| | |
 

हत्या हो सकती है सिर्फ़ एक आकार की

डॉ. सत्यदेव त्रिपाठी

गाँधीजी जैसे अभूतपूर्व इतिहास पुरुष पर हिन्दी साहित्य में सिर्फ़ एक नाटक है - ललित सहगल लिखित 'हत्या एक आकार की'। और वह भी प्रोजेक्ट के तहत ब़ाकायदा लिखवाया गया है। याने अपने से नाटक लिखने की रचनात्मक प्रेरणा किसी में नहीं बनी। और नाटक ही क्या, किसी विधा में नहीं लिखा गया - अभी-अभी उपन्यासों में गिरिराज किशोर के 'पहला गिरमिटिया' लिखे जाने तक। लिखा भी हो, तो अनुल्लेख्य रह गया - जैसे कालीदास पर लिखे दो-दो उपन्यास हैं, पर जाने नहीं जाते। तभी तो जब 'भारत : एक खोज' के लिए श्याम बेनेगल ने नेहरूजी द्वारा वर्णित हर चरित्र को साहित्य के माध्यम से व्यक्त करने की प्रक्रिया अपनायी, तो गाँधीजी पर बनने वाली कड़ियों के लिए बड़ा टोटा महसूस हुआ था। और अंत में एक दक्षिणी भाषा की रचना प्राप्त हो सकी थी। ऐसे ज्वलंत व्यक्तित्व पर रचनात्मकता के इस अकाल की वजहों का विश्लेषण होना चाहिए।

विचारणीय यह भी होना चाहिए कि हिन्दी साहित्य में कबीर पर आधे दर्जन नाटक मौजूद हैं। खेले भी जा चुके हैं। कुछ तो बहुत म़कबूल हुए हैं। तो गाँधीजी को लेकर ऐसा क्यों है? क्या गाँधीजी का चरित्र कबीर के म़ुकाबले इतना अनाटकीय है? इस इकले नाटक 'हत्या एक आकार की' का भी कुछ ज़्यादा मंचन नहीं हुआ। पढ़ने में भी कोई उल्लेख्य लोकप्रियता इसे नहीं मिली, जबकि नाटक बहुत अच्छा है। 'हत्या एक आकार की' के मंचन व पठन-पाठन के अभाव के गहन समाजशास्त्रीय व मनोवैज्ञानिक कारण हैं। गुजराती पुस्तक पर आधारित जो एक नाटक खेला गया पिछले दिनों - 'गाँधी विरुद्ध गाँधी', वह गाँधीजी के बड़े बेटे के समक्ष उनकी सीमाओं को केन्द्र में रखकर लिखा व वैसे ही मंचित भी हुआ है। 'मी गाँधी बोलतोय' तो सीमाओं को निन्दाओं की श्रेणी में ले गया होगा, तभी तो प्रतिबंधित हुआ। याने देश को आज़ादी दिलाने वाले इस शीर्ष व्यक्तित्व और पूरे संसार में आदृत दार्शनिक का उसी के देश में रचनात्मकता के तहत ऐसा हाल। क्या वह इतना विराट व महान् है कि अँटता नहीं, समाता नहीं किसी रचना में? या इतना विवादास्पद है कि डराता है सभी को? और इसी से सुहाता नहीं। सुभीता नहीं होता लिखने का।

जो भी हो, पर गाँधीजी के चरित्र की इन सभी चुनौतियों से ललित सहगल ख़ूब टकराये हैं और गाँधीजी के सोच व कृत्यों को अभियोग पक्ष तथा सफ़ाई पक्ष की समक्षता में बुनते हुए इस नाटक में वे सभी आरोप ला सके हैं, जो गाँधीजी पर लगाये जाते रहे। ज़ाहिर है, सबके समुचित जवाब भी समाहित हैं। दो बीज शब्द देखे जा सकते हैं नाटक में - तथ्य और व्याख्या। सिर्फ़ तथ्यों को देखने वाला गाँधीजी को आरोपी ही कह सकता है, परंतु गाँधीजी की वैचारिकता व उसके क्रियान्वयन की दृष्टि व प्रतिफलन की व्याख्या के बाद सारे आरोप निरस्त हो जाते हैं। विधान में कोर्ट का ही रूप लिया गया है। चार लोग मिलकर किसी की हत्या करने जा रहे हैं। एक व्यक्ति शंका उठाता है - क्यों मारने जा रहे हैं और उसे समझाने की प्रक्रिया में चारों में से ही एक जज, एक गवाह, एक अभियोग पक्ष का वकील और शंका करने वाला (शंकित) युवक आरोपी व अपने वकील की भूमिका करने लगता है। किसी पात्र का नाम नहीं है। सभी पहले, दूसरे, तीसरे युवक हैं। और इसीलिए 'शंकित युवक' ही अभियुक्त का भी नाम है। गाँधीजी का कहीं नाम नहीं, पर हर शब्द, हर परिचय गाँधी-गाँधी पुकारता है। यह अद्भुत रूप से सांकेतिक नाट्यकला का मानक है। पूरा नाटक गाँधीजी के किये-कहे-कराये पर प्रश्न खड़े करता है। और शंकित युवक सबका जवाब देता है। कोर्ट में पब्लिक की कल्पना है। उनकी हँसी व प्रतिक्रियाओं में शंकित युवक के शब्दों में गाँधीजी के पक्ष का समर्थन पाकर अभियोग पक्ष घबराता है। सुलह करने, लालच देने, दबाव डालने का प्रयत्न करता है। लेकिन सब कुछ के फ़ेल हो जाने के बाद एवं गाँधीजी के विचारों व कार्यों की सच्चाई प्रमाणित व नेकनीयती स्थापित हो जाने के बाद भी 'शंकित युवक' की मौत का फ़ैसला सुनाया जाता है। ज़बरदस्ती करते हुए कोर्ट कहता है - ''मुजरिम, म़ुकदमा शुरू करने से पहले हमारा जो फ़ैसला था, वही अब भी है। अदालत यह सज़ा सुनाती है कि तुम्हें सरे-आम...सरे-राह गोली मार दी जाये।'' स्पष्ट संकेतित होता है कि फ़ैसला पहले हो चुका था। गाँधीजी की सचमुच की हत्या का प्रतिरूप ही है यह नाटक। वहाँ भी उनके विचारों की सत्यता, प्रयोगों की सोद्देश्य सार्थकता को सभी जानते थे, पर अपने दूषित म़कसदों के लिए मारना था, सो मार डाला गया। फ़ैसले का यह वाक्य पूरी ह़क़ीकत पर धारदार व्यंग्य भी है।

