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महात्मा गाँधी का ऐतिहासिक अवदान

डॉ. अमरसिंह वधान

आज भारत में गाँधी के वृत्त को जितना परिहासपूर्ण बना दिया गया है, शायद ही किसी अन्य महापुरुष का ऐसा हाल हुआ है। दुःख का ग्राफ़ तब और बढ़ जाता है, जब सत्य के पुजारी और राष्ट्रपिता का आदर पानेवाले महात्मा गाँधी प्रासंगिकता के पैने सवालों एवं भवनों की दीवारों पर टँगी तस्वीरों के चौखटों में स्वयं को विवश एवं क़ैद हुआ पाते हैं। यहाँ राष्ट्र से एक विनम्र सवाल है कि यह शर्मनाक मखौल गाँधी के आकार का है, अथवा विचार का है या फिर उनके आदर्शों का है? यहाँ याद कराना ज़रूरी है कि 20 अक्टूबर 1931 को लंदन में आयोजित राउंड टेबल काफ्रेंस में इसी 5 फुट लंबे और 90 पौंड वज़न के गाँधी ने अंग्रेज़ों को ललकारते हुए कहा था कि ब्रिटिश शासकों ने हमारी शिक्षा-व्यवस्था, संस्कृति और सभ्यता को जड़ से उखाड़ फेंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन जड़ें मज़बूत थीं, उखड़ीं नहीं।

इतिहास-क्रम यही है कि जब नैतिक एवं सामाजिक मूल्यों का ह्रास होता है, चिंतन सिकुड़ जाता है और भौतिकतावाद का एकाधिकार होता है तो अवतारों एवं महापुरुषों को जीवन में उतारना सरल कार्य नहीं होता। कारण यह है कि उनकी शिक्षाओं एवं संदेशों का सत्य बर्दाश्त नहीं होता। ईसामसीह, सुकरात, सरमद, गुरु तेगबहादुर आदि महापुरुषों के सत्य-अवशेष आज भी आँखों से ओझल नहीं हुए हैं। गाँधी ने भी सत्य ही बोला था, जो इधर के अधिकांश लोगों को किसी क़ीमत पर स्वीकार नहीं है। उन्होंने साधनों की पवित्रता पर ज़ोर देते हुए कहा था कि लक्ष्य तक पहुँचने के लिए हमारे सभी अपेक्षित साधन पवित्र होने चाहिए। आश्चर्य नहीं कि इतिहास के सबसे बड़े साम्राज्य के ख़िलाफ़ लड़नेवाले गाँधी के मारक साधन सत्य, अहिंसा और शांति एकदम पवित्र साधन थे। इन्हीं साधनों की बदौलत उन्होंने भारत के भाग्य को सकारात्मक मोड़ देनेवाले कई महत्त्वपूर्ण निर्णय भी लिये। यों तो देश के वर्तमान और भविष्य को लेकर आज भी निर्णय लिये जा रहे हैं और कई बुनियादी साधनों का प्रयोग भी किया जा रहा है, लेकिन न तो पवित्रता निर्णयों में है और न ही लक्ष्य-सिद्धि में।

गाँधी नैतिक आचरण के सशक्त पक्षधर थे और यही उनका परम धर्म था। दक्षिण अ़फ्रीका में जोहानिसबर्ग से 21 मील की दूरी पर टॉल्स्टॉय फ़ार्म में शिक्षा का अद्भुत प्रयोग करते हुए इस बात पर बल दिया गया था कि शिक्षा का मुख्य लक्ष्य विद्यार्थियों में चरित्र-निर्माण है। गाँधी की मान्यता थी कि प्रत्येक विद्यार्थी को अपने धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करना चाहिए। चरित्र-निर्माण को वे शिक्षा की उचित नींव समझते थे। उनका यह भी कहना था कि एक डरपोक एवं मिथ्याभाषी अध्यापक अपने विद्यार्थियों को निडर एवं सत्यवादी बनाने में कभी भी सफल नहीं हो सकता। भारतीय जीवन के प्रत्येक पहलू को स्पर्श करनेवाले गाँधी ने सत्य की प्रयोगशाला में हर गतिविधि को जाँचा और परखा। पंडित नेहरू स्वयं गाँधी के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित थे कि वे अपने भाषणों में एथेन्स के महान् राजनीतिज्ञ पेरिक्लीज़ (450 ई. पू.) से गाँधी की तुलना करते थे। उल्लेखनीय है कि पेरिक्लीज़ ने एथेन्स में आदर्श प्रजातंत्र की स्थापना की थी। वे महान् दार्शनिक सुकरात के मित्र थे और उन्होंने यूनानी कुलीन पुरुष एवं सैनिक एल्सिबिएड्ज़ को भी शिक्षा दी थी।

