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इतिहास की अहिंसात्मक व्याख्या

डॉ. सुरेन्द्र वर्मा

गाँधीजी ने हमें कोई व्यवस्थित दर्शन प्रदान नहीं किया है और इतिहास-दर्शन तो बिलकुल नहीं। उनका तो वस्तुत इतिहास या इतिहास-लेखन (हिस्टॉरिओग्राफ़ी) के प्रति सामान्यत एक तिरस्कार और उपेक्षा का भाव रहा है। पर इसके बावजूद यह मानना पड़ेगा कि गाँधी में एक ज़बरदस्त इतिहास-बोध था और उनकी यह इतिहास-दृष्टि मनुष्य के आध्यात्मिक विकास की ओर संकेत करती है।

परंपरागत रूप से जिसे हम इतिहास कहते हैं, वह मनुष्य की आत्मिक प्रगति का इतिहास न होकर केवल राजाओं-महाराजाओं के कार्यों का लिखित इतिवृत्त है, विश्व-युद्धों का रिकार्ड है। वह मनुष्य के आत्मबल के विकास में बाधक शक्तियों का एक लेखा-जोखा भर है। वे सारी घटनाएँ और संवृत्तियाँ, जिनका ब्यौरेवार वर्णन इतिहास करता है, मनुष्य की आत्मिक प्रगति के बारे में कोई जानकारी नहीं देतीं। वे तो केवल संघर्षरत देशों के बीच सम्पन्न हुए युद्धों/क्रांतियों के बारे में यह बताती हैं कि किस तरह एक राज्य दूसरे पर आधिपत्य जमाता है और अपने पशु-बल का इस्तेमाल करता है।

पर मनुष्य का वास्तविक इतिहास हमें राज्यों के परस्पर आधिपत्य-हेतु संघर्ष में नहीं मिलता। वास्तविक इतिहास को तो मनुष्य और उसके स्वभाव में, समाज और उसके कार्यों में तथा सभ्यताओं के अंतर्निहित अर्थों में जो ऊर्ध्वगामी परिवर्तन होते हैं-उनमें प्राप्त होता है ओर ये परिवर्तन सत्य ओर अहिंसा के कठिन मार्ग का अनुसरण करने पर प्राप्त होते हैं।

इस इतिहास को हम विश्व के महान् धर्मों के मिथकों और कथाओं में तथा महान् आत्माओं के जीवन-वृत्तों में देख सकते हैं। मनुष्य का वास्तविक इतिहास उसके पशु-बल का आत्मबल की ओर प्रवर्तन है। महाभारत सामान्य अर्थों में कोई इतिहास-ग्रंथ नहीं है। इसमें जिन घटनाओं को आधार बनाकर रचना की गयी है, वे अपने आप में महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, लेकिन इसकी कथाओं और मिथकों में जो निहित अर्थ है, वह ऐतिहासिक नाम-रूपों का अतिक्रमण कर जाता है। व्यक्ति और घटनाएँ तो आनी-जानी हैं। पर एक सामान्य इतिहासकार केवल इन्हीं पर बल देता है। वह घटनाओं के पीछे जो अपरिवर्तनीय तत्त्व है-जो सत्य है-उसे पकड़ पाने का प्रयास नहीं करता।

वह उसकी पकड़ के परे रहता है। जब तक हम इतिहास का अतिक्रमण नहीं कर जाते, हम सत्य तक नहीं पहुँच सकते। गाँधीजी कहते हैं-'ट्रुथ ट्रंसेंड्स हिस्ट्री'।

किन्तु जब गाँधीजी सत्य को इतिहास से परे बताते हैं, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे ऐतिहासिक घटनाओं को मिथ्या कहकर नकार रहे होते हैं। ये सभी घटनाएँ यथार्थ रूप से वास्तव में सम्पन्न होती हैं। सारा संसार इन्हीं घटनाओं से गतिमान है। यहाँ कुछ भी स्थिर और निश्चय नहीं है। लेकिन दूसरी ओर गाँधीजी को निश्चित रूप से यह भी अनुभूति है कि इस गतिवान संसार में अंतर्निहित एक ऐसी जीवित शक्ति भी है, जो अपरिवर्तनीय है, जो स्वयं परिवर्तन की भागीदार न होकर परिवर्तन को संभव बनाती है और इसी शक्ति से निर्माण, विनाश और पुनर्निमाण होता है। वास्तविक इतिहास इसी दिशा की ओर मनुष्य की प्रगति का संकेत देता है।

मनुष्य और मानवी समाज में हम दो विरोधी वृत्तियों की उपस्थिति देखते हैं और इससे द्वद्वात्मक स्थितियों का निर्माण होता है। यह द्वद्व गाँधीजी की पदावली के अनुसार आत्मबल और पशु-बल का द्वद्व है।

