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20. उपसंहार

राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर से या उसके केन्द्रीय कार्यालय के कहने से लिखा हुआ यह रचनात्मक कार्य सम्बन्धी कोई निर्बन्ध नहीं है। सेवाग्राम के अपने कुछ साथियों के साथ हुई बातचीत के फलस्वरूप यह चीज लिखी गई है। रचनात्मक कार्यक्रम और सविनय कानून-भंग के बीच क्या सम्बन्ध है, और रचनात्मक कार्य़ों का अमल किस तरह किया जाना चाहिये, इस बारे में मेरे लिखे लेख की कमी उन्हें खटकती है। इस पुस्तिका द्वारा मैंने उस कमी को पूरा करने की कोशिश की है। यह पुस्तिका रचनात्मक कार्यक्रम का संपूर्ण विचार करने या उसकी हर तफसील में उतरने के इरादे से नहीं लिखी गई है; इसमें तो सिर्फ यह बताया गया है कि रचनात्मक कार्यक्रम का अमल किस तरह किया जा सकता है या किया जाना चाहिये।

रचनात्मक कार्यक्रम के जिन अंगों की चर्चा इस पुस्तिका में की गई है, उनमें से किसी भी एक को पूर्ण स्वराज्य की स्थापना के लिए लड़ी जानेवाली लड़ाई के एक अंग के रूप में सूचित देखकर कोई पाठक उसका मजाक उड़ाने की भूल न करे। अहिंसा के अथवा पूर्ण स्वराज्य की स्थापना के साथ कोई सम्बन्ध न रखते हुए बहुतेरे लोग बहुत से छोटे-बड़े काम करते रहते हैं। इसलिए सहज ही उन कामों का जितना सोचा जाता है उतना ही मर्यादित फल मिलता है। एक सेनापति मामूली नागरिक की पोशाक पहनकर घूमे, तो कोई पूछता भी नहीं कि वह कौन है; लेकिन वही अपने ओहदे के मुताबिक पोशाक पहनकर बहुत बड़ा बन जाता है, और उसके एक शब्द पर लाखों के जीने-मरने का आधार रहता है। इसी तरह एक गरीब विधवा के हाथ में पड़कर चरखा उसके लिए बहुत-बहुत तो पैसे दो पैसे की आमदनी का जरिया बनता है, मगर वही पंडित जवाहरलाल के हाथ में हिन्दुस्तान की आजादी का हथियार बन जाता है। चरखे को हमने जो स्थान दिया है और जो काम सौंपा है, उससे उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी है। रचनात्मक कार्यक्रम को जो काम सौंपा गया है और उसकी वजह से उसे जो अधिकार मिला है, उसके फलस्वरूप उसे असाधारण प्रतिष्ठा और अमोघ सत्ता प्राप्त हुई है।

यह तो हुई मेरी अपनी राय। यह राय एक पागल की धुन या सनक भी हो सकती है। कांग्रेसवालों को मेरी यह राय मंजूर न हो तो वे मुझे छोड़ दें। क्योंकि अगर रचनात्मक कार्यक्रम के बिना मैं सविनय कानून-भंग की लड़ाई लड़ने लगूं, तो वह लकवे से बेकार बने हुए हाथ से चम्मच उठाने जैसी बात होगी।

पूना, 13-11-1945

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