखांकित करते हुए हिन्दी के एक प्रतिष्ठित लेखक श्रीकान्त वर्मा ने बहुत विचारणीय बात कही है -

"18वीं शताब्दी में मनुष्यता ने एक दूसरा ही रास्ता पकड़ लिया। यह रास्ता था विज्ञान और टेक्नोलॉजी का। इस रास्ते पर चलती हुई मनुष्यता इन ढाई सौ वर्षों में जिस जगह पहुँची है, क्या वही उसका गन्तव्य था? यह सवाल स्वयं मनुष्यता के सामने मुँह बाये खड़ा है। युद्ध का भय इंसान को जकड़े हुए है, परमाणु संहार का ख़तरा उसकी गरदन पर डियॉक्लीज़ की तलवार की तरह झूल रहा है, समृद्ध समाजों में दिशाहीनता है, ग़रीब देशों में भुखमरी है, काले और गोरे का भेद आज पहले से अधिक तीव्र है, ऊर्जा के स्रोत सूख चले हैं, क्रांतियाँ वायदे पूरे नहीं कर सकी हैं, विचारधाराएँ निप्राण जान पड़ती हैं।''1 इस कथन को अन्तर्राष्ट्रीय मनीषी श्री आर्नल्ड टॉयनबी के इस विचारपूर्ण निष्कर्ष से मिलाकर देखें-

"मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि जब से मानवजाति ने मानवेतर प्रकृति पर आधिपत्य स्थापित किया है, उसका अस्तित्व इतना असुरक्षित और अनिश्चित कभी भी किसी भी युग में नहीं रहा, जितना आज है। मानव जाति के अस्तित्व को आज स्वयं मानव जाति की ओर से ही ख़तरा है। मनुष्य की प्रौद्योगिकी, जिसका दुरुपयोग मानव के अहं तथा दुष्टतापूर्ण पैशाचिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए हो रहा है; भूकम्प, ज्वालामुखी-विस्फ़ोट, तूफ़ान, बाढ़, सूखा, विषाणुओं, रोगाणुओं, शार्कों तथा पैने दाँत वाले शेर-चीतों से भी अधिक घातक है।''2

बौद्धिक क्षितिज में आइन्स्टाइन, श्वाइट्ज़र और बर्ट्रेड रसेल जैसे नामवर लोगों की पंक्ति में नामांकित किये जाने वाले अन्तरराष्ट्रीय इतिहासज्ञ टॉयनबी ने बौद्धदर्शन के अध्येता दाईसाकु इकेदा से, अपने जीवनकाल के शायद उक्त अंतिम विचार संवाद में व्यक्ति-समाज, राष्ट्र-अन्तरराष्ट्र, प्रकृति-प्रौद्योगिकी, युद्ध-शांति, शिक्षा-संस्कार, जनसंख्या-वृद्धि, प्रदूषण, तत्रप्रणाली, विचारधाराओं के आग्रह, पूरब और पश्चिम दृष्टि आदि नानाविध बिंदुओं पर सूक्ष्म विमर्श करते हुए आधुनिक मानव के 'तमाम वैज्ञानिक और प्रौद्योगिक कौशल' से सम्पन्न होने के बावजूद ऐसा 'आदिकालीन मानव' कहा है, जिसका 'अपनी आज की स्थिति पर नियंत्रण नहीं है।

'बीसवीं शताब्दी के अँधेरे में' उजाले देते झरोखों की संभावनाओं को तलाशते हुए नोबल पुरस्कार विजेता गुन्नार मिर्डल वैश्विक और विशेषकर भारतीय सन्दर्भ में बार-बार गाँधी का स्मरण करते हैं, किन्तु महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ ‘Choose Life’ में आत्मा को मनुष्य की गरिमा की एकमात्र पहचान और भावी मानवजाति की आसन्न चुनौतियों का समाधान धर्म-प्रेरित आत्मसंयम को बताने वाले टॉयनबी इस लम्बे संवाद-क्रम में गाँधी का ज़िक्र नहीं करते; यह आश्चर्यप्रद है, जबकि वे स्वयं मानते हैं-

'विज्ञान ने तो मन के अवेचतन स्तरों पर अन्वेषण प्रारम्भ करने का साहस अभी कुछ काल पूर्व ही किया है, किन्तु भारतीय दार्शनिक लगभग ढाई हज़ार वर्ष पूर्व इस अन्वेषण में लगे थे।''3 गाँधी भारतीय दर्शन और मूल्य संवलित उदात्त जीवन-परम्परा को अपने समकालीन जीवन-समाज में धरती में उतारने में लगे थे, साथ ही एक देश की परिधि को लाँधकर बृहत्तर समाज को परिचालित करने का सर्वानुमत श्रेय पा चुकने और इस अर्थ में वे मानव-मन की प्रयोगशाला के अन्वेषक और आधुनिक ऋषि-वैज्ञानिक होने के नाते इस विचार-संवाद में सहज ही स्मरण के योग्य थे। ऐसा करने से विद्वान टॉयनबी की सैद्धान्तिक अवधारणा को व्यावहारिक प्रमाण की मूर्त सिद्धि ही हाथ लगनी थी। अस्तु।