मनुष्य की प्रकृति में पशु-बल विद्यमान है। पशु-बल 'हिंसा' का ही दूसरा नाम है। हिंसा में प्रवृत्त होना मानव-प्रकृति है। किन्तु यह पशु-बल मनुष्य की विशेषता नहीं है। यह उसकी अपनी पहचान नहीं है। यह तो सभी पशुओं में पाया जाता है। मनुष्य में भी। पर पशुओं में पशु-बल के अतिरिक्त और कोई शक्ति नहीं होती। जिस हद तक मनुष्य एक पशु है, उसमें पशु-बल भी है। लेकिन यह पशु-बल मनुष्य को पशुओं से अलग नहीं करता। विशेषता, जो मनुष्यों को पशुओं से भिन्न बनाती है, उसका 'आत्मबल' है। आत्मबल ही मनुष्य का सत्य है, उसकी पहचान है, उसका स्वभाव है। शरीरधारी होने के नाते मनुष्य प्राय पशु-बल या हिंसा पर उतारू हो जाता है और पशुवत् व्यवहार करने लगता है और ऐसी ही हिंसक घटनाओं का ब्यौरा परंपरागत इतिहास-लेखन में देखने को मिलता है। यह इतिहास मनुष्य में हो रहे उन सूक्ष्म परिवर्तनों को नहीं देख पाता, जो उसे पशु-बल से ऊपर उठाकर आत्मबल की ओर प्रवृत्त करते हैं। वास्तविक इतिहास इन्हीं सूक्ष्म परिवर्तनों का इतिहास है, जो मनुष्य को उसके स्वभावगत सत्य अर्थात् अहिंसा का बोध कराने में सहायक होते हैं।

इतिहास एक अनेकार्थी शब्द है, किन्तु इसके यदि हम कम महत्त्वपूर्ण अनेक अर्थो को छोड़ भी दें, तो भी कम-से-कम दो अर्थ ऐसे हैं, जिनमें इसका प्रयोग अधिकांशत किया जाता है। सामान्यत जिसे हम इतिहास कहते हैं, वह ''अब तक घटित घटनाओं या उससे संबंध रखनेवाले व्यक्तियों का काल-क्रमानुसार वर्णन'' है। यह पूर्व वृत्तांत है, पुरावृत्त है। अतीत की प्रसिद्ध घटनाओं का विवरण है। हम जब इंग्लैंड, फ्रांस, चीन, भारत आदि के इतिहास की बात करते हैं, तो हमारा आशय इन देशों में घटी बड़ी घटनाओं से होता है। इसी प्रकार काल, विज्ञान या दर्शन आदि का इतिहास भी हो सकता / होता है। इतिहास के इसी अर्थ को सामान्यत उचित और सही माना गया है। किन्तु यह इतिहास न होकर वस्तुत वृत्तांत-लेखन (हिस्टॉरिओग्राफ़ी) है। इस प्रकार के लेखन में वस्तुनिष्ठता, पूर्णता और तटस्थता नहीं होती। इसे किसी-न-किसी मंशा से, पूर्वग्रंथि से, अथवा पूर्वाग्रह से लिखा जाता है। यह पूर्वाग्रह राजनैतिक हो सकता है, अथवा देशप्रेम या राष्ट्रप्रेम हो सकता है। इतिहास-लेखक स्वयं को इस प्रकार की पूर्वग्रंथियों से मुक्त नहीं रख पाते और इसीलिए उनका लेखन ऐतिहासिक घटनाओं को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत करता है। वह न तो ब्यौरे की सच्चाई की परवाह करता है और न ही पूरे ब्यौरे पर ध्यान देता है। वह केवल अपने मतलब की बात पर बल देता है। इस प्रकार के वृत्तांत-लेखन को हम वैज्ञानिक लेखन नहीं कह सकते। यह पूर्णत पक्षपातपूर्ण, अपूर्ण और अशुद्ध होता है। यह स्थानीय और वर्गीय लिहाज़ से लिखा गया वृत्तांत है, जिसमें इतिहास का वैयक्तिक लक्ष्य हावी रहता है और इसीलिए यह बहुत कुछ काल्पनिक कथा का रूप ले लेता है। एक 'उपाख्यान' बनकर रह जाता है। उर्दू में इतिहास को 'तवारीख़' कहा गया है। तवारीख़ तारीख़ (तिथि) का बहुवचन है। पिछली तारीख़ों में घटी घटनाओं का वर्णन तवारीख़ और वृत्तांत-लेखन एक ही बात है। यह पूर्व-वृत्तांत-बीती हुई उन घटनाओं और उनसे संबंध रखनेवाले पुरुषों, स्थानों आदि का कालक्रम में वर्णन है, जो इतिहासकार ने अपने पूर्वाग्रह के अनुसार प्रस्तुत किया है।

