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गाँधी-चिन्तन : शाश्वत प्रेरक शक्ति

डॉ. उमा शुक्ल

मानववादी मूल्यों के प्रतिष्ठापक महात्मा गाँधी आधुनिक भारत के जनक हैं, राष्ट्रपिता हैं। राष्ट्रीय आन्दोलनों के तीन दशकों तक हमें उनके प्रेरक मार्गदर्शन, सफल नेतृत्व एवं मानवतावादी जीवन-मूल्यों का पाथेय मिलता रहा है। उन्होंने अपनी कथनी और करनी से विश्व-मनीषा को दूर तक आंदोलित किया है। पूरे विश्व में 'सत्याग्रह' गाँधी-चिन्तन का प्रथम आविष्कार माना गया है। अहिंसक आंदोलन उनका दिव्यास्त्र था, जिसका आह्वान करके अनेकों बार उन्हें अविस्मरणीय सफलता मिली थी। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा है, 'जबै कोई न आसे तबै एकला चलो रे।' उन्होंने अकेले ही सत्याग्रह के विकट पथ पर चलकर अपने अनुयायियों को सहिष्णुता और सहयोग से उनकी शक्तिमत्ता को जगाया था, अपने 'दर्शन' एवं अनुभवों को प्रतिष्ठित किया था। वास्तव में उस युग में गाँधी-चिन्तन पशु-बल के लिए एक चुनौती था। गाँधी-चिन्तन को शाश्वत प्रेरक शक्ति मानना ज़रूरी है, क्योंकि इसी को पशु-बल के सामने एक चुनौती के रूप में जब हम मानते हैं तो उसका एक कारण यह भी है कि पशु-बल संसार में कभी ख़त्म नहीं होता। उसे ख़त्म करने के लिए गाँधी-चिन्तन के मूलाधार सत्याग्रह एवं अहिंसा के शस्त्र आवश्यक होते हैं। ऐसा भी नहीं है कि ये दोनों शस्त्र 'अहिंसा' और 'सत्याग्रह' स्वतत्रता-प्राप्ति के लिए मात्र युद्ध-आयुध थे। वे उनकी नीति के प्रेरक आधार भी थे। भारत की आज़ादी के लिए युद्ध न कर युद्ध का इतना सुरम्य तऱीका मानव-सभ्यता के इतिहास में इससे पूर्व अविदित था। इस दृष्टि से यह चिंतन-विचारधारा केवल भूत या वर्तमान के लिए ही उपयोगी नहीं है। यह विश्व-जीवन का शाश्वत मूल्य है। भविष्य के लिए भी मानव-कल्याण का मूलाधार है। इसे हम एक महापुरुष या नेता का चिन्तन ही नहीं मानते, यह एक सन्त और ऋषि का चिन्तन है - वे प्रकृति के महापुरुष थे, जिनकी सारी प्रज्ञा समाज के शान्तिपूर्ण परिवर्तन, समानता एवं न्याय-स्थापन के उपायों में प्रवृत्त थी।