यों तो गाँधी के बुत हमने जगह-जगह खड़े कर दिये हैं और उनकी पवित्र समाधि पहले से ही राजघाट में स्थित कर रखी है। इतना ही नहीं, उनके नाम पर कई नगरों, मार्गों, स्थानों, पार्कों आदि के नाम भी रख दिये हैं। फिर क्यों गाँधी के नाम पर बार-बार हमारी संस्कृति, तहज़ीब, सभ्यता, मर्यादा और सीमा चकनाचूर होती है?

16 मार्च 1991 को राजघाट-स्थित गाँधी की पवित्र समाधि का निर्मम अपमान इस संदर्भ का ज्वलंत उदाहरण है। गाँधी की जीवनी की शल्यक्रिया करके देख लीजिए, ऐसा फासीवादी तऱीका कहीं नहीं मिलेगा। ताज्जुब नहीं कि लगभग सवा शताब्दी पुरानी अब्राहिम लिंकन की मूर्ति पर अमरीका के लोगों ने खरोंच तक नहीं आने दी, जबकि वहाँ काले-गोरों का विवाद चलते वर्षों बीत गये और एक बार वहाँ गृहयुद्ध भी हुआ। जबकि हम भारतीय अपने राष्ट्रपिता की समाधि की रक्षा नहीं कर पा रहे हैं।

क्या यह सुखद आश्चर्य नहीं कि विंस्टन चर्चिल की भतीजी क्लेयर शेरीडेन गाँधी को सत्य और सदाशयता का प्रतीक मानती हैं, अमरीकी मूर्तिकार जीअ डेविडसन गाँधी को एक महान् विभूति स्वीकारते हैं और दक्षिण अ़फ्रीकी माता-पिता अपने बच्चों का नाम गाँधी रखते हैं। जबकि राष्ट्रपिता के अपने ही राष्ट्रवासी उनका नाम मिटाने पर तुले हुए हैं, यह सच्चाई जानते हुए भी कि रिचर्ड एटनबरो 'गाँधी' फिल्म निर्देशित कर भारतीय फ़िल्म-निर्देशकों को करारा और यादगार सब़क सिखा चुके हैं। दरअसल हमने गाँधी के आदर्शों-सिद्धान्तों को पैरों के बल से उठाकर सिर के बल पर खड़ा कर दिया है। यही वजह है कि पाप, झूठ, हिंसा, अशांति, नशा, रंगभेद, छुआछूत, अलगाव, आतंक, शारीरिक ज़्यादतियाँ, अवसरवादिता, उपभोक्ता संस्कृति, साप्रदायिकता आदि सर्वत्र व्याप्त हैं। गाँधी इन सभी चीज़ों से कोसों दूर थे। उन्होंने जीवन-पर्यन्त आत्मनिर्भरता की बात कही, छुआछूत और रंगभेद का विरोध किया, श्रम को महत्त्व दिया, इच्छाओं पर नियंत्रण रखने तथा नशापान से दूर रहने को कहा। आज हर गाँव, क़स्बा, शहर, नगर और महानगर शोषण, अन्याय एवं अत्याचार का शिकार है, सत्ता एवं वोटों की राजनीति से देश लकवाग्रस्त है, बेरोज़गारी का ग्राफ़ चरम सीमा पर है तथा आतंकवादी प्रवृत्तियाँ नये-नये रूपों में उभर रही हैं। गाँधी के सपनों का भारत ऐसा कदापि न था।