गोली की आवाज़ से मारने की कार्रवाई पूरी होने के बाद शंकित युवक कहता है - ''तुम्हारा ख़्याल है, दोस्त, तुमने उसे मार दिया। नहीं दोस्त, नहीं। तुमने एक आकार की हत्या की है - हाड़-मांस से भरे एक आकार की।'' याने हत्या नहीं हो सकती विचार की। हत्यारे भी इसे जानते हैं। फिर भी विचारकों की हत्याओं का सिलसिला हर देश-काल में चलता रहा है। उदाहरण भी बिना नामोल्लेख के मौजूद हैं नाटक में। ऐसे में नाटककार की सर्वसिद्ध स्थापना यही है कि हत्या सिर्फ़ आकार की होती है। परंतु कहाँ नष्ट होता है आकार भी? वह छवि बनकर छा जाता है सबके मन में, सबकी चेतना में - जैसे आज भी गाँधीजी छाये हुए हैं। इस प्रकार हत्या नहीं हो सकती, नहीं होती आकार की भी। तब ध्यान जाता है शीर्षक में प्रयुक्त शब्द 'एक' पर। लेखक ने 'एक' के माध्यम से बड़ी सूक्ष्मता से व्यक्त कर दिया है इस सच्चाई को कि हत्या जैसा क्रूर-जघन्य-ग़ैरकानूनी कुकृत्य भी किसी महापुरुष के न विचारों को रोक सकते, न उसके आकार को ही ख़त्म कर सकते। सिर्फ़ उस एक देह को नष्ट करते हैं और फिर तो अनेक बनकर वह आकार भी छा जाता है सब पर। हत्या जैसे भीषण दुष्कर्म को बिना कुछ कहे इस नाटक ने कितना व्यर्थ, कितना बौना सिद्ध कर दिया है।

गाँधीजी के विशेष संदर्भ में लिखा यह नाटक, जैसा कि कहा गया, गाँधी-विषयक समस्त आरोपों-विवादों से टकराता है। हत्या करने वाले चारों - बचे हुए तीनों - कौन हैं, की कोई चर्चा न करते हुए भी हत्या हो जाने के बाद शंकित युवक के मुँह से कहलवा दिया गया है - सन् 1919 के भाषण में उसने कहा था, ''मेरी मृत्यु हिन्दू-मुसलमान दोनों को एक करने के प्रयत्न में ही हो। और बिना कहे सब कुछ साफ़ हो उठता है।'' गाँधी-विषयक जानकारियों के इतिहास का इसी प्रकार इतना अच्छा उपयोग पूरे नाटक में हुआ है कि तमाम कुछ अनकहा रहकर भी कहा हो गया है। गाँधीजी के विचारों व कार्यों की कटु आलोचना करने वाला एक पूरा वर्ग है, या कुछ जमातें हैं, जिन्हें यह नाटक महज़ 95 पृष्ठों में तमाम नाट्यधर्मिता को निभाते हुए भी मुँडतोड़ उत्तर दे सका है। जिन विवादास्पद प्रसंगों को अभियोग के रूप में लाकर उनकी असल नवइयत को सामने रखा गया है, उनमें प्रमुख हैं - क्रांतिकारियों को अराजक व सामान्य हत्यारा कहना - लेकिन दबाव में आकर उनकी प्रशंसा भी करना :

 -   विदेशी शक्तिशाली थे। अत: उनसे स्नेह करना

 -   जहाँ संभव हुआ, अपनी शक्ति के दुरुपयोग से मतभेद रखने वालों को जड़ से नष्ट करना