गाँधीजी का जीवन-दर्शन विशुद्ध धर्म-प्रेरित था, वह धर्म भी मानव-सेवा एवं मानव-कल्याण से अभिप्रेत था। गाँधीजी की आत्मकथा का नाम भी 'सत्य के प्रयोग' है। उनकी सत्य-प्रयोगशाला में मानव के उत्थान के लिए सभी प्रयोग सफल रहे। गाँधीजी की धारणा थी कि विषमता ही हिंसा की जननी है। यदि हिंसा को रोकना हो और अहिंसा एवं शान्ति की स्थापना करनी हो तो सामाजिक-आर्थिक शोषण, अभाव, असमानता को जड़ से उखाड़ना होगा। युगानुकूल समाज-व्यवस्था को बदलना होगा, तभी परिवर्तन हो सकता है, जो मनुष्य को सुखी बना सके। यों कहा जाये कि गाँधी-चिन्तन इन शाश्वत समस्याओं का शाश्वत हल है। समाज के इसी बदलाव एवं सुसंस्कृत समाज के प्रतिष्ठापन के लिए गाँधी-चिन्तन ही मानव-मूल्यों की रक्षा के लिए शाश्वत महत्त्व रखता है। साबरमती के संत ने समाज-परिवर्तन के त्वरित मार्ग को अपनाकर चिर सुसंगठित समाज-रचना की गहरी नींव रखने के लिए और मानव-मूल्यों को बनाये रखने के लिए अपने को तपाया, गलाया और पूरे विश्व को आत्म-परिष्कार एवं हृदय-परिवर्तन के द्वारा एक नया चिन्तन एवं दृष्टिकोण दिया। मगर इन मूल्यों की स्थापना में उन्होंने आत्माहुति देकर अहिंसा-यज्ञ पूर्ण किया। आज इस त्याग, तपस्या और शान्तिप्रियता की ज़रूरत महसूस होती है। सदाचार से युक्त, सब प्राणियों के हित-साधक विद्वान, सामर्थ्यशाली, पवित्र जितेन्द्रिय और तपपूत एवं मनस्वी गाँधीजी का सोच ऐसा था, जिसने भारत को मुक्ति दिलायी। आज भारत आज़ाद है। मगर उन मूल्यों का पतन एवं ह्रास हो गया है, जो मनुष्य को धरातल से ऊपर उठाकर मानव बनाते हैं। आज युग की रुचियाँ बदल गयी हैं। आज़ाद भारत पर पाश्चात्य प्रभाव अधिक है और परिणाम यह हुआ कि गाँधी-चिन्तन की प्रासंगिकता को इस प्रभाव ने ग्रस लिया है और ढाँप दिया है।

जीवन-यथार्थ का सामना करना, सभी चुनौतियों को स्वीकार करना गाँधीजी का मुख्य उद्देश्य था। इस यथार्थ को उन्होंने चिन्तन की परिधि और अनुभूति की पकड़ में लाने की निरन्तर कोशिश की। उनके सारे समाधान मानवीय स्तर पर थे, जिसमें समूची मानव-जाति ही सर्वोपरि थी। गाँधीजी का मानना था कि भारत भूमि एक दिन स्वर्णभूमि थी, इसलिए भारतवासी स्वर्ण रूप थे। जो भूमि थी, वह तो वही है, पर आदमी बदल गये हैं, इसलिए यह भूमि उजाड़-सी हो गयी है। इसे पुन स्वर्ण बनाने के लिए हमें सद्गुणों द्वारा स्वर्णरूप बनना है। ऐसे ही वे लोकतत्रवादी उसी को मानते थे, जो जन्म से ही अनुशासन का पालन करनेवाला हो। उनके मतानुसार लोकतत्र स्वाभाविक रूप में उसी को प्राप्त होता है, जो साधारण रूप से अपने को मानवी तथा दैवी सभी नियमों का स्वेच्छापूर्वक पालन करने में अभ्यस्त बना ले। यह उन्होंने हरिजन सेवक में सन् 1939 में कहा था। उनका मुख्य चिन्तन और विचार सत्य और शुद्धि का था। साधन-शुद्धि का प्रयोग बड़े पैमाने पर पहली बार उन्होंने किया। समूचे इतिहास में यह प्रयोग एक नयी चीज़ था, जो शाश्वत मूल्यों पर आधारित था। यही उनका दृढ़ विचार है, चिन्तन है, इसके सम्मुख सभी विचार-भेद गौण हैं।