यह भी कैसी विडंबना है कि दिल्ली में राजघाट-स्थित गाँधी स्मारक संग्रहालय में रखे गये गाँधी के स्मृति-चिह्नों की भी सुरक्षा नहीं की जा सकी। उनके चहेतों ने वहाँ से गुम हुई चीज़ों का स्थानान्तरण बड़ी होशियारी से करके गाँधी के भक्त होने का नाटकीय प्रमाण प्रस्तुत किया है। अफ़सोस है कि आज़ादी के बाद हम न तो गाँधी को सुरक्षा प्रदान कर सके और न ही उनके बचे स्मृति-चिह्नों को सँभाल कर रख सके। उन्होंने हमें आज़ादी दिलायी थी, जिसमें हम साँस ले रहे हैं। दिल्ली-स्थित 'गाँधी स्मारक निधि' के साथ संबद्ध संस्थान के पुस्तकालय में गाँधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के सगे भाई गोपाल गोडसे द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'मे इट प्लीज़ युअर ऑनर' ख़रीदकर पाठकों के पढ़ने के लिए रखी गयी है, जिसमें गाँधी की हत्या को उचित ठहराया गया है। जबकि मद्रास उच्च न्यायालय में कुदाल आयोग के विरुद्ध दायर की गयी याचिका को तत्कालीन न्यायमूर्ति एसअ मोहन ने ख़ारिज करते हुए एवं इस पुस्तक की कड़ी आलोचना करते हुए यहाँ तक लिखा था - ''इस पुस्तक को चिमटे से भी नहीं छुआ जाना चाहिए।''

इधर की युवा पीढ़ी को गाँधी-दर्शन एवं गाँधी के नाम से कुछ ज़्यादा ही चिढ़ है। देश, राजनीति एवं धर्म की बात छेड़ी कि गाँधी की निंदा शुरू हुई। बात-बात पर लोग गाँधी को कोसने लगते हैं। गाँधी भी युवा रहे थे और उनका एक निश्चित मिशन था, जिसका उन्होंने मूल्यांकन किया एवं उसे हासिल भी किया। आज के युवक यह गहरे में समझ लें कि कुछेक स्वार्थी राजनेताओं की कठपुतली बनकर एवं विदेशी साज़िशकारों के इशारों पर चलकर वे भारत का कोई भला नहीं कर सकते हैं। पंजाब, जम्मू-कश्मीर, असम, आन्ध्र प्रदेश, मुंबई, गुजरात आदि का रक्तरंजित इतिहास हमसे अभी दूर नहीं गया है। इस सत्य तथ्य से कुलबुलाहट हो सकती है कि गाँधी ने अपनी युवावस्था में न केवल नेशनल इंडियन काँग्रेस की स्थापना की थी, बल्कि दक्षिण अ़फ्रीका में ज़बरदस्त समर्थन भी प्राप्त कर लिया था। अत यह ज़रूरी है कि आज के युवा देश की मुख्य धारा से जुड़ें, दिशाहीन रास्तों एवं मिशनहीन ज़िंदगी का परित्याग करें और गाँधी की बुनियादी व आदर्श नीति की ओर लौटें। वे वक़्त के निगहबान बनें, जीने से अधिक देखें, क्योंकि घटिया जीवन अपने आप में एक घटिया चीज़ है। गाँधी देश के लिए, यहाँ के लोगों के लिए सदा करुणा, क्षमा और शांति का नक्षत्र बनकर छा जाने में ही अपने जीवन की सार्थकता का अनुभव करते रहे।