वास्तव में गाँधी की जीवन-प्रणाली और कर्मचेतना को जब हम एक विशाल औपनिवेशिक साम्राज्य से एक जाति, समुदाय या राष्ट्र को मात्र राजनीतिक या आर्थिक तौर पर मुक्ति दिलाने के सफल प्रयास के रूप में देखते हैं, तो यह भारतीय परम्परा से अनुप्राणित उनके महान् व्यक्तित्व और उनके अभिप्राय का असंगत परिसीमन तो कर ही रहे होते हैं; उनके जीवन के उन बड़े सरोकारों को भी अनदेखा करते हैं, जिनकी सिद्धि से एक विराट सांस्कृतिक चेतना का निर्माण किया जा सकता है और जिसका अनुभव उन्होंने स्वयं अपने तथा हज़ारों-लाखों भक्तों, प्रशंसकों व अनुयायियों के स्तर पर पाया था। इस सहज अर्थ में भी गाँधी मात्र एक स्वातंत्र्य वीर से अधिक एक सांस्कृतिक योद्धा ठहरते हैं; जो जाति, वर्ग, नस्ल, सप्रदाय, रंग, क्षेत्र, राष्ट्रीय परिधि, ऊँच-नीच वाद और विधर्म से परे मानव-समाज की रचना के लिए सन्नद्ध और प्रतिश्रुत खड़े दिखायी देते हैं।

सहस्र वर्षों से भिन्न-भिन्न आक्रान्ताओं से पराधीन और बाद में ब्रिटिश साम्राज्य के साये तले घुट-घुट कर साँस ले रहे भारतीय जनसमूह को स्वतंत्रता के उन्मुक्त आकाश की छवि दिखाकर उसे पाने की आकांक्षा और तदनुरूप चेष्टाएँ गाँधी से पूर्व राजा राममोहन राय, तिलक और गोखले आदि और तत्पश्चात् अनेक पुण्य हाथों में सम्पन्न हुईं, किन्तु भारत-सहित दक्षिण अ़फ्रीकी ग़ुलाम जनों में स्वतंत्रता का शंखनाद करनेवाले गाँधी का लक्ष्य स्वतंत्रता प्रथमत: तो था, किन्तु अंतिम नहीं। वे स्वातंत्र्य-लक्ष्य से अधिक आगे 'आत्म स्वातंत्र्य' की कामना से आपादमस्तक पूरित थे। आत्म स्वातंत्र्य का यह मत्र उन्हें पौराणिक, ऐतिहासिक और आधुनिक भारत की वरद् परम्परा से प्राप्त हुआ था। प्राचीन काल में राम, कृष्ण, ऐतिहासिक बुद्ध और महावीर तथा आधुनिक स्वामी विवेकानंद इस परम्परा के प्रज्ञा-पुरुष हैं। दुनिया का विज्ञ-समुदाय गाँधी को इस परम्परा की आधुनिक कड़ी मानता है। दरअसल धन, अस्त्र-शस्त्र और चातुर्य पर टिके विशाल अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद की बुनियाद हिलाने का कार्य गाँधीजी ने जिन अमोघ शस्त्रों-सत्य व अहिंसा-से लिया, वे उन्होंने भारतीय दर्शन और जीवन-परम्परा से ही प्राप्त किये थे। वही भारतीय दर्शन, जिसमें मनुष्य मन के अन्वेषण में शताब्दियों की ऋषि-परम्परा की साधना से अर्जित तत्त्वों की भूरि-भूरि प्रशंसा मैक्समूलर से लेकर टॉयनबी और ऑक्टीवियो पॉज़ तक करते आ रहे हैं।

गाँधी की कर्म-चेतना में भारतीय परम्परा को रूढ़िवादी दृष्टि से देखने में न सिर्फ़ निराशा हाथ लगेगी, बल्कि मामला गड्डमड्ड भी हो जाएगा, कुछ उसी तरह जैसे गाँधी जी द्वारा प्रदत्त समाज के सबसे दलित और अस्पृश्य वर्ग को 'हरिजन' जैसे उच्च अभिप्राय वाले शब्द में आज उस वर्ग के कथित स्वयंभू चिन्तकों द्वारा गाँधी जी की बदनीयती ढूँढ़ी जाती है और कुतर्क रचे जाते हैं और फिर देश-काल, समाज के परिप्रेक्ष्य में परम्परा, आचार-विचार के रूप में हवा-पानी की भाँति अस्तित्वमान रहते हुए भी भौतिक पदार्थों और कला-उपादानों की भाँति मूर्त नहीं होती। वह सूक्ष्म, गत्यात्मक और युग-व्यक्तित्व सर्जित मूल्यों से गढ़ी जाकर युगानुरूप और अद्यतन होती है। उसकी जड़ें देश-समाज के नाभि-नाल में होकर भी नित-नूतन और पल्लवित होती रहती हैं। भारतीय परम्परा की अन्तश्चेतना को गाँधी के जीवन-नियमन में समझने के लिए दर्शनशास्त्री प्रोअ गोविन्दचन्द्र पाण्डे का यह कथन आधारभूत सहायता करता है, जिसमें वे कहते हैं-