आज गाँधी-चिन्तन धुँधला क्यों पड़ता जा रहा है? यह प्रश्नाकुलता है। हम बाहरी आडंबरों में मकड़ी के जाले की तरह फँस गये हैं। अलबर्ट आइन्स्टाइन ने महात्मा गाँधी के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था कि अपने देश के एक जन-नेता, जिन्हें किसी भी बाहरी सत्ता से कोई संबल प्राप्त नहीं था; एक राजनीतिज्ञ, जिनकी सफलता किसी तकनीकी उपायों की दक्षता या शिल्प पर आधारित न हो; केवल अपने व्यक्तित्व की प्रभावी त़ाकत द्वारा वह सदा विजयी योद्धा रहे, जो सदा बल प्रयोग की अवहेलना अथवा निषेध करते रहे हों; बुद्धिमान और विनम्र मैत्री में दृढ़, मगर धारणा में अदम्य, जिन्होंने युरोप की बर्बरता का सामना सामान्य मानव के आत्मबल से किया और स्वयं जिन्होंने अपने देशवासियों की उन्नति के लिए अपनी सारी त़ाकत लगा दी हो तथा इस प्रकार जो अपने युग में कालजयी वरिष्ठता के अधिकारी हो चुके हों, आनेवाली प़ीढियाँ इस बात पर मुश्किल से विश्वास कर पायेंगी कि इतने विराट व्यक्तित्व के धनी इस ज़मीन पर हाड़-मांस धारण किये विचरण करते रहे थे।

दुःख की बात यह है कि गाँधी दैवीय शक्ति के रूप में विस्मृत होते जा रहे हैं, फिर भी गाँधी-चिन्तन का महत्त्व हमारे वर्तमान जीवन के सन्दर्भ में निर्विवाद है। वे महान् मानवतावादी थे। जब तक मनुष्य को ख़तरा बना रहेगा - औद्योगिक यत्रवाद का, निक्रियता का, तब तक गाँधी-चिन्तन को व्यवहार में लाने की आवश्यकता बनी रहेगी। मानव-मूल्य, जिन पर मानवता टिकी हुई है, कभी पुरातन नहीं होते, वे शाश्वत हैं और रहेंगे। वर्तमान सन्दर्भ में इस मूल्यों की सख़्त ज़रूरत है। गाँधीजी व्यक्ति की भलाई का ख़्याल रखते थे, चाहे वह व्यक्ति भारत का हो या संसार के किसी कोने और देश का हो। हाँ, यत्र-सम्बन्धी गाँधीजी के चिन्तन की अवहेलना की गयी है, जो सरासर ग़लत है, क्योंकि गाँधी यत्रों के व्यावहारिक पक्ष में सदा रहे। आदर्श व यथार्थ और साधारण व विलक्षण का नीर-क्षीर विवेक गाँधीजी में था। यह वैचारिक दुरूहता नहीं है। उन्हें भारतीय परम्पराएँ बहुत प्रिय थीं। वे यत्रों के ख़िलाफ़ नहीं थे। वे उन यत्रों के दुरूपयोग के विरुद्ध थे, जो कि आज दिख रहा है। विवेक-शून्य बढ़ोतरी के वे पक्ष में नहीं थे। वे मानते थे कि ये साधन लोभ-प्रद न हों। यत्रों का व्यक्ति के ऊपर हावी होना उन्हें नापसन्द था। भूत में यह प्रयोग सफल रहा। मगर वर्तमान में पाश्चात्य भौतिक समृद्धि से लोग प्रभावित हुए और लोभी हो गये। गाँधीजी की नीति किसी के लिए घातक नहीं थी, अल्पसंख्यकों के शोषण की नहीं, पोषण की थी। पंडित नेहरू की यही धारणा थी कि औज़ार एक अच्छी चीज़ है। इससे काम हल्का हो जाता है। लेकिन औज़ार का बुरा इस्तेमाल भी किया जा सकता है। हमारे उपयोग की चीज़ में चाकू एक सबसे ज़्यादा काम की चीज़ है। एक नादान आदमी इसी चाकू से दूसरे की जान ले सकता है। इसमें बेचारे चाकू का कोई दोष नहीं है, क़सूर तो उस आदमी का है, जो इस औज़ार का दुरूपयोग करता है। राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं को विज्ञान-मंदिरों की संज्ञा दी जाती रही है। विज्ञान भी व्यक्ति की भलाई के लिए हो, न कि सत्य से संसार को नष्ट करने के लिए। प्रसाद की पंक्तियाँ इस धारणा को पुष्ट करती हैं -