माना कि दो इंसानों में मतभेद हो सकता है। लेकिन जहाँ देश-हित की बात हो, वहाँ हमें मिलकर चलना है और एक-दूसरे की मदद करनी है। गाँधी ने भी यही कहा था। यही वजह थी कि ब्रिटिश शासन के विरुद्ध गाँधी के 'असहयोग आन्दोलन' में भारतीयों का पूरा सहयोग था। गाँधी ने परतंत्र भारत में दबे हुए, अनपढ़ एवं डरे हुए लोगों में ज़बरदस्त त़ाकत पैदा करके ब्रिटिश ह़ुकूमत को अंदर तक हिला कर रख दिया था। यह शक्ति आज भी भारतीयों में है, जो देश को अधिक महान् और मज़बूत बना सकती है, अमन एवं जम्हूरियत को स्थायित्व प्रदान कर सकती है। हर अधूरे काम को पूरा किया जा सकता है, हर ख़तरे का सामना किया जा सकता है और हर समस्या का समाधान निकाला जा सकता है। इसके लिए हमें उठना है, मिलकर चलना है और सत्कर्म करना है, गाँधी की तरह।

क्या यह भी याद कराने की ज़रूरत है कि साप्रदायिक सद्भावना, एकता की भावना एवं सर्वजाति-हित की भावना के लिए संघर्षरत रहनेवाले गाँधी की हार्दिक सहानुभूति सदा दुखी लोगों के साथ रही? फ़िऱकापरस्ती, विभाजन, आन्दोलनों, लड़ाई-झगड़ों एवं दंगा-फ़सादों को रोकने के लिए गाँधी ने जिन्ना साहब से यहाँ तक कह दिया था, ''मेरे शरीर के दो टुकड़े कर दो, लेकिन भारत के दो टुकड़े मत करो।'' उन्हें तथा पंडित नेहरू को मालूम था कि जिन्नासाहब का स्वास्थ्य कमज़ोर है ओर वे गंभीर बीमारी के शिकार हैं। उन्हें राष्ट्राध्यक्ष का अवसर देकर देश को विभाजित होने से बचाया जा सकता था। पंडित नेहरू के आगे गाँधी के सभी तर्क तर्कहीन होकर बिखर गये। अंत में वही हुआ, जिसका गाँधी को डर था। आज अपने ही भारत में हिंसात्मक कसरतों और टुच्ची साज़िशों का जाल बुना जा रहा है। कहाँ गुम हो गयी वह सशक्त भावना, जो निष्ठा से आगे बढ़ने, देश की ख़ातिर क़ुर्बानी देने और सेवा-त्याग के लिए ज़ोर मारती रहती थी। आज आवश्यकता है हर स्तर पर आयी उन कमज़ोरियों को दूर करने की, जो विभिन्न तबकों में, समाज में और शासन में जड़ें जमाये हुई हैं।

गाँधी उस आस्था का नाम था, जिसकी जड़ें आत्मा में जन्म लेती थीं और उजले संस्कारों का अभिन्न हिस्सा बन जाती थीं। वे तो चरित्र की कपास से मनुष्यता का सूत काटते थे। इस अद्वितीय महापुरुष में सबको बरबस बाँध लेने की अद्भुत चुम्बकीय क्षमता थी। ऐसा लगता था, मानो गाँधी की पसलियों में भारत के अभावों, दबावों और प्रभावों के ग्राफ़ उछल आये हों। उन पर बौद्धिक बहस करते समय हमें याद आना चाहिए 'हिन्द स्वराज', जो एक प्रकार से गाँधी-दर्शन की बाइबिल है। गाँधी के चरित्र पर बहस करते समय हमारी स्मृतियों में उनकी आत्मकथा के सत्य के प्रयोग उतरने चाहिए। उनकी चेतना पर चर्चा करते समय 'नवजीवन', 'हरिजन' और 'यंग इंडिया' जैसे अख़बारों के वे कॉलम याद आने चाहिए, जिनकी वैचारिक ऊर्जा और प्रखरता से विदेशी राजनीति थर्रा उठती थी। केवल चित्रों पर माल्यार्पण करके गाँधी के चित्र पर ही चर्चा होगी, तो फिर गाँधी के चरित्र पर, आत्मा पर, मूल्य पर, आदर्श पर और कर्म पर चर्चा कैसे होगी!

