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1. सत्य

ता. 22-7-30

सुबहकी प्रार्थना के बाद हमारी संस्था1 का मूल ही सत्यके आग्रहमें, सचाई पर कायम रहनेमें रहा हैं। इसलिए मैं सत्यको हो पहले लेता हूं।

'सत्य' शब्द सत्से बना है। सत् यानी होना। सत्य यानी हस्ती। सत्यके सिवा और किसी चीजकी हस्ती ही नहीं हैं। परमेश्वरका सही नाम ही 'सत्' यानी 'सत्य' है। इसलिए परमेश्वर 'सत्य' है ऐसा कहनेके बजाय 'सत्य' ही परमेश्वर है ऐसा कहना ज्यादा ठीक है। (लेकिन) राजकर्ता या सरदारके बगैर हमारा काम नहीं चलता। इसलिए 'परमेश्वर' नाम ज्यादा चल पड़ा है और चलेगा। लेकिन सोचने पर तो (लगेगा कि) 'सत्' या 'सत्य' नाम ही सही है और वही पूरा अर्थ देनेवाला है।

और जहां सत्य है वहां ज्ञान2 - शुद्ध ज्ञान - है ही। जहां सत्य नहीं है वहां शुद्ध ज्ञान कभी नहीं हो सकता। इसलिए ईश्वर नामके साथ 'चित्' यानी ज्ञान, इल्म शब्द जोड़ा गया है। और जहां सत्य ज्ञान है वहां 'आनंद' ही होता है; शोक, रंजोगम हो ही नहीं सकता। और सत्य सदा-हमेशा है, इसलिए आनंद भी हमेशा है। इसीलिए ईश्वरको हम सच्चिदानंद (सत् -चित्-आनंद) नामसे भी पहचानते हैं।

इस सत्यकी भक्तिके खातिर ही हमारी हस्ती हो। उसीके लिए हमारा हरएक काम, हरएक प्रवृत्ति हो। उसीके लिए हम हर सांस लें। ऐसा करना हम सीखें तो दूसरे सब नियमों के पास भी आसानीसे पहुंच सकते है; और उनका पालन भी आसान हो जायेगा। सत्यके बगैर किसी भी नियमका शुद्ध पालन नामुमकिन है।

साधारण तौर पर सत्य यानी सच बोलना-इतना ही हम समझते हैं। पर हमने तो विशाल अर्थमें3 सत्य शब्द का इस्तेमाल किया है। विचारमें, बोलनेमें और बरतनेमें सचाई ही सत्य है। इस सत्यको पूरा-पूरा समझनेवालेके लिए जगतमें और कुछ जाननेको नहीं रहता, क्योंकि समुचा ज्ञान उसमें समाया हुआ है यह हमने ऊपर देखा। उसमें जो न समाये वह सत्य नहीं है, ज्ञान नहीं है; फिर उसमें सच्चा आनंद तो हो ही कैसे सकता है? अगर इस कसौटीको बरतना हम सीख जायें, तो हमें तुंत मालूम हो जायगा कि कौनसा काम करने जैसा है और कौनसा छोड़ने जैसा; क्या देखने लायक है और क्या नहीं; क्या पढ़ने जैसा; है और क्या नहीं।

लेकिन सत्यको, जो पारसमणि जैसा है, जो कामधेनु जैसा है, कैसे पाया जाय? उसका जवाब भगवानने दिया है : अभ्यास4से और बैरागसे। सत्यकी ही चटपटी अभ्यास है; उसे छोड़कर दूसरी सब चीजोंके बारेमें बिलकुल उदासीनता-लापरवाही बैराग है। फिर भी हम देखते रहेंगे कि जो एक आदमीके लिए सत्य है वह दूसरे के लिए असत्य है। इससे घबरानेका कोई कारण नहीं है। जहां शुद्ध कोशिश है वहां अलग अलग दीखनेवाले सब सत्य एक ही पेड़के अलग अलग दीखनेवाले अनगिनत पत्तोंके समान है। क्या परमेश्वर भी हरएकका अलग अलग नहीं दिखाई देता? फिर भी वह एक ही है यह हम जानते हैं। लेकिन सत्य नाम ही परमेश्वरका है। इसलिए जिसे जैसा सत्य दिखाई दे उसके मुताबिक वह बरते इसमें दोष5 नहीं है। इतना ही नहीं ,वही उसका फर्ज है। फिर ऐसा करनेमें कोई गलती होगी भी, तो वह जरुर सुधर जायेगी; क्योंकि सत्यकी खोजके पीछे तपस्या होनेसे खुदको दुख सहना होता है, उसके पीछे मर मिटना होता है। इसलिए उसमें स्वार्थ6 की तो गंध भी नहीं रहती। ऐसी निःस्वार्थ खोज करते हुए आज तक कोई गलत रास्ते आखीर तक नहीं गया। गलत रास्ते गया कि उसे ठेस लगती ही है; और फिरसे वह सीधी राह पर आ जाता है। इसलिए जरुरी है सत्यकी आराधना यानी (सत्यकी) भक्ति। और यह भक्ति तो सिरका सौदा (शीश तणुं साटुं) है; या वह 'हरिका मार्ग' होनेसे उसमें कायर-डरपोकके लिए स्थान नहीं है, उसमें हार जैसी कोई बात ही नहीं है। वह तो मर कर जीनेका मंत्र है।

पर अब हम करीब करीब अहिंसाके किनारे आ पहुंचे है। उसका विचार हम अगले हफ्ते करेंगे। इस मौके पर हरिश्चंद्र, प्रल्हाद, रामचंद्र, इमाम हसन-हुसेन, ईसाई संतों वगैराके दृष्टान्तों7 का हमें चिंतन8 करना चाहिये। दूसरे हफ्ते तक बालक-बड़े, त्री-पुरुष सब चलते, बैठते, खाते-पीते, खेलते, सब कुछ करते, यह विचार-चिंतन करते ही रहें और ऐसा करते करते निर्दोष नींद लेनेवाले बन जायं, तो क्या हो अच्छा हो! वह सत्यरुप परमेश्वर मेरे लिए रत्न-चिंतामणि (मनचाहा देनेवाला तिलस्माती रत्न) साबित हुआ है ; हम सबके लिए वह वैसा ही साबित हो।


1. अंजुमन 2. इल्मओदानिश 3. बड़े मानीमें 4. मश्क 5.गलती 6. खुदगरजी 7.मिसालों 8. गौर

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