"संस्कृति विचारशील व्यक्ति के समक्ष मूल्यों को उपादानवत् प्रस्तुत करती है, जिसके आधार पर वह स्वयं अपने मूल्य गढ़ता है। इन व्यक्ति-कल्पित मूल्यों में और परम्परागत मूल्यों में बहुधा सादृश्य होते हुए भी सदा या सर्वथा नहीं होता। यही परम्परा के निरन्तर बदलते रहने का एक कारण है।...वस्तुत: परम्परा एकविध या समञ्जस होती भी नहीं है। वह गंगा की धारा के समान सभी तीर्थों और प्रदेशों का प्रभाव अपने में लिये रहती है। मूल्य-विचार के लिए उसका महत्त्व कुछ उस प्रकार का है, जैसा उत्पादन के प्रसंग में कच्चे माल या खनिज पदार्थ का।''4

परम्परा का मूल प्रवाह अविच्छिन्न बना रहता है और उसमें काल, परिस्थितियों की आवश्यकता के अनुरूप और समय-समय पर जन्म लेनेवाली व्यक्ति-प्रतिभा के अनुकूल नये-नये मूल्य जन्म लेते और जुड़ते चले जाते हैं। देखा जा सकता है कि परम्परा के जो मूल्य मध्यकालीन समाज में कोरे आध्यात्मिक ज्ञान व मोक्ष के उपाय के रूप में विद्यमान थे, आधुनिक युग में उनमें मानवतावादी आचरण की क्रियात्मकता समा गयी। विद्वान आचार्य की उक्ति साक्ष्य के रूप में दृष्टव्य है-

"19वीं शताब्दी में कोरे ज्ञान और कोरी भावुकता के स्थान पर सेवा और प्रेम का मानवतावादी आदर्श क्रमश: प्रस्फुटित हुआ। राममोहन राय से तिलक, गाँधी और अरविन्द तक बार-बार यह प्रयत्न किया गया है कि उपनिषदों और गीता की परम्परा में कर्म का नि:स्वार्थ मानव-सेवा के रूप में प्रतिपादन किया जाये।''5

भारतीय परम्परा की गहरी पड़ताल करनेवाले मनीषी श्री विद्यानिवास मिश्र के निम्नांकित कथन से भी हमारी धारणा की पुष्टि होती है-

"कर्म-प्रधान और संन्यास-प्रधान दृष्टियों में अन्तर जब-जब आया है, तब-तब उसके समन्वय का प्रयत्न हुआ है। भगवद्गीता ने समन्वय का एक मार्ग दिया। मध्ययुग के भक्तों ने उसके आगे का एक दूसरा मार्ग दिया। रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, तिलक, गाँधी और श्री अरविन्द ने आधुनिक युग में फिर नया मार्ग दिया। इसलिए यह सम्भव हुआ कि कर्म संन्यास के रूप में परिणत हो जाये और संन्यास समस्त भूतों की सेवा के रूप में।''6

भारतीय परम्परा के शाश्वत मूल्यों, जिनकी ऊष्मा पराधीनता की लम्बी अवसाद- रूपी राख में दब गयी थी, गाँधी ने अपने निपुण और वयस्क हाथों से अलग किया। ढके-मुँदे मूल्य-ताप को अनावृत्त किया, उसमें बड़े जतन से कर्म-संस्कार और आचरण की समिधा देकर पुन: प्रज्ज्वलित कर उसके ताप और प्रभा से लोगों का साक्षात्कार कराया। यह अपनी ही नाभि से कस्तूरी पाने जैसा सयाना प्रयत्न था। गाँधी कभी भी इस विभ्रम में नहीं पड़े और न ही आत्म-मुग्ध होकर संशयात्मा के शिकार हुए कि उन्होंने लोगों के सामने कोई नयी बात रखी है, कि वे समाज को कोई नया मूल्य दे रहे हैं, कि वे अपनी ओर से कुछ नया जोड़ रहे हैं। वे जीवन-भर आत्यन्तिक विनम्र भाव से यही कहते-दोहराते रहे कि-

"...मुझे वे बातें खोज कर निकालनी पड़ती हैं, जो पहले से ही मौजूद हैं। चमत्कार तथा आँखों को चकाचौंध करने वाले जादूगर को संसार में हमेशा ही सम्मान मिलता है, पर पुरानी चीज़ों की उलट-पुलट करने वाले मुझ जैसे व्यक्ति को किसी कोने में स्थान प्राप्त करने के लिए भी बड़ी मेहनत करनी पड़ती है।''7 

