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मीरांबाई की प्रासंगिकता और महात्मा गाँधी

डॉ. कमलकिशोर गोयनका

मीरांबाई भक्तिकाल की सर्वोत्कृष्ट भक्त कवयित्री थीं। भक्तिकाल में गोस्वामी तुलसीदास, सूरदास, कबीर और जायसी जैसे महान् कवि उत्पन्न हुए। इन महान् कवियों में मीरांबाई भी अपने वैशिष्ट्य के कारण महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं, बल्कि यदि यह कहा जाये कि वे अपने प्रकार की अकेली कवयित्री हैं तो अतिशयोक्ति न होगी। वे केवल कवयित्री नहीं थीं, बल्कि ऐसी भक्त कवयित्री थीं, जिनका उदाहरण मिलना दुर्लभ है। वे ऐसे समय में जनमी थीं, जब देश में भक्ति-आन्दोलन चल रहा था और यदि ग्रियर्सन के शब्दों में कहें तो यह धार्मिक आन्दोलन अब तक का सबसे विशालतम आन्दोलन था, जो बौद्ध आन्दोलन से भी विशाल था, क्योंकि उसका प्रभाव आज तक विद्यमान है। ग्रियर्सन कहते हैं कि तब धर्म ज्ञान का नहीं, बल्कि भावावेश का विषय था और हम यहाँ ऐसे रहस्यवाद और प्रेमोल्लास के देश में आते हैं और ऐसी आत्माओं का साक्षात्कार करते हैं, जो काशी के दिग्गज पंडितों की जाति के नहीं थे। मीरां क्षत्रिय कुल में जनमी थीं और राजरानी थीं। वे आरम्भ से ही भगवान कृष्ण की उपासिका थीं। मीरां ने विवाह तो किया, परन्तु लौकिक पति को पति नहीं माना। उन्होंने ईश्वर-रूप कृष्ण को अपना वास्तविक पति मानकर अपना जीवन कृष्णमय बना लिया, लेकिन उन्होंने इस ईश्वरीय आलम्बन को पति-पत्नी के मानवीय सम्बन्धों में बाँधकर उसे लोक-मानस के लिए सुलभ बना दिया। इस मानवीय सम्बन्ध ने भक्ति को नया आयाम और नया रूप दिया तथा धर्म की रहस्यवादिता एवं घोर आध्यात्मिकता के स्थान पर भक्ति साधारण मनुष्य के जीवन का अंग बन गयी। मीरां की काव्य-साधना ने कृष्ण के अलौकिक एवं पारलौकिक अस्तित्व को जैसे समाप्त कर उन्हें मानवीय प्रेम की पूर्णता एवं रस-निष्ठा का प्रतीक बना दिया और प्रेम में आत्मोत्सर्ग, तन्मयता, तीव्रता, मिलन-वियोग की गहरी सम्वेदना का ऐसा रागात्मक सम्बन्ध उत्पन्न किया, जिसने वेदना में आत्म-परिष्कार एवं आत्मा-परमात्मा के एकत्व का मार्ग प्रशस्त किया।

मीरां का वैशिष्ट्य इतना ही नहीं है। मीरां ने पति की परम्परागत सत्ता एवं अधिकार को स्वीकार नहीं किया और न पति के देहान्त के बाद सती होकर परम्परा को आगे बढ़ाया। उस युग के सामन्ती परिवेश तथा पुरुष-प्रधान समाज में 'पति को परमेश्वर' माननेवाली हिन्दू स्त्री का 'परमेश्वर को पति' मानने का अधिकार प्राप्त करना आसान नहीं था। यह एक प्रकार से राजनीतिक सामन्तवाद तथा धार्मिक परम्पराओं के विरुद्ध मीरां के रूप में युग की नारी का मूक विद्रोह था। मीरां इस मूक विद्रोह के कारण 'कुलनाशी' कहलायी और उसे विष का प्याला भी पीना पड़ा, परन्तु मीरां ने नारीत्व को जीवित रखा और सिद्ध कर दिया कि पति की सत्ता के बिना भी नारीत्व का अस्तित्व है। इस प्रकार मीरां ने नारी की स्वतत्र सत्ता का उद्घोष करके भी उसे स्वकीया प्रेम से जोड़ा तथा परमेश्वर पति के प्रति एकनिष्ठ प्रेम की साधना करके भारतीय नारी को परम्परागत मर्यादा और संयम में रखा। वास्तव में मीरां इष्टदेव के प्रति अनन्य भाव, स्वकीया प्रेम की तन्मयता, घनीभूतता, वियोग में मिलन की कामना, संयम और मर्यादा आदि के कारण भारतीय नारी का जीवन्त प्रतीक बन गयीं।

