| |

1. कौमी एकता

कौमी या साम्प्रदायिक एकता की जरूरत को सब कोई मंजूर करते हैं। लेकिन सब लोगों को अभी यह बात जंची नहीं कि एकता का मतलब सिर्फ राजनीतिक एकता नहीं है। राजनीतिक एकता तो जोर-जबरदस्ती से भी लादी जा सकती है । मगर एकता या इत्तफाक के सच्चे मानी तो है वह दिली दोस्ती, जो किसी के तोड़े न टूटे । इस तरह की एकता पैदा करने के लिये सबसे पहली जरूरत इस बात की है कि कांग्रेसजन, फिर वे किसी भी धर्म के मानने वाले हों, अपने को हिंदू, मुसलमान, इसाई, पारसी, यहूदी वगैरा सभी कौमों के नुमाइन्दा समझें। हिन्दुस्तान के करोड़ों बाशिन्दों में से हरएक के साथ वे अपनेपन का, आत्मीयता का अनुभव करें; यानी वे उनके सुख-दुख में अपने को उनका साथी समझें। इस तरह की आत्मीयता को सिद्ध करने के लिये हरएक कांग्रेसी को चाहिये कि वह अपने धर्म से भिन्न धर्म का पालन करनेवाले लागों के साथ निजी दोस्ती कायम करे, और अपने धर्म के लिये उसके मन में जैसा प्रेम हो, ठीक वैसा ही प्रेम वह दूसरे धर्म से भी करे ।

जब हमारी हालत ऐसी खुशगवार हो जायेगी, तो आज रेलवे स्टेशनों पर 'हिन्दू चाय' और 'मुस्लिम चाय', हिन्दू पानी और 'मुस्लिम पानी ' की जो शरमनेवाली आवाजें हमें सुननी पड़ती हैं वे न सुननी पड़ेंगी। और, उस हालत में तो हमारे स्कूलों में और कॉलेजों में न हिन्दुओं और गैर हिन्दूओं के लिये पानी पीने के अलग-अलग कमरे होंगे, न अलग-अलग बरतन रहेंगे और न कौमी स्कूल, कौमी कॉलेजे या कौमी अस्पताल ही होंगे। इस क्रान्ति या इन्किलाब की शुरुआत कांग्रेसियों को करनी होगी, और साथ ही अपने इस वाजिब बर्ताव से उनको किसी तरह का कोई सियासी फायदा उठाने का खयाल छोड़ देना होगा। राजनीतिक एकता तो उनके सच्चे व्यवहार से सहज ही पैदा हो जायेगी।

हम एक अरसे से इस बात को मानने के आदी बन गये हैं कि आम जनता को सत्ता या हुकूमत सिर्फ धारा स्वभाव के जरिये मिलती है। इस खयाल को मैं अपने लोगों की एक गंभीर भूल मानता रहा हूं। इस भ्रम या भूल की वजह या तो हमारी जड़ता है या वह मोहिनी है, जो अंग्रेजों को रीति रिवाजों ने हम पर डाल रखी है। अंग्रेज जाति के इतिहास के छिछले या ऊपर-ऊपर के अध्ययन से हमने यह समझ लिया है कि सत्ता शासन-तंत्र की सबसे बड़ी संस्था पार्लमेण्ट से छनकर जनता तक पहुंचती है। सच बात यह है कि हुकूमत या सत्ता जनता के बीच रहती है, जनता की होती है और जनता समयगसमय पर अपने प्रतिनिधियों की हैसियत से जिनको पसंद करती है, उनका उतने समय के लिए उसे सौंप देती है। यही क्यों, जनता से भि़ या स्वतंत्र पार्लमेण्ट की सत्ता तो ठीक, हस्ती तक नहीं होती। पिछले इक्कीस बरसों से भी ज्यादा अरसे से मैं यह इतनी सीधी-सादी बात लोगों के गले उतरने की कोशिश करता रहा हूं। सत्ता का असली भण्डार या खजाना तो सत्याग्रह की या सविनय कानून-भंग की शक्ति में है। एक सूमचा राष्ट्र अपनी धारा सभा के कानूनों के अनुसार चलने से इनकार कर दे, और इस सिविल नाफरमान के नतीजों को बरदाश्त करने के लिए तैयार हो जाए तो सोचिये कि क्या होगा ! ऐसी जनता धारा सभा को और उसके शासन-प्रबंधन को जहां का तहां, पूरी तरह, रोक देगी। सरकार की, पुलिस की या फौज की ताकत, फिर वह इतनी जबरदस्त क्यों नहीं हो, थोड़े लोगों को ही दबाने में कारगर होती है। लेकिन जब कोई समूचा राष्ट्र सबकुछ सहने को तैयार हो जाता है, तो उसके दृढ़ संकल्प को डिगाने में किसी पुलिस की या फौज की कोई जबरदस्ती काम नहीं देती।

फिर, पार्लमेण्ट के ढंग की शासन-व्यवस्था तभी उपयोगी होती है, जब पार्लमेण्ट के सब सदस्य बहुमत के फैसले को मानने के लिए तैयार हो। दूसरे शब्दों में, इसे यों कहिये कि पार्लमेण्टरी शासन-पद्धति का प्रबंध परस्पर अनुकूल समूहों में ही ठीक-ठीक काम देता है।
यहां हिन्दुस्तान में तो ब्रिटिश सरकार ने कौमी तरीके पर मतदाताओं के अलग-अलग गिरोह खड़े कर दिये हैं, जिसकी वजह से हमारे बीच ऐसी बनावटी दीवारें खड़ी हो गई हैं, जो आपस में नहीं खाती, और ऐसी व्यवस्था के अंदर हम पार्लमेण्ट के ढंग की शासन-पद्धति का दिखावा करते आये हैं। ऐसी अलग-अलग और बनावटी इकाईयों को, जिनमें आपसी मेल नहीं है, एक ही मंच पर एक-से-एक काम के लिये इकट्ठा करने से जीती-जागती एकता कभी पैदा नहीं हो सकती। सच है कि इस तरह की धारा सभाओं के जरिये राजकाज का काम ज्यों-त्यों चलता रहता है। लेकिन इन धारा सभाओं के मंच पर इकट्ठा होकर हम तो आपस में लड़ते ही रहेंगे और जो भी कोई हम पर हुकूमत करता होगा, उसकी तरफ से समय-समय पर मिलने वाले हुकूमत के टुकड़ों को बांट खाने के लिये हम तरसते रहेंगे। हमारे ये हाकिम कड़ाई के साथ हमें काबू में रहती है, और परस्पर विरोधी तत्वों को आपस में झगड़ने से रोकते हैं। ऐसी शर्मनाक हालत में से पूर्ण स्वराज्य का प्रकट होना मैं बिल्कुल असंभव मानता हूं।

धारासभाओं के और उनके काम के बारे में मेरे खयाल इतने कड़े हैं; फिर भी मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि जब तक चुनावों के जरिये बननेवाली प्रातिनिधिक संस्थाओं के लिए गलत उम्मीदवार खड़े रहते हैं, तब तक उन संस्थाओं में प्रगतिविरोधी लोगों को घुसने से रोकने के लिए कांग्रेस को अपने उम्मीदवार खड़े करने चाहिये।

| |