गाँधीजी इस प्रकार के वृत्तांत-लेखन को वास्तविक इतिहास नहीं मानते-उनके अनुसार यह तो वस्तुत केवल उन घटनाओं आदि का प्रस्तुतीकरण है, जो वास्तविक इतिहास की प्रक्रिया में बाधक होती हैं। गाँधीजी के लिए वास्तविक इतिहास वह इतिहास है, जो उन तत्त्वों की पड़ताल करता है, जो सत्य-साधना की ओर लक्षित होते हैं। अंग्रेज़ी में हिस्ट्री का व्युत्पत्यात्मक अर्थ ही मूलत 'परीक्षण', 'जाँच पड़ताल', 'पूछताछ' या 'अन्वेषण' है। (हिस्ट्री शब्द लैटिन पद 'हिस्टोरिया' से आया है, जिसका अर्थ ज्ञान प्राप्त करना है।) गाँधीजी इतिहास के इसी अर्थ को ग्रहण करते हैं। इस अर्थ में इतिहास एक अन्वेषण है। पर पूछा जा सकता है कि यह किस बात का अन्वेषण है? इतिहास की विषय-सामग्री आख़िर है क्या? उसका लक्ष्य किस चीज़ की पड़ताल है?

ऐतिहासिक घटनाएँ और तथ्य अपने आप में महत्त्वपूर्ण नहीं होते। वे केवल इसलिए मूल्यवान हैं कि वे क्या उद्घाटित करते हैं, इसका हमें संकेत देते हैं। प्रत्येक ऐतिहासिक  घटना / कार्य के पीछे और उससे परे कोई-न-कोई विचार होता है, कोई संकल्प होता है, कोई भावना होती है, जो मनुष्य के आत्मिक स्वरूप की अभिव्यक्ति है। वास्तविक इतिहास इस प्रकार उस आध्यात्मिक नियम की खोज है, जिसकी ओर ऐतिहासिक प्रक्रिया सम्पन्न होती है।

गाँधीजी की इतिहास-व्याख्या सीधे-सीधे उनके जीवन-दर्शन या कहें, उनकी आध्यात्मिक दृष्टि पर आधारित है। उसी से वह निगमित है। अपनी इतिहास-व्याख्या के लिए वे आगमनात्मक पद्धति नहीं अपनाते हैं। यह बात दूसरी है कि ऐतिहासिक तथ्यों और उदाहरणों से वे इतिहास की अपनी आध्यात्मिक व्याख्या को बाद में परिपुष्ट कर देते हैं।

गाँधीजी ने सत्ता को, वास्तविकता को, सदैव सत्य के रूप में देखा है। विश्व-व्यवस्था से प्रभावित होकर वे पूरी तरह आश्वस्त हैं कि विश्व में एक अपरिवर्तनीय नियम काम करता है, जिससे हर चीज़ नियंत्रित और संचालित है। गाँधीजी कहते हैं, ''सत्य ही हमारे अस्तित्व का नियम है।'' और यह नियम अंध-नियम नहीं है, क्योंकि कोई भी अंध-व्यवस्था कम-से-कम विवेकशील प्राणियों के आचरण को तो संचालित नहीं ही कर सकती।

गाँधी-दर्शन की एक मौलिक बात यह है कि वह सत्य और अहिंसा के बीच कोई खाई निर्मित नहीं करता, बल्कि उनमें एक समीकरण खोजता है। गाँधीजी ठीक सत्य की ही भाँति अहिंसा को भी एक तत्त्व मीमांसात्मक प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं। वे अहिंसा को उसके सकारात्मक रूप में 'प्रेम' कहते हैं और प्रेम ठीक सत्य की ही तरह हमारे अस्तित्व का आधार है। यह वह सार्विक सिद्धांत है, जिस पर समूचा अस्तित्व निर्भर है। यह वह शक्ति है, जो विश्व में अंतर्निहित है-प्रकृति में भी और मनुष्य के स्वभाव में भी। किन्तु अहिंसा पूर्ण सत्य नहीं है। यह केवल वही सत्य है, जो हमें परस्पर बाँधे रखता है। पूर्ण या परम सत्य तो अभी तक किसी को पता नहीं है, लेकिन गाँधीजी का विश्वास है कि पूर्ण सत्य की प्राप्ति हमें केवल अहिंसा द्वारा, अहिंसक मार्ग पर चलकर ही हो सकती है।