'क्यों इतना आतंक? ठहर जा ओ गर्वीले

जीने दे सबको, फिर तू भी सुख से जी ले।'

इसी धारणा को पैदा करने के लिए, हमारे वर्तमान में युवकों के अन्दर हमें पहले आदर्शवादिता और शक्ति का उद्दाम विस्फोट पैदा करना है। आज युवा पीढ़ी में राष्ट्रीय चरित्र का विकास करने के लिए गाँधी-चिन्तन की ज़रूरत है। सैनिक यदि राष्ट्र की प्रथम रक्षा-पंक्ति है तो विद्यार्थी द्वितीय रक्षा-पंक्ति। भूतकाल के कष्ट और ज्ञान के आधार पर भविष्य जाना जा सकता है। आज इस चिन्तन को 'कर्मसत्य' में बदलने की ज़रूरत है। कर्म मानव का धर्म है। शायर की पँक्तियों में -

'हमारी बातें ही बातें हैं, सैयद काम करता था,

न भूलो फ़र्क जो है कहनेवाले करनेवाले में।'

गाँधी-चिन्तन को आधार बनाकर अणु-दानव को भी वश में किया जा सकता है, मगर धर्म के झरोखों से झाँककर। विनोबाजी का समीकरण आज के युग-सन्दर्भ में सार्थक है -

विज्ञान + हिंसा = सर्वनाश

विज्ञान + अहिंसा = सर्वोदय

इस समीकरण में ही अणु-युग और धर्म का समन्वय हो जाता है, जो विश्व के लिए कल्याणकारी एवं मंगलमय है। 'अहिंसा परमो धर्मः' एवं 'वसुधैव कुटुम्बकम्' जैसे शान्ति के मूल मत्र का दावा करनेवाला भारत ही है। इसको सत्य-प्रयोग में लानेवाला गाँधी-चिन्तन है। यह कभी न समाप्त होनेवाला है। इसका शाश्वत मूल्य है। आज भौतिकता का बोलबाला है, जो व्यक्ति को मानव बनने से रोकता है। अर्थ-संघर्ष ने नैतिकता को समाप्त कर दिया है। आज छीना-झपटी चारों ओर बऱकरार है। व्यक्ति आज व्यक्ति से भयभीत है। मानव-जीवन की संगति सत और असत के ज्ञान-मात्र से ही नहीं हो जाती, बल्कि अपने जीवन में उस सत को ढालने से होती है। गाँधी इसी मार्ग पर चलते रहे। यह सच है कि अहिंसा का मार्ग कोई नया नहीं है। यह सन्देश भारत में अनादि और अनन्त है। आज और आनेवाले कल में इसकी आवश्यकता अधिक है, जब सब कुछ जीर्ण-शीर्ण है। आज और कल के लिए विध्वंस नहीं, निर्माण चाहिए। इसीलिए गाँधीजी सृजनकारी विज्ञान के पक्षधर रहे। इसी माध्यम से हम जीवन को सुखमय, सुविधामय व आनन्दमय बनाकर इस पृथ्वी पर स्वर्ग का निर्माण कर सकते हैं। गाँधी-चिन्तन हमें काँटों से गुज़रकर ही फूल की सुगन्धि और कोमलता प्राप्त करने का आदेश देता है, क्योंकि सुन्दर जीवन के स्वप्न फूलों से नहीं, चिनगारियों से सजाये जाते हैं। आज और कल इसी चिन्तन की ज़रूरत है, जो हमारे अन्दर चिनगारी पैदा कर सके।