मीरां के ऐसे ही रूप तथा भारतीय नारी की ऐसी ही विशेषताओं ने महात्मा गाँधी की चेतना, संघर्ष तथा जीवन-मूल्यों को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने अपने स्वाधीनता-संग्राम में मीरां के व्यक्तित्व तथा काव्य-साधना का भरपूर उपयोग किया। उन्होंने अपने जीवन-काल में लगभग पचास बार अपने भाषणों, पत्रों, लेखों आदि में मीरांबाई का स्मरण किया और उनकी किसी-न-किसी विशेषता का उल्लेख करके सिद्ध किया कि भारत की स्वतत्रता तथा उसके विकास में उनका किस प्रकार उपयोग हो सकता है। महात्मा गाँधी अपने समय के सबसे अधिक आधुनिक भारतीय थे और उन्होंने दक्षिण अ़फ्रीका से ही अंग्रेज़ों की दासता तथा उनके अत्याचारों के विरुद्ध अहिंसक संघर्ष शुरू कर दिया था। उन्होंने भारत आकर असहयोग, सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा तथा अहिंसा से स्वराज्य के लिए संघर्ष आरम्भ किया और इसके लिए उन्हें मध्ययुग की भक्त कवयित्री मीरांबाई अत्यन्त उपयोगी लगीं तथा वे उनके जीवन और साहित्य का उपयोग इस राष्ट्रीय जागरण में बराबर करते रहे।

महात्मा गाँधी ने सबसे पहले 22 जून 1907 को मीरांबाई का उल्लेख करते हुए लिखा कि हमें मीरांबाई जैसी हज़ारों स्त्रियों की आवश्यकता है, जो भारत के आधे स्त्री-समाज को शिक्षित और जाग्रत् कर सकें। ऐसी मीरांबाई का परिचय अपनी एक ईसाई मित्र को देते हुए गाँधी ने अपने 11 जून 1917 के पत्र में लिखा, ''दो-तीन शताब्दीपूर्व मीरांबाई नामक एक महान् रानी हुई हैं। उन्होंने अपने प्रिय व्यक्तियों और समस्त वैभव का त्याग करके परम प्रेम का जीवन बिताया। अन्त में उनके पति उनके भक्त बन गये। हम अक्सर उनके रचे हुए कुछ सुन्दर भजन आश्रम में गाते हैं। जब तुम आश्रम में आओगी, तब उन गीतों को सुनोगी और किसी दिन गाओगी भी।'' मीरां के इन सुन्दर गीतों का कारण गाँधी यह मानते थे कि वे मीरां के हृदय से निकले हैं तथा उनकी रचना गीत रचने की इच्छा या लोगों को ख़ुश करने की इच्छा से नहीं हुई है।1 गाँधी मीरां के जीवन से जुड़े चमत्कारों को उपेक्षणीय मानते हैं, क्योंकि उन्हें इस प्रकार के ईश्वरीय चमत्कारों में विश्वास नहीं है। उन्होंने इसी कारण ईसामसीह से जुड़े चमत्कारों को भी अस्वीकार किया, लेकिन मीरां के जीवन की प्रमुख चीज़ की ओर ध्यान दिलाना वे नहीं भूलते और वे कहते हैं कि हमें जिस चीज़ को ध्यान में रखना है, वह तो मीरांबाई की पवित्रता है।2