"मैंने ऐसा कौन-सा नया तत्त्व-ज्ञान लोगों को बताया। इतना ज़रूर है कि शाश्वत सत्य के मूल्य अपने दैनिक जीवन पर तथा भविष्य में पैदा होने वाले प्रश्नों पर लागू करने का मैं प्रयत्न करता रहा हूँ।''8 बाल्यावस्था के संस्कार-बीज जीवन-वृत्ति का स्थायी भाव बनकर कैसे जीवन को नकारात्मक या सकारात्मक दिशा में प्रेरित किये रहते हैं, गाँधी जी का जीवन-वृत्त इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। हमारी परम्परा में सन्तति के जन्म से पूर्व जो गर्भाधान और पुंसवन संस्कार और निर्धारित मर्यादाएँ आदि हैं, उनके पालन से भविष्यत् श्रेष्ठ नागरिक के निर्माण की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। बहरहाल, गाँधी की बाल्यावस्था में मासूम आँखों से देखे गये सत्य नायक हरिश्चन्द्र, पितृभक्त श्रवण और आस्तिक माँ की तपश्चर्या के दृश्य अक्स बनकर जीवन में बड़े सरोकारों वाले निर्णयों तक में आधार-भूमि बनते रहे हैं।

प्राय: सिद्धांत-आग्रही लोग सैद्धान्तिक अवधारणाओं का पग-पग पर वास्ता देकर व्यक्ति-समाज के नियमन का शुष्क, यत्रवत् और असफल प्रयास करते हैं, किन्तु गाँधी जीवन की दुर्बलताओं और व्यावहारिक कठिनाइयों को भली-भाँति समझने के कारण परंपरागत मूल्यों को व्यक्ति और सार्वजनिक जीवन में उतारने के लिए सत्य की उपलब्धि पाने का दावा नहीं, वरन् 'सत्य के प्रयोग' करते हैं। कौन जाने आत्मसंयमित मन कब उन्मुक्त साँड़ बनकर अभी तक की अर्जित साधना को भंग कर दे। आख़िरकार मूल्य की धार पर जीना 'तलवार पै धावनो है'। इस खेल को बाल-क्रीड़ा भी न समझें, कई बार, अधिकांश तो परंपरा-मूल्य की संरक्षा में प्राणों का मोल भी पासंग पड़ गया है। ईसा, मोहम्मद साहब और स्वयं गाँधी ने यह मूल्य चुकाया है। इसलिए गाँधी साधारणजनों को इन पारंपरिक मूल्यों को आचरित करने की प्रेरणा दैनंदिन जीवन के व्यावहारिक पाठ और प्रथम उदाहरण स्वत: बनकर देते हैं। अत: यह कहना असंगत न होगा कि गाँधी की जीवन-यात्रा पर दृष्टि डालना भारतीय परंपरा के भिन्न-भिन्न समय में दिग्दर्शन है। ऐसा करते हुए हम उन मूल्यों का प्रकट स्वरूप देख सकने के अतिरिक्त उनकी पहचान कर नामांकित भी कर सकते हैं।

इसके अतिरिक्त इस अध्ययन का एक अनुषंगिक प्रतिफल यह भी होगा कि हम भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के मूल्यों का भी पुनर्स्मरण कर सकेंगे। यह इस कारण भी औचित्यपूर्ण होगा, क्योंकि -

"हमारे मस्तिष्क में तो स्वाधीनता की प्राप्ति के बाद के वर्षों ने इतनी लुगड़ियाँ भर दी हैं कि यह पहचान मुश्किल हो गयी है कि हमारी स्वतंत्रता की चेतना के पीछे मूल्य कौन से रहे हैं।''9

यद्यपि गाँधी के दक्षिण अ़फ्रीकी प्रवास के उत्तरकालीन अवधि के पदचापों की ध्वनि भारतीय राजनीतिक जीवन में साफ़-साफ़ सुनायी पड़ने लगी थी और उनका दृष्टिकोण तथा कार्य-प्रणाली भारतीय जनों के नेतृत्वकर्ताओं में कौतूहल और जिज्ञासा का विषय बन गयी थी, फिर भी इस अवधि को विस्मृत भी कर दिया जाये, तो भी भारतीय स्वातंत्र्य-संघर्ष के लगभग चार दशक गाँधी-नेतृत्व से प्रत्यक्ष तौर पर संचालित होने के कारण उनके विचारों और कार्यों को समझना ही स्वातंत्र्य-चेतना के मूल्यों को समझना है। यहाँ इस तथ्य का उल्लेख करना अपरिहार्य है कि दक्षिण अ़फ्रीका उनकी प्रयोगभूमि है, जहाँ उन्हेंने स्वानुभूत संस्कारों और भारतीय परम्परा के मूल्य-उपकरणों को सार्वजनिक प्रयोगशीलता में आजमाया था; उन उपकरणों में उनकी आस्था पक्की हो गयी थी। स्वदेश में आकर तो वे उन्हें बार-बार आजमाते रहे और उनमें धार देते रहे हैं। वे अपनी प्रयोगभूमि में ही मूल्य-संवलित ऐसा व्यक्तित्व निर्मित कर चुके थे, जिसका परिचय देते हुए जनरल स्मट्स ने-जो अपने कर्तव्य-निर्वहन में गाँधी के प्रति अनेक बार उपेक्षा, सख़्ती और क्रूरता का बरताव कर चुके थे-अपने संस्मरण में लिखा है-