गाँधी-चिन्तन का एक और बलशाली शस्त्र है, 'सादा जीवन उच्च विचार।' आज जीवन में आडंबर का बोलबाला है। सादगी और सरलता में जो सुख है, वह और कहीं नहीं। हृदय की सादगी ही विचारों की सादगी है। करुणा का जन्म इसी से होता है। अहं और दम्भ का इससे नाश होता है। जीवन को स्वस्थ रखने के लिए विचारों की ताज़गी चाहिए। उन्होंने इस सादगी को जीवन में उतार लिया था। आज जय विश्व के लिए एक नये आदमी का निर्माण करना होगा, जिसकी बुद्धि विशाल हो और जो मनुष्य-मात्र को अपना कुटुम्ब समझे। व्यास मुनि ने कहा था - 'न मानुषात श्रेष्ठतरं हि किञ्चित्।' गाँधीजी ने मानवता की घोषणा की थी और मानव को मानवता की कल्याण-कामना में लगाने का चिन्तन किया था, जिसका अर्थ था किसी राष्ट्र का मूल्य उसके व्यक्तियों का मूल्य है और जनता का सुख ही राष्ट्र का सुख है। आज का वातावरण एवं स्थिति देखते हुए एक प्रश्न खड़ा होता है कि आज क्या न्याय, स्वतत्रता, समानता और भ्रातृत्व के सिद्धान्तों पर आधारित एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतात्रिक राष्ट्र इस आणविक युग में जीवित रह सकता है? इसका उत्तर यह है कि गाँधीवादी मूल्यों के आधार को समाज में स्थापित करने से राष्ट्र खड़ा रह सकता है। राष्ट्र कोई अपने आप में इकाई नहीं है, वहाँ के व्यक्तियों से मिलकर राष्ट्र बनता है। राष्ट्र का मूल्य बढ़ाने के लिए, व्यक्ति का व्यक्तित्व निखारने के लिए मूल स्रोत तो गाँधी-चिन्तन है। सर्वोदय की कल्पना मानसिक तौर पर स्वस्थ रहना ही है।

उत्तम जीवन जीने के लिए उत्तम मनुष्य के सिद्धान्त पर विश्वास करनेवाला एक ही व्यक्ति पूरे विश्व में हुआ विश्ववद्य बापू। आज के समाज में जिस तरह की अस्थिरता और अविवेक का वातावरण है, उसके लिए गाँधी-विचारधारा को मन-मस्तिष्क में उतारने की बड़ी ज़रूरत है, जीवन-मूल्य तो अपने आप सँवर जायेंगे। गाँधी-चिन्तन नियतकालिक नहीं, सार्वकालिक, सार्वदेशिक है। जब तक मनुष्य रहेगा, तब तक गाँधी-चिन्तन रहेगा। मनुष्य के जीवन को सुधारने का मार्ग मिलता रहेगा। युग को नयी प्रेरणा, नयी गति और नयी दिशा मिलती रहेगी। गाँधी मानवता के ज्योति-कलश हैं, युगात्मा हैं, युगद्रष्टा हैं, प्रणम्य हैं, युगस्रष्टा हैं और प्रेरक शक्ति हैं। कवि सियाराम शरण गुप्त ने उन्हें कालतीर्थ, आत्मलोक, सर्वकाल, सर्वात्मीय, निखिल बन्धु, कालजयी, कीर्तिमान और पूर्ण विश्वमानव घोषित किया था। कवि की यह घोषणा शत प्रतिशत खरी है। गाँधी-चिन्तन हमें जीने की राह दिखा सकता है। आज मानवता भौतिक स्पर्धा, युद्ध और संघर्ष के कारण लहूलुहान हो रही है। उनका पूरा दृष्टिकोण सच्चाई से सच्चाई की ओर जाने का था। उनका दृष्टिकोण वैज्ञानिक था।