महात्मा गाँधी मीरां के प्रेम की अद्भुत शक्ति से पूर्णरूप से परिचित ही नहीं थे, बल्कि वैसी प्रेमानुभूति तथा प्रेम की शक्ति अपने प्रेम में उत्पन्न करना चाहते थे। गाँधी समझ चुके थे कि मीरां जैसी गहन एवं घनीभूत प्रेमानुभूति ही विश्व को बदल सकती है। गाँधी 15 नवम्बर 1917 को लिखे एक पत्र में कहते हैं कि मीरा को प्रेम की कटारी गहरी लगी थी। प्रेम की वैसी कटारी हमारे भी हाथ लगे और हममें उसे भोंकने का बल आ जाये तो हम दुनिया को दिखा दें। प्रेम के अपने अन्तर में होते हुए भी मैं हर क्षण उसके अभाव का अनुभव करता रहा हूँ। गाँधी मीरा के उस पद का कई बार उल्लेख करते हैं, जिसमें मीरां कहती हैं कि कच्चे धागे से मुझे हरिजी ने बाँध लिया है। वे जिधर खींचते हैं, मैं उधर ही मुड़ जाती हूँ। मुझे तो प्रेम की कटारी लगी है।गाँधी इसी प्रेम के कच्चे धागे से मुसलमानों को बाँधने तथा गाय की रक्षा करना चाहते हैं एवं भारत माता के साथ अटूट सम्बन्ध में बँधने के लिए भी इसी प्रेम के कच्चे धागे का इस्तेमाल करते हैं। वे 30 जनवरी 1921 को 'नवजीवन' में लिखते हैं कि मीरां ने जो कहा, सो करके दिखा दिया। प्रेम का यही धागा प्रत्येक मुसलमान को बाँधने और गाय की रक्षा के लिए काफ़ी है। इसी प्रकार गाँधी जब शिवप्रसाद गुप्त के आग्रह पर 'भारत माता मन्दिर' का काशी में उद्घाटन करते हैं तो कहते हैं कि प्रेम की पुकार टाली नहीं जा सकती। मीरां के प्रेम का धागा कच्चा और कोमल था, लेकिन वह मज़बूत था। ऐसा प्रेम लोगों को हज़ारों मील दूर से खींच लाता है।4 गाँधी मीरां के इस प्रेम-पद का अनुसरण युवावस्था से ही कर रहे थे5 और यही कारण है कि उन्होंने मीरां के प्रेम-दर्शन को अपने जीवन का आधार बना लिया। वे मीरां और भारत माता को एक साथ स्मरण करते हुए कहते हैं कि मीरांबाई कुशल कातनेवाली न होतीं तो हरिजी के प्रेम पाश की धागे से सुन्दर उपमा कैसे देतीं? भारत माता भी हमें वैसे ही धागे से बाँधकर ग़ुलामी के बन्धनों से मुक्त करना चाहती है।6 इस प्रकार महात्मा गाँधी भारत माता में मीरां का रूप देख रहे हैं और उसे दासता से मुक्त करने के लिए मीरां की प्रेम-शक्ति का उपयोग कर रहे हैं।

महात्मा गाँधी अपने स्वराज्य आन्दोलन को तर्कशील तथा शक्तिशाली बनाने के लिए मीरांबाई का अनेक प्रकार से उपयोग करते हैं। गाँधी भिन्न-भिन्न समय पर सत्याग्रह, असहयोग, सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ करते हैं और उनके औचित्य एवं विश्वसनीयता के लिए मीरांबाई का वैसे ही उल्लेख करते हैं, जैसे तुलसीदास अपनी बात का प्रमाण देने के लिए वेद का उल्लेख करते हैं। गाँधी के शब्दों में मीरांबाई 'महान् सत्याग्रही'7 थीं। वे दक्षिण अ़फ्रीका के अपने आन्दोलन से ही मीरां की इस सत्याग्रही शक्ति से शक्ति प्राप्त कर रहे थे और मीरां के अपने सत्य के लिए निर्द्वद्व भाव से विष-पान का बार-बार स्मरण करते हैं।8 गाँधी मीरां के पति से अपने सत्य के लिए असहयोग करने का समर्थन करते हुए कहते हैं कि हमारे धार्मिक ग्रंथ ऐसे असहयोग का समर्थन करते हैं। हमारी परम्परा में प्रह्लाद ने अपने पिता से, विभीषण ने अपने क्रूर भाई से तथा मीरां ने अपने पति से असहयोग करके कुछ भी अनुचित नहीं किया।9 यह सच है कि अन्यायी एवं असत्य से असहकार एवं असहयोग तथा न्यायी एवं सत्य से सहकार एवं सहयोग की परम्परा हमारे यहाँ रही है। इस कारण हम प्रह्लाद, विभीषण और मीरां तीनों की ही पूजा करते हैं।10 गाँधी मीरां के जीवन के इस सत्य का भी उद्घाटन करते हैं कि मीरां ने राणा के सभी कठोर दंड तथा विष-पान भी निर्विकार भाव से स्वीकार किये और क्रोध एवं प्रतिकार जैसा कोई भाव उनके मन में उत्पन्न नहीं हुआ। गाँधी इसका उपयोग अपने असहयोग आन्दोलन के लिए करते हुए कहते हैं, ''मीरांबाई ने राणा कुम्भा के साथ जो असहयोग किया, उसमें द्वेष नहीं था। राणा कुम्भा द्वारा दिये गये कठोर दंड उन्होंने प्रेमपूर्वक स्वीकार किये। हमारे असहयोग का मूलमंत्र भी प्रेम ही है। उसके बिना सब फीका, सब ख़ाली है।''11 महादेव देसाई की गिरप़्तारी पर वे पुन मीरां को याद करते हैं और लिखते हैं कि मेरा पूरा विश्वास है कि मीरांबाई पर उनके पति द्वारा दी गयी यातनाओं का कोई असर नहीं हुआ था। ईश्वर के प्रति प्रेम और उसके अमूल्य नाम का निरन्तर स्मरण उन्हें नित्य प्रसन्न बनाये रखता था।12 गाँधी मीरां के इसी एकनिष्ठ ईश्वर-प्रेम की बार-बार सराहना करते हैं और वैसा ही प्रेम अपने सत्याग्रहियों के मन में उत्पन्न करना चाहते हैं। गाँधी मीरां के एक पद की व्याख्या में कहते हैं कि मीरां जैसी भक्त नारी कह गयी हैं कि प्रभु-भक्ति में जिसका मन लीन हो गया, उसे दूसरी च़ाजें नीम के रस की तरह कड़वी और जुगनू के प्रकाश की तरह निस्तेज लगती हैं।13 गाँधी कहते हैं कि मीरां ने यह कर दिखाया कि चाहे राणा रूठै, पर ईश्वर न रूठै।14 गाँधी मीरां से यही शिक्षा लेते हैं और 6 दिसम्बर 1944 को अपनी डायरी में लिखते हैं कि मीरांबाई के जीवन से हम बड़ी बात यह सीखते हैं कि उन्होंने भगवान के लिए अपना सब कुछ छोड़ दिया।15 गाँधी मीरां के राज-भोग को त्याग कर ईश्वर-प्रेम में नाचने की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं और असहयोग आन्दोलन में सक्रिय छात्रों से आग्रह करते हैं कि वे सरकारी स्कूलों के बहिष्कार में मीरां जैसे त्याग और बलिदान में आनन्द की अनुभूति करें।16 गाँधी मीरा की आत्मा को देश की युवा पीढ़ी के हृदय में उतार देना चाहते हैं।