इस अनूठे इतिहास पुरुष की विराटता इस बात में थी कि उन्होंने वैचारिक स्तर की हर सतह का स्पर्श किया था। राजनीति, शिक्षा, विज्ञान, उद्योग, प्रशासन, समाज-सेवा, भारतीयता, राष्ट्रीयता, धर्म, दलित और उनकी समस्या, भारत के गाँव और उनका अर्थशास्त्र आदि ऐसा कौन-सा आयाम था, जिसमें गाँधी के चिंतन की ध्वनियाँ मौजूद न हों! सचमुच गाँधी ने मानव-जीवन के विराट, विविध और विरल पहलुओं को सत्य की निष्ठा से और सत्याग्रह के आग्रह से छुआ था। वे देश को सत्कर्म, सन्मार्ग और सद्विचार के रास्ते पर ले जाकर इसकी सांस्कृतिक प्रतिष्ठा स्थापित करना चाहते थे। यही कारण है कि गाँधी हरिजनों एवं दलितों के बापू थे, मध्यवर्गीय सवर्णों के बापू थे और बिड़ला, टाटा एवं बजाज के भी बापू थे। बापूत्व के इसी सार्वजनिक बोध ने उन्हें राष्ट्रपिता बनाया था और रवीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें 'महात्मा' कहा था।

गाँधी की असहमति, उनका विरोध और उनका बोला गया सत्य बहुत कटु या निर्भीक होता था, जो बेचैन तो करता था, मगर किसी की हत्या नहीं करता था। उनकी आस्थाएँ अडिग थीं, चाहे वे धर्म को लेकर हों, हिन्दू को लेकर हों, राजनीति को लेकर हों, सत्याग्रह को लेकर हों या फिर स्वदेशी को लेकर हों। गाँधी ने अपने हर विश्वास को व्रत की तरह धारण किया था। इसीलिए उनके हर विचार और कर्म में व्रत की-सी पवित्रता थी। उनमें अपने विचारों को प्रामाणिक सच्चाई से पेश करने का अदम्य साहस था। शिक्षा, सभ्यता, स्वरूप, क़ानून, मशीन, राजनीति आदि पर गाँधी ने एक पूरी शताब्दी आगे जाकर सोचा था। उन्होंने जिस लौकिक संस्कृति की बात कही, उसमें त्याग, बलिदान और पिछड़े रहकर भी मनुष्य को जीवित रखने और बचाने की बात थी। उन्होंने स्वराज को आत्मा का अनुशासन, सत्याग्रह को व्रत, सभ्यता को उस व्रत की रक्षक परंपरा, स्वदेशी को व्रत का कर्म, संसद को उस कर्म की संरक्षक संस्था और शिक्षा को सच्ची नैतिकता माना था। गाँधी ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने असहायों, निर्बलों, निर्धनों और यहाँ तक कि कुष्ठ रोगियों को गले लगाया, उनकी भरपूर सेवा की। सेवाश्रम में एक बार एक पढ़ा-लिखा कुष्ठ रोगी गाँधी के पास आया। उन्होंने उसे आश्रम में रखा और अपने हाथों से उसकी सेवा-सुश्रूषा भी की। वे अपने रचनात्मक कार्यक्रम में कुष्ठ रोगियों की सेवा को बहुत ऊँचा स्थान देते थे। चंपारन में किसान सत्याग्रह के दौरान एक वृद्ध कुष्ठ रोगी किसान के बिछुड़ जाने पर वे स्वयं रात्रि में लालटेन लेकर उसे ढूँढ़ने निकल पड़े। उन्होंने अपने ओढ़ने के वस्त्र को उतारकर उसके टुकड़े किये और कुष्ठ रोगी के पैरों पर पट्टियाँ बाँधीं। बाद में उसे स्वयं सहारा देकर वे धीरे-धीरे शिविर तक वापस लाये।