गाँधी-चिन्तन प्रेम और आत्मिक शक्ति का इतिहास नहीं, मानव का वर्तमान और भविष्य है। गाँधीजी के लिए मातृभूमि (भारतभूमि) विश्व की प्रयोगशाला थी - लोकमंगल जिसका साध्य है। क्योंकि उनके भीतर प्राचीन परम्परा के सन्त और आधुनिक विचारक दोनों विद्यमान हैं। उनके नाम से एक व्यक्ति का बोध न होकर सत्यवादी जीवन जीने की एक शैली का बोध होता है। वे जीवन की निरन्तरता के लिए समय की माँग के प्रति भी उन्मुख थे। यह चिन्तन आज राम-बाण है। वास्तव में भारतीयता मानवीयता का निचोड़ है। कुबेरनाथ राय का निबन्ध 'गाँधी की प्रासंगिकता' पढ़कर ऐसा महसूस होता है कि चारों ओर के विषैले और हताशपूर्ण वातावरण को देखकर एक ही व्यक्ति का नाम उनके लबों पर आता है, दूसरे का नहीं। उसी व्यक्ति को वन्दनीय-स्मरणीय और स्थायी समाधान प्रस्तुत करनेवाले व्यक्ति के रूप में वे देखते हैं। महात्मा गाँधी ने मूल समस्या को पकड़ लिया था - मनुष्यत्व का, शील का और अच्छाई का संकट। अच्छाई बिखरी-बिखरी है, उसे किस प्रकार संगठित करके एक ऐसे व्यूह में व्यवस्थित कर दिया जाय कि वह समाज के मंगल का स्थायी पहरेदार हो सके। इस समस्या का समाधान गाँधी-चिन्तन के भीतर प्राप्त होता है। मानवता का सन्देश देनेवाली उनकी आध्यात्मिकता आज और कल के मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य का दिशा-निर्देश है। पुरातन संस्कृति के आलोक में आधुनिक राष्ट्रीय जीवन को उसने केन्द्र-बिन्दु बनाया, जो कल के राष्ट्र के लिए मांगलिक चिह्न है। यही गाँधी-चिन्तन का सारतत्त्व है मनुष्य की हैसियत से भी और सामाजिक प्राणी के रूप में भी। मानव की सद्वृत्ति को उभारना एक सद्वृत्ति है, जीवन को जगाना, दीनता को भगाना ही जीवन का मूल संगीतमय स्वर है।

गाँधीजी के जीवन में विचार और सर्जन दोनों का सामंजस्य है। हम अच्छे मनुष्य बनें, भूत से सीखें, वर्तमान को सुखमय बनायें, भविष्य स्वत उज्ज्वलतम होगा ही, यही है गाँधी-विचारधारा। यह चिन्तन हमारे भविष्य को, समूची मानवता को चरम शिखर पर पहुँचा सकता है। इक़बाल ने कहा है - 'ख़ुदा तो मिलता है, इनसान नहीं मिलता।' इनसानियत का सन्देश गाँधी ने दिया। कोई भी कृत्रिम प्रकाश रात्रि को दिवस में परिणत नहीं कर सकता। सूर्योदय के बिना दिन हो ही नहीं सकता। गाँधी-चिन्तन का मूलाधार 'सर्वोदय' भी कैसे हो सकता है, जब तक सत्यं, शिवं, सुन्दरम् को अपने जीवन में न उतारा जाये। अब जो भी होता है, आगे ही होना है। दूध और तेल का कैसा मेल? दूध में मिलने के लिए दूध ही बनना पड़ता है। 'पीर पराई जाणे रे' का मत्र मनुष्यत्व की सार्थकता है, जिस भजन से प्रभात-बेला प्रारम्भ होती है।