महात्मा गाँधी मीरां के विवाह, पति-पत्नी सम्बन्ध, स्त्री के अधिकार और उसकी अस्मिता के प्रश्न को भी उठाते हैं और इस तरह वे एक मध्ययुगीन भारतीय स्त्री को आधुनिक दृष्टि से देखने का प्रयत्न करते हैं। गाँधी विवाह की परिभाषा में कहते हैं कि विवाह शरीर द्वारा दो आत्माओं का मिलन होता है और इसमें परमेश्वर के प्रति प्रेम एवं भक्ति का भाव भी निहित रहता है। गाँधी कहते हैं, ''पति-पत्नी का प्रेम स्थूल वस्तु नहीं, उसके द्वारा आत्मा-परमात्मा के प्रेम की झाँकी दिखायी दे सकती है। यह प्रेम वासनागत प्रेम कभी नहीं हो सकता। विषय-सेवन तो पशु भी करता है - जहाँ शुद्ध प्रेम है, वहाँ बल-प्रयोग के लिए गुंजाइश नहीं। और वे एक दूसरे का मन रखकर चलते हैं।17 इसलिए गाँधी मानते हैं कि मीरां ने यह अपने आचरण से सिद्ध कर दिया कि पत्नी के रूप में उसका भी एक व्यक्तित्व है। गाँधी की दृष्टि में मीरां 'सती स्त्री' थी और उसके लिए विवाह वासना को तृप्त करने का साधन नहीं था। गाँधी के विचार में 'सतीत्व' का अर्थ है - 'पवित्रता की पराकाष्ठा' और मीरां इसकी प्रतिमूर्ति थी। महात्मा गाँधी पुरुष की निरंकुशता एवं एकाधिकार के विरुद्ध मीरां के विद्रोह को तर्कसंगत मानकर अपनी आधुनिकता के परिचय के साथ नारी के स्वतत्र अस्तित्व का समर्थन करते हैं। गाँधी लिखते हैं, ''मीरांबाई ने मार्ग दिखा दिया है। जब पत्नी अपने को ग़लती पर न समझे और जब उसका उद्देश्य अधिक ऊँचा हो, तब उसे पूरा अधिकार है कि वह अपने मन का रास्ता अख़्तियार कर ले और नम्रता से परिणाम का सामना करे।''18 इस प्रकार गाँधी मीरांबाई के साथ हैं और उनके पति-विद्रोह तथा परम्परा-विद्रोह को औचित्यपूर्ण मानते हैं और मध्ययुगीन मीरांबाई को आधुनिक सन्दर्भ में भी स्वीकृत और मान्य बना देते हैं।

