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प्रस्तावना

'हिन्दुस्तानी प्रचार सभा' द्वारा प्रकाशित द्विभाषी (हिन्दी और उर्दू) त्रैमासिक पत्रिका 'हिन्दुस्तानी ज़बान' में समय-समय पर महात्मा गाँधी पर आधारित लेख छपते रहे हैं। इनमें कुछ महत्त्वपूर्ण लेखो को 'गाँधी और गाँधी-मार्ग' पुस्तक में संकलित किया गया है। ये लेख सुप्रसिद्ध लेखकों, शोधार्थियों और प्राध्यापकों के परिश्रम के परिणाम हैं।

महात्मा गाँधी युग-पुरुष थे। उन्हें सहस्राब्दी-पुरुष माना गया। उन्होंने अपने जीवन को प्रयोगों से जोड़ा। वे ज़िन्दगी-भर प्रयोग करते रहे और अपने आप को परीक्षाओं की कसौटियों पर कसते रहे। वे एक गृहस्थ थे, एक संत थे, एक धार्मिक पुरुष थे और राजनीति के मार्ग पर चलनेवाले, सत्य और अहिंसा जैसी ताकतों से सुसज्ज योद्धा थे। वे कुल मिलाकर ऐसे साधक थे, जो अपनी साधना को कलुषित नहीं कर सकते थे। साधन की पवित्रता के सामने वे अपने प्राणों को तुच्छ समझते थे।

गाँधीजी ने साधन की पवित्रता की रक्षा करते हुए अपने जीवन का मार्ग निर्धारित किया। उर्दू के शायर अर्श मल्सियानी ने उनके मज़बूत इरादों के बारे में लिखा है, "ऊँचे परबत, गहरे सागर देख के हैं हैरान / उड़ सकता है कितना ऊँचा / जा सकता है कितना गहरा / धुन का पक्का, बात का सच्चा एक कमज़ोर इन्सान।''

इस धुन के पक्के इन्सान ने जिस तरफ़ रुख किया, जन-सागर उमड़ पड़ा। उन्होंने स्वदेशी और स्वभाषा आन्दोलन चलाया और अस्पृश्यता-निवारण, दलित-चेतना, मंदिर-प्रवेश और युगोपयोगी शिक्षा के लिए लोगों में चेतना जगायी और ठोस कार्यक्रम बनाये एवं कई संस्थाओं की स्थापना की।

इस पुस्तक में कुछ मिलाकर 28 लेख संग्रहीत हैं, जो 'हिन्दुस्तानी ज़बान' पत्रिका में सन् 1996 से लेकर सन् 2005 के बीच छपे हैं।

गाँधीवादी विचारों और सिद्धान्तों पर आधारित ये लेख विविध आयामी हैं। अविनाश अधिकारी का लेख 'शोध गाँधी का' उनके व्यक्तिगत अनुभवों पर आधारित है, प्रोअ धनंजय वर्मा ने अस्पृश्यता-निवारण के क्षेत्र में गाँधीजी के संघर्ष का वर्णन किया है। वर्तमान विसंगतियों और गाँधीवादी चेतना पर डॉ. एस. ज़हीर अली और प्रोअ सिद्धेश्वर प्रसाद ने अपने विचार व्यक्त किये हैं। डॉअ सुरेन्द्र वर्मा ने आधुनिक समाज में गाँधीवादी मूल्यों की प्रासंगिकता पर प्रकाश डाला है।
डॉअ मोहसिन ख़ान ने महात्मा गाँधी के मानवतावादी दृष्टिकोण पर रोशन डाली है। हर्ष शर्मा ने गाँधीवाद की वैज्ञानिक व्याख्या की है। हिन्दी उपन्यास में गाँधीवाद के प्रभाव पर डॉ. चन्द्रकांत बांदिवडेकर का लेख उल्लेखनीय है।

मैंने कुछ ही लेखों का ज़िक्र किया है, लेकिन मानी हुए बात है कि सभी लेखों में विषय के साथ विद्वान लेखकों ने पूरा-पूरा न्याय किया है, जिनसे पाठकों को गाँधीवादी सिद्धान्त और साहित्य को समझने में मदद मिलेगी।

महात्मा गाँधी का सारा ध्यान मनुष्य की क्रियाशीलता पर था। उन्होंने कहा था कि "गाँधीवाद जैसी कोई विचारधारा नहीं है।''..."गाँधीवाद नाम की कोई वस्तु है ही नहीं और न मैं अपने पीछे कोई सप्रदाय छोड़ जाना चाहता हूँ। मेरा यह दावा भी नहीं है कि मैंने कोई नये तत्त्व या सिद्धान्त का आविष्कार किया है। मैंने तो केवल जो शाश्वत सत्य है, उसको अपने नित्य के जीवन और प्रश्नों पर अपने ढंग से उतारने का प्रयास किया है।'' (कहानियों में सत्य की साधना - डॉ. विनय) गाँधीजी खुले विचारों के थे, इसीलिए नित्य के जीवन और प्रश्नों पर विचार करते समय विरोधियों की बातों को वे उतना ही महत्त्व देते थे, जितना प्रशंसकों की बातों का।

महात्मा गाँधी की दृष्टि में सत्य ही ईश्वर है। वे सत्य के शोधक थे और उनका विश्वास था कि हमारा सभी कर्म सत्य और मानव-मूल्यों पर आधारित होना चाहिए। उनका वास्तविक धर्म मानव-धर्म था।

मुझे पूरा विश्वास है कि यह पुस्तक पाठकों द्वारा पसन्द की जायेगी, क्योंकि सभी लेखों में गाँधी-सम्बन्धी विचारों पर कुछ-न-कुछ नवीन चिन्तन की सामग्री है। यह ऐसी पुस्तक है, जो सभी संस्थाओं के पुस्तकालयों और निजी पुस्तकालयों में उपलब्ध करायी जानी चाहिए।

कुछ प्रबुद्ध पाठकों ने 'हिन्दुस्तानी प्रचार सभा' के पदाधिकारियों से निवेदन किया था कि 'हिन्दुस्तानी ज़बान' में प्रकाशित संपादकीयों को पुस्तकाकार प्रकाशित किया जाय। हमने विचार किया कि गाँधी और गाँधीवादी सिद्धान्तों पर आधारित लेखों को (हिन्दुस्तानी ज़बान में प्रकाशित) पुस्तकाकार प्रकाशित करना अधिक न्यायसंगत होगा। यह योजना सलाहकार समिति के सदस्यों द्वारा स्वीकृत हुई और डॉ. सुशीला गुप्ता ने इस योजना को कार्यान्वित करने का गुरुतर भार उठाया। प्रसन्नता की बात है कि पुस्तक का संपादन-कार्य उन्होंने निर्धारित समय के अन्दर पूरा किया। मैं सभा की मानद निदेशक डॉअ सुशीला गुप्ता को उनके सहयोग के लिए धन्यवाद देता हूँ।

- प्रा. प्रेमानंद बी. गोवेकर

ट्रस्टी व मानद कोषाध्यक्ष

मुंबई
15 अगस्त 2006