यह सत्य है कि हम वर्तमान के लिए काम कर रहे हैं, क्योंकि हम वर्तमान में रहते हैं। किन्तु अपने कार्यों और जीवन-मूल्यों द्वारा भविष्य पर क़ाबू पा लेंगे और स्वयं ही खुलकर हमारे सामने स्पष्ट हो जायेगा कि हमें खोज करनी है - खोज सत्य की आज सभी विशद अर्थों और विभिन्न रूपों में। विज्ञान सत्य की खोज है। आज की पीढ़ी में कल के भारत का फलक है, वही बदल देगा भारत का नक़्शा - भारत की विचारधारा - उस भारत का, जिसमें आत्मा के प्रति, विज्ञान में सत्य की खोज के प्रति आस्था है। घिसी-पिटी लीकों और पुरानी ऱूढियों को छोड़कर आगे बढ़ने के प्रति इनमें विश्वास जाग्रत होगा। गाँधी-चिन्तन में वैज्ञानिक संस्कृति का प्रसार वांछनीय है, जिससे जन-जन में वैज्ञानिक अभिरुचि पैदा हो। गाँधीजी ऐसा जनतत्र बनाना चाहते थे, जिस जनतत्र का अर्थ है सहनशीलता। सहनशीलता सिर्फ़ अपने समर्थकों के प्रति नहीं, बल्कि उन लोगों के प्रति भी, जिनका हमसे मतभेद है - राष्ट्र एवं विश्व के मानस का मनोवैज्ञानिक परिवर्तन पहली बार गाँधी-चिन्तन से हुआ। पता चला कि शक्ति अपने से बाहर नहीं है, वह अपने भीतर ही है। दूसरों के बल पर स्वतत्रता नहीं मिलती, वह अपनी शक्ति से ही अर्जित की जा सकती है। उन्होंने गीता के कर्मयोग के सिद्धान्त को तीनों कालों के परिप्रेक्ष्य में प्रतिपादित किया है, जिससे कि अपना उद्धार स्वयं ही हो सकता है। आज और कल को सुन्दर बनाने के लिए क्रियात्मक व अहिंसात्मक सत्याग्रह की ज़रूरत क़दम-क़दम पर है, क्योंकि इस त्रिवेणी में सफलता की अमित शक्ति है। गाँधी-चिन्तन ने जीवन को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक टुकड़ो में विभाजित नहीं किया, वरन् सबको साथ लेकर सबके विकास को एक दूसरे का पूरक माना है। आत्मविश्वास और निर्भयता ही जीवन के मूलाधार हैं। जीवन-ज्योति इनमें निहित है, विश्व में यह विचारधारा बनी रहेगी। अमर ज्योति पूरे विश्व में प्रज्वलित रहेगी।