गाँधीजी सत्य और अहिंसा के प्रति अपनी इस दृष्टि से ही इतिहास की व्याख्या निगमित करते हैं। वे ऐतिहासिक प्रक्रिया को अहिंसा की दिशा की ओर बढ़ते देखते हैं। गाँधीजी ने इस ऐतिहासिक तथ्य को रेखांकित किया है कि हमारे आदि पुरखे नरभक्षी थे। उसके बाद एक समय ऐसा आया, जब वे नरभक्षिता से अघा गए और उन्होंने शिकार की ज़िन्दगी अपना ली। लेकिन एक शिकारी के रूप में घुमंतू जीवन उन्हें अधिक समय तक रास नहीं आया। तब वे खेती-बाड़ी की ओर आकृष्ट हुए और मूलत अपने भोजन के लिए धरती माता पर आधारित हो गये। इस प्रकार उनका घुमन्तू जीवन समाप्त हुआ और स्थायी निवास की खोज शुरू हुई। उन्होंने गाँव और क़स्बे बसाये। नगर बसाये। परिवार बसाये और एक समाज के, राष्ट्र के सदस्य हो गये। ज़ाहिर है, यह सारी 'प्रगति' हमें अहिंसा की दिशा की ओर लक्ष्य करती है। मनुष्य धीरे-धीरे हिंसा का अपना दायरा कम करता गया है और अहिंसा की दिशा की ओर बढ़ता गया है। गाँधीजी के अनुसार यदि ऐसा न हुआ होता, तो अब तक यह निश्चित है कि जिस तरह अन्य छोटी प्रजातियों और प्राणियों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया है, मनुष्य का अस्तित्व भी कब का मिट गया होता। आज संसार में इतने सारे लोग जीवित हैं, इससे यह स्पष्ट है कि विश्व सैनिक शक्ति की हिंसा पर आधारित नहीं है, बल्कि प्रेम और सत्य के बल पर क़ायम है। परन्तु हमारा ऐतिहासिक वृत्तांत-लेखन केवल युद्ध और हिंसा, भय और शंका, ईर्ष्या और घृणा के उदाहरणों को ही रेखांकित करता है। अहिंसा और प्रेम, क्योंकि मानव-प्रकृति में स्वभावगत रूप से विद्यमान है, इतिहास आसानी से नज़रअंदाज़ कर देता है। गाँधीजी इसीलिए इतिहास-लेखन को बहुत गंभीरता से नहीं लेते। यह केवल हिंसक आचरण के अपवादों पर बल देता है, जो समाज में कभी-कभी देखने को मिलते हैं।

गाँधीजी की इतिहास व्याख्या में 'इतिहास' अपने मूल अर्थ में-अन्वेषण के अर्थ में-ग्रहण किया गया है। और इस प्रकार की आध्यात्मिक खोज के चलते गाँधीजी ऐतिहासिक प्रक्रिया में अहिंसा की दिशा की ओर इसकी निरंतर प्रगति या वृद्धि देखते हैं। गाँधीजी इतिहास की आर्थिक व्याख्या को नकार देते हैं। इतिहास केवल आर्थिक घटकों द्वारा निर्धारित नहीं होता। वे इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं कि 'पुरुष' के विचारों और सोच को 'प्रकृति' नियंत्रित या संचालित करती है। उनके अनुसार वस्तुत मनुष्य का आत्मबल या अहिंसा-शक्ति ही इतिहास की गति पर अपना प्रभाव डालती है। प्रसिद्ध आंग्ल लेखक चैस्टरटन ने अपनी व्यंग्यात्मक शैली में एक बार कहा था कि यह कहना कि मानवी कार्य आर्थिक घटकों पर निर्भर होते हैं, ठीक ऐसा ही मत है कि मनुष्य अपने दोनों पैरों पर निर्भर है। आर्थिक घटक ऐतिहासिक अवस्थाएँ मात्र हैं, इतिहास की प्रेरक शक्तियाँ नहीं हैं। ऐतिहासिक प्रक्रियाएँ आत्मबल द्वारा संचालित होती हैं और यही वह शक्ति है, जो मनुष्य को पशुओं से - जिनमें केवल पशु-बल होता है - भिन्न बनाती है। यदि हम शान्ति चाहते हैं, तो हमें अपना आचरण अहिंसा द्वारा संचालित करना ही होगा और यदि ऐसा नहीं होता तो इतिहास की गति विपरीत दिशा में मुड़ सकती है-अशान्ति की ओर। किन्तु गाँधीजी को विश्वास है कि ऐसा होगा नहीं। चेतन-अचेतन रूप से इतिहास अहिंसा की ओर ही, कुल मिलाकर, अग्रसर होता है।


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