गाँधी ने जिस राष्ट्र के निर्माण का स्वप्न सँजोया था, वह था ग़रीबों, हरिजनों, आदिवासियों और ग्रामीणों की ख़ुशहाली का देश। लेकिन इधर गाँधी के सपने को कुचलते हुए बहुराष्ट्रवादियों, तस्करों, प्रतिभूति घोटाला करनेवालों और भ्रष्टाचारियों के उत्थान की इमारत खड़ी कर दी गयी। गाँधी के प्रति श्रद्धा है नहीं, लेकिन श्रद्धांजलि दी जा रही है। देश के पास न विचार का वैभव है और न ही सत्ता की सादगी एवं ईमानदारी। जबकि गाँधी आज विश्व-फलक पर बीसवीं सदी के महामानव की हैसियत पैदा कर चुके हैं और व्यक्ति के बजाय वे शाश्वत विचार हो गये हैं। स्वीडन अकादमी को यह सदमा हमेशा रहा कि गाँधी को विश्वशांति के लिए नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा नहीं गया और इसी सदमे के विरेचन के रूप में नेल्सन मंडेला को विश्व शांति नोबेल पुरस्कार प्रदान कर अप्रत्यक्ष रूप से गाँधी को पुरस्कृत किया गया। अकादमी की यह अक्षम्य भूल उसके विवेक पर एक ऐतिहासिक प्रश्नचिह्न बन कर रह गयी। यह भी कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के बाद हिन्दी के साहित्यिक चिंतन को गाँधी के व्यक्तित्व ने अत्यंत प्रभावित किया। मैथिलीशरण गुप्त की 'भारत भारती', प्रेमचंद की 'रंगभूमि', 'सेवासदन', माखनलाल चतुर्वेदी की 'कैदी और कोकिला', 'पुष्प की अभिलाषा', बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' की 'कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जग में उथल-पुथल मच जाये', रामनरेश त्रिपाठी की 'पथिक', सोहनलाल द्विवेदी की 'भैरवी', रामधारी सिंह दिनकर की 'मेरे नगपति, मेरे विशाल', सुभद्राकुमारी चौहान की 'झाँसी की रानी', जयशंकर प्रसाद की `हिमाद्रि तुंगशृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती', पंत की 'भारतमाता ग्रामवासिनी', निराला की 'वीणा वादिनी वर दे' आदि सभी प्रतीकात्मक रचनाएँ इस सत्य की साक्षी हैं कि इनके रचनाकारों ने गाँधी-दर्शन से ही सृजनात्मक प्रेरणाएँ हासिल की थीं। स्पष्ट है कि गाँधी-दर्शन एक बार जिस अंतर में प्रवेश कर गया, वह अंतर फिर उसी भावधारा में डूबता-उतराता रहा।

देवेन्द्र सत्यार्थी ने, जो गाँधी से कई बार मिले थे, एक बार बातचीत के दौरान इन पंक्तियों के लेखक से कहा था कि प्यारे लाल की निजी टिप्पणियों में एक जगह संकेत है कि गाँधी से अल्बर्ट आइन्स्टाइन (14 मार्च 1879 - 18 अप्रैल 1955) की भेंट हुई थी और गाँधी की पसलियों पर उभरे भारत के नक्शे एवं गाँधी के आत्मबल की उन पर अमिट छाप पड़ी थी। तभी तो गाँधी के अवसान पर श्रद्धा-स्वर में आइन्स्टाइन ने कहा था, ''आनेवाले समय में लोग मुश्किल से य़कीन करेंगे कि कभी इस धरती पर हाड़-माँस का एक ऐसा भी मानव था।''

गाँधी के व्यक्तित्व को गजों से नहीं नापा जा सकता है। उन्होंने भारत को सदियों के बाद एक व्यवस्थागत और विचारगत मौलिकता का मिशन दिया था। आज यदि हम गाँधी के ऐतिहासिक अवदान का सही स्मरण एवं मूल्यांकन करें और उससे अपनी चेतना के किसी हिस्से को कौंधा सकें तो देश-हित में एक सार्थक काम हो सकता है। गाँधी को नकारकर भारत शायद भारत नहीं रह सकेगा।

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