बार-बार प्रश्न उठता है कि आज गाँधी-चिन्तन का अनुसरण क्यों? इसलिए कि समस्त विश्व की शान्ति ख़तरे में है। संकटापन्न समय में विश्व को संहार की नहीं, नवनिर्माण की आवश्यकता है; आडंबर की नहीं, सादगी और साधुता की ज़रूरत है, बैर की नहीं, विश्वबन्धुत्व की ज़रूरत है; विध्वंस की नहीं, निर्माण की आवश्यकता है। उस सभ्यता और संस्कृति की ज़रूरत है, जिसमें मानवता के दर्शन हो सकें। इसे उपलब्ध करना है, जिससे हम स्वयं जीवित रह सकें और दूसरों को सुखी बना सकें, सृजनकारी विज्ञान के माध्यम से हम जीवन को सुखमय, सुविधामय व आनन्दमय बनाकर इस पृथ्वी पर स्वर्ग का निर्माण कर सकें। दिनकरजी की भाषा में तो आज का भारत गाँधी का भारत है और गाँधी नाम आज के भारत नाम का पूरा पर्याय है। काल को खींचकर वे अपनी दिशा की ओर ले गये। उनकी दिशा शान्ति, अहिंसा और सत्याग्रह की थी, जो मनुष्य के रूप को निर्मल बनाती है। उस समय भारतीय स्वाधीनता बहुत बड़ा लक्ष्य थी, किन्तु उससे बड़ा ध्येय मानव-स्वभाव में परिवर्तन लाना था। मनुष्य को यह विश्वास दिलाना था कि जिन ध्येयों की प्राप्ति के लिए वह पाशविक साधनों का सहारा लेता है, वे ध्येय मानवोचित साधनों से भी प्राप्त किये जा सकते हैं। गाँधी-चिन्तन पाशविकता का विरोध है। आत्मिक बल शारीरिक बल से श्रेष्ठ है। भविष्य में गाँधी-चिन्तन को आधार बनाकर सभी समस्याओं का समाधान भारत की युवा पीढ़ी खोजेगी। गाँधीजी ने साधनापूर्वक सभी प्राचीन सत्यों को जीवन में उतारकर संसार के सामने यह सिद्ध कर दिया कि दुर्बल-से-दुर्बल मनुष्य भी मानवता के चरम शिखर पर पहुँच सकता है। जीवन की सार्थकता जानने में नहीं, करने मे है, जिसे जनक-मार्ग कहें। वास्तव में गाँधी-चिन्तन क्रियाशील शक्ति का चिन्तन है, कायिक, वाचिक और बौद्धिक चिन्तन है। मनुष्य में जो क्रियाशीलता है, वही उसका धर्म भी है; जो धर्म मनुष्य के दैनिक कार्यों से अलग होता है, वह धर्म नहीं। कबीर ने कहा है - 'जहँ-जहँ डोलूँ सो परिचर्या, जो जो करूँ सो पूजा।' इस प्रयोग से विश्व फिर से जाग सकता है। उनकी यात्रा मोक्ष और शान्ति की ओर रही है। देश-भक्ति इस यात्रा का पंथ है। आज राजनीति छल और प्रपंच ही है। इसे ऊपर उठाने के लिए मनुष्यत्व, बन्धुत्व और स्वतत्रता की आवश्यकता है। और आवश्यकता है सामाजिक सामंजस्य की। यह गाँधी-चिन्तन का निचोड़ है। जब पड़ोसी भूखों मरता हो, तब मन्दिर में भोग चढ़ाना पुण्य नहीं, पाप है। शक्ति-संचय और संकल्प की एकता पर ही भारत का भविष्य निर्भर करता है। पश्चिम से विनिमय करने का समय आ गया है। आदान-प्रदान करना जीवन का धर्म है। विश्व-सभ्यता अभी अधूरी है, जिसे पूर्णता की ओर ले जाना है। गाँधीजी मनुष्यता के इंजीनियर थे। हमें समय को ध्यान में रखकर अपने आदर्शों और मूल्यों का समीकरण करना है। गाँधी-चिन्तन के प्रभाव की गूँज काल की सीमा पार कर अनन्त दूरियों में फैलती रहेगी। सुधारवाद के स्थान पर विकास बेहतर है।

समग्र देश पूज्य गाँधीजी का स्मरण करता है। केवल स्मरण-मात्र से उनको श्रद्धांजलि अर्पित नहीं हो सकती, बल्कि सच्ची श्रद्धांजलि तो वह होगी, जब समग्र राष्ट्र उनके चिन्तन को तहेदिल से जीवन-व्यवहार में लाये, ताकि गाँधीजी का मनचाहा रामराज्य पूरे विश्व में स्थापित हो सके। नेहरूजी मानते थे कि गाँधीजी का उचित स्मारक यही होगा कि हम आदरपूर्वक उनके बताये हुए रास्ते पर चलें और जीवन और मरण में अपने कर्तव्य का पालन करें। गाँधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम को निष्ठापूर्वक अपनाया जाये, ताकि राष्ट्रीय जीवन का प्रत्येक अंग पुष्ट बने, धरती का स्वर्गीकरण हो।

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