"मेरे भाग्य में एक ऐसे व्यक्ति का प्रतिस्पर्धी होना बदा था, जिसके सम्बन्ध में उस समय भी मेरे मन में अत्यन्त आदर बना हुआ था। गाँधी जी के शुरू किये गये आन्दोलन का सामना करना मेरे लिए कसौटी बन गया था, क्योंकि मुझे ऐसे कानून का पालन करवाना था, जिसे लोकमत का सहयोग नहीं था। जेल में मेरे उस प्रतिस्पर्धी ने मेरे लिए चप्पलों का एक जोड़ा बनाया था। जेल से छूटने के बाद वह जोड़ा उसने मुझे भेंट किया। वही चप्पलें मैं बाद में कई दिन तक पहनता रहा था। पर वह सब करते समय मैं क्षण-भर के लिए भी नहीं भूल पाता था कि जिस व्यक्ति ने मुझे यह भेंट दी है, उसके जूतों के पास खड़े होने की योग्यता भी मुझमें नहीं थी।''10

गाँधीजी के जीवन-नियामक तत्त्वों को समझने के लिए उनके लिखे न तो मोटे-मोटे ग्रन्थ मिलेंगे, न ही प्रायोजित प्रवचन। उनके जीवन-सूत्रों को समझने के लिए, जैसा वे स्वयं कहते हैं-"आमार जीवनी आमार बानी'' अर्थात् 'मेरा जीवन ही मेरा सन्देश है'। गाँधीजी ने यह वाक्य अपने एक महीने के कोलकाता-प्रवास के बाद, दिल्ली रवाना होने से पूर्व अपनी हस्तलिपि में बाँग्ला में लिखा था। यह तथ्य डी. जी. तेन्दुलकर कृत महात्मा (खण्ड. 8) पुस्तक से उद्धृत है। उनकी जीवन-क्रियाओं, निर्णयें तथा व्यवहार-पद्धति को समझना होगा। अल्पकाल के लिए ही सही, वकील के तौर पर अदालत में प्रस्तुत उनके तर्कों, ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधियों से हुई उनकी वार्ताओं, तमाम लोगों को लिखे उनके पत्र के मसौदों और यहाँ तक कि सामान्य और विशिष्ट जनों से उनके वार्तालाप भी उन्हें समझने में मदद देते हैं।

उनका जीवन योजनाबद्ध नहीं था। पराधीन व्यक्ति-राष्ट्र का जीवन योजनाबद्ध हो भी नहीं सकता। किन्तु वह राष्ट्रीय परम्परा और मूल्य-सम्बद्ध था। अत: लन्दन से अ़फ्रीका लौटते समय यात्रा में ही उन्होंने 'हिन्द-स्वराज्य' पुस्तक लिख डाली। ध्यान देने की बात यह है कि इसे उन्होंने 'गुजराती' में लिखा। लघुकाय इस पुस्तक में शत्रु भाव की जगह प्रेम, अत्याचार की जगह सहिष्णुता और भौतिकता की तुलना में आध्यात्मिक समृद्धि का सन्देश है। इसमें उन्होंने साधन और साध्य की पवित्रता तथा इन्हें परस्पर पूरक बताते हुए स्पष्ट लिखा है कि -

"वृक्ष और बीज दोनों का जो अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है, वही ध्येय और साधन का भी है, जो ईश्वर की पूजा करने से मिल सकता है, वह शैतान की पूजा करने से पाना असम्भव है। हम जैसा बोते हैं, वैसा ही काटते हैं। यह बात किसी को भी नहीं भूलनी चाहिए।11 यहाँ गाँधी के मन में भारतीय परम्परा की कर्मफल-मान्यता के अतिरिक्त आस्तिकता, आत्मवत् सर्वभूतेषु का दिव्य भाव, श्रेयस्कर अध्यात्म, तज्जन्य सात्त्विकता और स्वदेशी भाषा में अभिव्यक्ति के कारण अपनी जड़ों की महत्ता की प्रतिष्ठा आदि कारक साफ़ पता चलते हैं। यह कहना भी तथ्यपरक ही होगा कि इन्हीं आधारभूतों से तो उन्होंने सत्याग्रह का दिव्यास्त्र तैयार किया था - यह सच है कि गाँधी के आचार से ही उनके विचारों का सच्चा परिचय मिलता है, किन्तु लिखित परम्परा में जीवन की प्रौढ़ावस्था में आत्मीय जनों के आग्रह पर उन्होंने 'सत्य के प्रयोग' लिखा (जो धारावाहिक रूप में लिखे गये हैं।) दक्षिण अ़फ्रीका में 'इंडियन ओपिनियन' तथा हिन्दुस्तान में 'नवजीवन', 'यंग इंडिया' तथा 'हरिजन' आदि समाचार पत्रों के वे नियमित लेखक थे। इनमें व्यक्त उनके विचार और भावनाएँ भी उनके सोच के साक्ष्य हैं। अलग-अलग प्रसंगों, स्थानों और परिस्थितियों में किसी भी माध्यम से व्यक्त उनकी मूल्यगत मान्यताओं को उनकी स्थायी और अन्तिम मान्यता समझा जाना चाहिए। धर्मग्रन्थों में होने के बावजूद जो बातें 'सत्य और न्याय की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं', उनमें वे 'नीर-क्षीर विवेक' के पक्षधर थे। यदि अछूतों को संस्कृत पढ़ने या वेदाध्ययन का अधिकार शास्त्र नहीं देता 'तो भी हमें शब्दश: पालन करके अपने धर्म के मूल तत्त्व का बलिदान नहीं करना चाहिए।11 शास्त्र हो, चाहे लोक-मान्यता, उसे सत्यनिष्ठ होना चाहिए, वही सर्वोपरि है, वह मानव-मात्र के शिवत्व के भाव से भरा है, तो जाति, सप्रदाय या ऊँच-नीच के आधार पर किसी को भी सत्य की उपासना से कैसे वंचित किया जा सकता है? वे लिखते हैं -