अन्त में, महात्मा गाँधी मीरांबाई को भारत की एक 'महातेजस्विनी भक्त स्त्री'19, 'सत्याग्रहिणी'20, 'महान् त्यागी एवं बलिदानी'21, 'सतीत्व' की प्रतीक22, 'संत'23, 'भक्त नारी'24 आदि मानते हैं और उन्हें अपने समय के संघर्ष के साथ सम्बद्ध करके और भी प्रासंगिक बना देते हैं। गाँधी का कौशल यह है कि वे मीरांबाई की मध्ययुगीन भक्ति, प्रेम-दर्शन और नारी-चेतना को आधुनिक भारत के स्वतत्रता-आन्दोलन के लिए भी सर्वथा सार्थक और उपयोगी बना देते हैं और मीरांबाई को सभी स्वतत्रता-प्रेमियों, अनाचारों का मूक विद्रोह करनेवालों, ईश्वर-प्रेम को सर्वोच्च माननेवालों तथा नारी के स्वतत्र अस्तित्व को स्वीकार करनेवालों के लिए सहज-सुलभ बनाकर उनमें अपना पति-रूप खोजने का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं। इस प्रकार मीरांबाई भारत के स्वतत्रता-संग्राम का ही नहीं, आधुनिक लोक-मानस का भी अंग बन जाती हैं। महात्मा गाँधी जब भी मीरां को याद करते हैं, वे 'मीरांमय' हो जाते हैं। वे आधुनिक भारत को भी 'मीरांमय' बनाना चाहते हैं। दूदाभाई की बेटी लक्ष्मी को वे 'मीरांबाई' बनाना चाहते हैं25 और सरोजनी नायडू को तो वे 'मीरांबाई'26 कहते ही हैं। उनकी कामना है कि भारत में मीरांबाई जैसी हज़ारों स्त्रियाँ हों, जो स्त्री-समाज का कायाकल्प कर दें, परन्तु गाँधी मीरां को प्रासंगिक बनाने के अलावा कोई दूसरी मीरां की सृष्टि नहीं कर पाये। क्या यह गाँधी की बड़ी असफलता थी?


संदर्भ संकेत :

1.  'गाँधी वाङ्मय', खंड 23, पृष्ठ 206, दिनांक 2 फरवरी 1925

2.  वही, खंड 49, पृष्ठ 276

3.  'गाँधी वाङ्मय', खंड 21, पृष्ठ 311; खंड 14, पृष्ठ 88-89 तथा खंड 63, पृष्ठ 420

4.  'गाँधी वाङ्मय', खंड 63, पृष्ठ 420

5.  वही, खंड 56, पृष्ठ 364

6.  वही, खंड 24, पृष्ठ 173

7.  'गाँधी वाङ्मय', खंड 15, पृष्ठ 355 तथा खंड 13, पृष्ठ 531

8.  वही, खंड 21, पृष्ठ 222

9.  वही, खंड 18, पृष्ठ 127

10.  वही, खंड 18, पृष्ठ 137

      महात्मा गाँधी ने सम्भवत कर्नल टाड के इतिहास 'ऐन्नल्स् एण्ड एण्टीक्वीटीज़ आ़फ राजस्थान' से ही मीरांबाई की जानकारी प्राप्त की थी। कर्नल राड ने मेवाड़ के राणा कुम्भा (सन् 1433-68) को मीरांबाई का पति बताया था, जो ऐतिहासिक साक्ष्य से ग़लत है। गाँधी भी राणा कुम्भा को ही मीरांबाई का पति बताते हैं, परन्तु हरविलास सारदा तथा गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने सिद्ध किया कि मीरांबाई महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज की पत्नी थी। अत गाँधी के मत को संशोधित करके पढ़ा जाये।

11.  'गाँधी वाङ्मय', खंड 21, पृष्ठ 546 तथा खंड 17, पृष्ठ 171

12.  वही, खंड 22, पृष्ठ 136

13.  'गाँधी वाङ्मय', खंड 1, पृष्ठ 380

14.  वही, खंड 22, पृष्ठ 447

15.  वही, खंड 78, पृष्ठ 418

16.  वही, खंड 25, पृष्ठ 372

17.  वही, खंड 28, पृष्ठ 111

18.  'गाँधी वाङ्मय', खंड 31, पृष्ठ 534

19.  वही, खंड 24, पृष्ठ 20

20.  वही, खंड 13, पृष्ठ 531

21.  वही, खंड 25, पृष्ठ 372

22.  वही, खंड 46, पृष्ठ 76

23.  वही, खंड 64, पृष्ठ 343

24.  वही, खंड 21, पृष्ठ 222

25.  वही, खंड 18, पृष्ठ 361

26.  वही, खंड 15, पृष्ठ 355 


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