 -   31 जनवरी, 1939 को राष्ट्रीय संगठन के दुबारा अध्यक्ष नियुक्त होने वाले एक बड़े देशभक्त का विरोध करना

 -   सन् 1940 में आंदोलन को स्थगित करके आज़ादी पाने के सुनहरे अवसर को गँवाना

 -   नीति में अस्थिरता का होना - अहिंसा के घोर समर्थन का नारा देने वाले द्वारा सन् 1942 में हिंसात्मक कार्रवाई के लिए कहना

 -   राजाओं-पूँजीपतियों को शक्ति प्रदान करने वाला  'इरविन-समझौता' करना

 -   एक बार देश-विभाजन को पाप कहना और बाद में उसी प्रस्ताव को मान लेना

 -   मुसलमानों के निजी (ख़िलाफ़त) आंदोलन में हिन्दुओं को साथ देने के लिए कहना और उसे राष्ट्रीय आंदोलन का रूप देना

 -   16 अगस्त, 1946 को सीधी कार्रवाई में नब्बे लोगों का मरना व हज़ारों का घायल होना

 -   एक मुसलमान की आपत्ति पर नोआखाली में राष्ट्रीय झण्डे को उतार देना

 -   पाकिस्तान को पचपन करोड़ का मुआवज़ा दिलाना...आदि-आदि...

क्या ही अच्छा होता कि उक्त आरोपों पर शंकित युवक की कही बातों को सविस्तार यहाँ बताया जा सकता। लेकिन वही तो पूरा नाटक है। इसे हर पाठक को पढ़ना चाहिए। उनमें निहित हैं गाँधीजी की मान्यताएँ, उनके प्रयोग, उनके इरादे व उनकी आस्थाएँ, जो असफलताओं से डरती नहीं। सफलताओं से गर्वान्वित नहीं होतीं। जो मानती हैं कि 'झूठ की सफलता के बदले सच की असफलता अनमोल है।'

'यदि हिंसा या पाप द्वारा आज ही स्वराज्य मिल रहा हो और अहिंसा या सत्य द्वारा स्वराज्य पाने में सौ वर्ष ठहरना पड़े, तो मैं सौ वर्ष ठहरना पसंद करूँगा और साथ ही अपने देशवासियों को भी प्रतीक्षा करने के लिए कहूँगा।'

'स्वराज्य के लिए विदेशी शासक को निकाल देने का लक्ष्य ज़रूरी नहीं है। वे भी दूसरी अल्पसंख्यक जातियों की तरह यहाँ रह सकते हैं और इस देश के वासी बनकर देश-सेवा में योग दे सकते हैं। यही है - 'अत्याचार का विरोध, अत्याचारी का नहीं।'

'बदले की भावना से किसी को मारा न जाये और बिना बदले की भावना के मृत्यु का सामना किया जाये।' - ऐसे विधानों-बयानों से भरा है पूरा नाटक।

इस प्रकार पूरा गाँधीवाद एवं इसके प्रयोग की प्रक्रिया इस नाटक में समाविष्ट है। कहानी का पूरा मज़ा भी बना रहता है। नाटकीय टकराहट निरंतर कुतूहल जमाये रहती है। सिर्फ़ चार पात्रों और मामूली से कुर्सी-टेबल को लेकर इसका मंचन किया जा सकता है। नाटक पूर्णत: वैचारिक है। बुद्धिजीवी कला-समाज अधिक लुत्फ़ ले सकेगा। व्यावसायिक सफलता की उम्मीद तो नहीं है, पर गाँधीजी से जुड़े-बने संस्थानों को इसका मंचन कराकर इन बातों को अधिकाधिक लोगों तक पहुँचाना चाहिए। गाँधीवाद आज ज़्यादा-से-ज़्यादा प्रासंगिक, उपयोगी और इसीलिए ज़रूरी होता जा रहा है। इस दृष्टि से प्रस्तुत नाटक का मंचन आवश्यक हो गया है। दूरदर्शन आदि भी इसे हाथों-हाथ ले सकते हैं। ऐसे नाटकों का पर्दे के पीछे रह जाना शोचनीय है।

दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि इस पर बनी फिल्म रिलीज़ ही नहीं हो पायी। दूरदर्शन ने भी नही रिलीज़ किया। इस पर कुछ करते हुए इतनी सावधानी बरतनी पड़ेगी कि गाँधी-विषयक सब कुछ समाहित करने के प्रयत्न में आया डॉक्यूमेंटेशन कम किया जा सके। भाषा में थोड़ी ताज़गी-बोलचालपन लाना पड़ेगा। वरना फॉर्मेट व विधान बहुत सही है। हर दृष्टि से ऐसी कृतियों का आज स्वागत होना चाहिए। इन पर चर्चा होनी चाहिए। और इस प्रकार आज के समय में आते अफाट-अवांछित प्रवाहों को कहीं थोड़ा-सा विलमा देने में क़ामयाब होने की उम्मीद बँधेगी।


| | |