"मैं सत्य को ही भगवान मानता हूँ। मेरी दृष्टि में भगवान को जानने का एक ही उपाय है और वह है अहिंसा-प्रेम। उस भूमि की सेवा करना, जिस पर मैं पैदा हुआ हूँ, मेरा पवित्र धर्म है।''12 इस एक कथन में सत्य, भगवान, अहिंसा-प्रेम, मातृभूमि और धर्म जैसे बड़े पदों को एक साथ परिभाषित करने व इनके प्रति मानवीय कर्तव्य-बोध स्थापित करने की उनमें सहज उत्कंठा है।

वेद कहते हैं 'सत्य अनादि है, वह सृष्टि से भी पहले था और उसी से पंच महाभूत स्थिर है। वह सार्वकालिक और सार्वभौमिक है। ईश्वर सत् (अस्तित्व), चित्त (ज्ञान), आनन्द (अनिवर्चनीय ख़ुशी), सच्चिदानंद कहा गया है। वह विश्वास की सर्वोच्च सत्ता है। पंच भूत सम्पन्न प्रभु है। उसे अहिंसा-प्रेम से ही पाया जा सकता है ('रामहिं केवल प्रेम पियारा'-तुलसी), मातृभूमि ('जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी') की सेवा को ('सबसे सेवक-धर्म कठोरा'-तुलसी) धर्म-धारण ('धर्मज्ञ: सत्यसंघश्च प्रजानां च हिते रत:-वाल्मीकि) करना ही श्रेयस्कर है। यहाँ गाँधी का भारतीय धर्मग्रन्थों से संपूरित प्रज्ञा-मन और समकालीन जीवन-समाज को उप्रेरित करनेवाली उनकी गतिशील व्याख्या मनन करने योग्य है।

गाँधी के व्यक्तित्व में अध्यात्म और सांसारिक दो पृथक-पृथक खण्ड नहीं हैं। सांसारिक समस्याओं को छल, कपट और धोखाधड़ी से हल कर लें और फिर कमरे के कपाट बन्द कर राम नाम की अभ्यर्थना कर लें। ऐसा दोहरा आचरण वहाँ नहीं है। उनका अध्यात्म तो उनके जीवन-संग्राम की प्रेरणा और प्रभा बनकर प्रतिपल उनके साथ है। धर्म यहाँ जीवन-नियमन की धारणा बनकर जब-तब संशयग्रस्त होते मन को राह दिखा रहा है, ऊष्मा भर रहा है। इसीलिए अध्यात्म तत्त्व-सत्य, अहिंसा-प्रेम के मार्ग से विदेशी दासता से राजनीतिक मुक्ति और आर्थिक स्वातंत्र्य पाने का लक्ष्य उन्होंने ठाना था। इस तरह उनके लक्ष्योन्मुख 'स्वराज' के चार पाये थे- स्वयं गाँधी के शब्दों में "स्वराज्य के बारे में मेरी कल्पना इस प्रकार है। इस स्वराज्य के दो पहलू हैं। विदेशियों की गुलामी से यदि एक भी कोण बिगड़ जाये, तो समझ लीजिए कि वह विद्रूप हो गया है।''13

गाँधी के कर्म-क्षेत्र में अध्यात्म और लौकिक तत्त्वों का समन्वय अनायास न था। यह भारतीय परम्परा की युगानुकूल कर्ममय पुनर्व्याख्या है। गाँधी के अतिरिक्त आधुनिक युग में ऐसी ही सार्थक और तेजस्वी पुनर्व्याख्या स्वामी विवेकानंद और लोकमान्य तिलक के जीवन में दिखायी देती है। दर्शन-शास्त्री इस प्रवृत्ति का सटीक विश्लेषण करते हैं-

"आधुनिक युग में परम्परा की पुनर्व्याख्या का प्रयास मिलता है, जिसमें आध्यात्मिक और मानवीय मूल्यों के समन्वय पर ध्यान केंद्रित हुआ है। नैतिक मूल्यों के क्षेत्र में इस प्रकार का समन्वय सहज रूप से मिलता है, इसलिए आधुनिक विचारकें के लिए गीता का इतना महत्त्व रहा है।''14

श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय चेतना का आधारभूत ग्रन्थ है, यद्यपि उपनिषद् भी गाँधी के मानस को दिशा देने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं, जिनसे वे समझ सके कि "यदि एक मनुष्य दूसरे देव की पूजा-उपासना करता है, यह सोचते हुए कि वह एक है और उपास्यदेव दूसरा है, तब वह सत्य को जानता ही नहीं।''15

आत्मा, परमात्मा अर्थात् ब्रह्म की एकता का पाठ उन्होंने उपनिषदों से ही पढ़ा था, किन्तु परमेश्वर का चिन्तन, अंश-आंशी सम्बन्ध, कर्म-वैराग्य, कर्म-फल, अनासक्ति, प्रार्थना और भक्ति तथा मानव-प्रवृत्तियाँ, सुख-दु:ख, लोभ-त्याग, मोह-मरण और पौर्वात्य चिन्तन की सबसे अमूल्य धरोहर 'आत्मतत्त्व' को उन्होंने गीता से ही जाना था। यह उनके लिए जहाँ एक ओर सूक्ष्म ज्ञान-तत्त्व का परिचायक है, वहीं दूसरी ओर प्रार्थना और भक्ति के रहस्य को उद्घाटित करनेवाली 'कामधेनु', 'पथ-प्रदर्शिका' और 'माता' तुल्य है। स्वातंत्र्य-संग्राम का यह युद्ध-वीर भली-भाँति समझता था कि बराबरी भाव के बग़ैर सामाजिक एकता और सामाजिक एकता के अभाव में राष्ट्रीय आज़ादी स्थायी और निरापद नहीं रह सकती, इस एकत्व और समत्व भाव को एकात्मवाद के माध्यय से जन-जन तक पहुँचाने के लिए उनके पास 'गीता' एक समर्थ माध्यम था। इसके अलावा एक विशाल साम्राज्यवादी 'कौरव' सत्ता के सामने सत्य-अहिंसा जैसे शस्त्र कितने कारगर हो पायेंगे? साथ ही ऐसे संशयात्मा सहस्रों लाखों 'अर्जुनों' को निर्भय होने और चमकदार आत्मा को पहचानने का कार्य गीता ही करा सकती थी।

'पुत्रवत्' महादेव देसाई का असामयिक निधन, जीवनसंगिनी और जीवन-काल के उत्तरार्द्ध में 'मातृवत्' कस्तूरबा का विछोह और बड़े भाई के मरण के वज्रपात को यदि गाँधी अविचलित भाव से बर्दाश्त कर सके, तो मात्र इसलिए कि गीता माता ने उन्हें बता दिया था-

'वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहाति नरो।-पराणि।

तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्य-न्यानि संयाति नवानि देही।।'

श्रीमद्भगवद्गीता, 2/22

गीता से आत्मा की अजरता, अमरता के साथ उसकी व्यापकता और विस्तार-भाव तथा विराटता का जो तत्त्व उनके हाथ लगा था, वह उनकी अमूल्य निधि बनकर जीवन-भर उनके साथ रहा-

'उद्धरेतदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत।

आत्मैवह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:।।1

        श्रीमद्भगवद्गीता, 6/5

व्यक्ति आत्मशक्ति को जाने, उसे सबल बनाये, संसार-सागर से अपनी नौका स्वयं चला ले जाये, निर्भय और निर्वैर तथा फल-प्राप्ति के अनासक्त भाव-पूरित सम्पूर्ण कौशल के साथ कर्म करता रहे, अपनी अधोगति और ऊर्ध्वगति का अधिकारी वह स्वयं है। यह आत्मवाद विजय में अहं और पराजय में दु:ख से विरत होने के संदेश के साथ ही उस भातृभाव का भी प्रेरक था, जिसकी अपने समाज के लिए गाँधी को सर्वाधिक आवश्यकता थी -

"भातृभाव का अस्तित्व केवल आत्मा में और आत्मा के द्वारा ही होता है, यह और किसी के सहारे टिक ही नहीं सकता। जब आत्मा स्वतंत्रता की माँग करती है, वह स्वतंत्रता उसके आत्म-विकास की अर्थात् मनुष्य की सम्पूर्ण सत्ता में उसके अन्तरस्थ भगवान के विकास की स्वतंत्रता होती है। जब वह समानता चाहता है, तो उसकी माँग यह होती है कि स्वतंत्रता सबको समान रूप से प्राप्त हो तथा समस्त मनुष्यों में उसी एक ही आत्मा को, एक ही भगवान को स्वीकार किया जाये।...स्वतंत्रता, समानता और एकता आत्मा के सनातन गुण हैं।''16

आत्मतत्त्व-सम्बन्धी श्री अरविन्द-सृजित उपर्युक्त विश्लेषण से यह किंचित लम्बा उद्धरण यह दर्शाने की आकांक्षा से युक्त है कि गाँधी को इस आत्मतत्त्व के परिचय में-ये सूत्र हाथ लग गये थे, जो उनके जीवन-व्यापार को पूर्णता देते थे और जिनकी सिद्धि से व्यक्ति-समाज को पूर्णता मिलनी थी। अत: यह अनायास नहीं था कि गाँधी ने इस कुञ्जी से व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र, विश्व और सर्वोपरि मानववाद के आकाश-लक्ष्य को पाने के लिए धरती में चलने वाले पैर बढ़ा दिये। इसी कुञ्जी से उन्होंने दाम्पत्य-सम्बन्ध, पिता-पुत्र, मित्र-भाव, आस्तिकता, धर्म, प्रकृति, वर्ण-व्यवस्था, शिक्षा-समाज, पूर्व-पश्चिम की प्रकृति, आत्मसंयम, आत्म-परीक्षण, व्यक्ति-व्यवहार और सनातन सत्य आदि जिज्ञासाओं के समाधान प्राप्त किये। उनके सम्पूर्ण जीवन-काल में उनके कथन और आचरण में एक नैरन्तर्य, संगति तथा नैष्ठिक लय मिलती है। वास्तव में वे जिस राजमार्ग पर चले थे, उसका सन्धान उन्होंने ख़ूब सोच-विचार कर किया था (कोई कहे मँहगो कोई कहे सस्तो लियो रे तराजू तोल-मीरा) और इसीलिए वे पूरे आत्मविश्वास से यह घोषणा कर सके कि-

'हिन्दू धर्म की रक्षा का सच्चा मार्ग वही है, जिसका मैं आचरण करता रहा हूँ। ईसाई, मुसलमान आदि अनेक धर्मो का मंथन करने के बाद भी मैं हिन्दू धर्म से चिपका रहा हूँ, हिन्दू धर्म पर मेरी श्रद्धा दुर्दम्य है।''17

उक्त विश्लेषण से हमारी धारणा की पुष्टि होती है कि बीती शताब्दी के इस श्रेष्ठ विश्व-मानव (अमेरिका के एक नामधारी सर्वेक्षण संस्थान ने एक जनमत संग्रह में उन्हें श्रेष्ठ मानव निरूपित किया है।) की संचालिका शक्ति भारतीय परम्परा और जीवन-मूल्यों के नाभिनाल से ही रस ग्रहण करती रही है। गाँधी-व्यक्तित्व और गाँधी-दर्शन के विद्वान ठीक कहते हैं कि-

"इस महान भारतीय परम्परा के, इस रूप में, महात्मा गाँधी अन्तिम प्रतीक पुरुष हैं, जिनमें पूरी परम्परा अपनी विविधता उदात्तता एवं जिजीविषा के साथ अपने विराट रूप में अभिव्यक्त हुई है। दरअसल गाँधी की जीवन-यात्रा को देखना भारतीय परम्परा का पुनरावलोकन करना है।''18


संदर्भ संकेत :

1.  श्रीकान्त वर्मा : बीसवीं शताब्दी के अँधेरे में-भूमिका से

2.  टॉयनबी एवं एकेदा : सृजनात्मक जीवन की ओर, पृष्ठ 339

3.  टॉयनबी एवं एकेदा : वही, पृष्ठ 93

4.  गोविन्दचन्द्र पाण्डे : मूल्य मीमांसा, पृष्ठ 71

5.  गोविन्दचन्द्र पाण्डे : वही, पृष्ठ 8

6.  विद्यानिवास मिश्र : देश, धर्म और साहित्य, पृष्ठ 10

7.  न. र. अभ्यंकर : राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, पृष्ठ 94

8.  न. र. अभ्यंकर : वही, पृष्ठ 167

9.  विद्यानिवास मिश्र : भारतीयता की पहचान, पृष्ठ 12

10.  न. र. अभ्यंकर : राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, पृष्ठ 36

11.  न. र. अभ्यंकर : वही, पृष्ठ 25

12.   The Collected works of Mahatma Gandhi-Volume-23, Page 240

13.  न. र. अभ्यंकर : राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, पृष्ठ 179

14.  गोविन्दचन्द्र पाण्डे : मूल्य मीमांसा, पृष्ठ 9

15.  डॉ. राधाकृष्णन : भारत और विश्व, पृष्ठ 103

16.  श्री अरविन्द : मानव एकता का आदर्श, पृष्ठ 276-77

17.  न. र. अभ्यंकर : राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी, पृष्ठ 412

18. प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद : आस्था पुरुष, पृष्ठ 13

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