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अस्पृश्यता निवारण का गाँधी मार्ग

प्रो. धनंजय वर्मा

महात्मा गाँधी को अस्पृश्यता के विरुद्ध संघर्ष साम्राज्यवाद से संघर्ष से भी कहीं अधिक विकराल लगा था। इसकी वजह यह थी कि साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में तो उन्हें बाहरी त़ाकतों से लड़ना था, लेकिन अस्पृश्यता से संघर्ष में उनकी लड़ाई अपनों से थी। और अपनों की बीच बैठा दुश्मन ज़्यादा चालाक और ख़तरनाक होता है। 30 दिसम्बर 1920 को एक सभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा था-साम्राज्य की शैतानियत मिटाना मुझे इतना ज़्यादा मुश्किल मालूम नहीं होता। साम्राज्य की शैतानियत व्यावहारिक है। अस्पृश्यता की शैतानियत ने धार्मिक रंग ग्रहण कर लिया है। ...हमारे धर्माधिकारी अज्ञान में इतने अधिक डूबे हैं कि उन्हें समझाया ही नहीं जा सकता। अस्पृश्यता दोष के निवारण का अर्थ ही यह है कि उसे हिन्दू समाज से स्वीकार कराया जाय। अन्त्यज करोड़ों हिन्दुओं का नाश करके अस्पृश्यता दोष मिटा सकें, यह असंभव है। वेदों या मनुस्मृति में यदि यह फ़रमान हो तो वेदों को बदलना चाहिए। जो अस्पृश्यता का बचाव कर रहे हैं, उनमें मुझे पाखण्ड ही दिखायी देता है। शैतानियत ही दिखायी देती है। जिसका वे बचाव कर रहे हैं, वह शैतानियत ही है।1

साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में ही नहीं, स्वराज्य की स्थापना के प्रसंग में भी गाँधीजी ने कहा था-"जब तक हिन्दू समाज अस्पृश्यता के पाप से मुक्त नहीं हो जाता, तब तक स्वराज्य की स्थापना असंभव है। ...जब तक हिन्दू समाज में अस्पृश्यता क़ायम है, तब तक मुझे शर्म आती है और हिन्दू होने का दावा करने में भी मुझे संकोच होता है।''2 5 नवम्बर 1920 को पूना के भवानी पेठ की एक विराट सभा को संबोधित करते हुए गाँधीजी कह चुके थे कि "पंचमों को अस्पृश्य मानना ज़रूर शैतानियत है। पंचमों के प्रति व्यवहार में तो नौकरशाही जितनी ही शैतानियत ब्राह्मण कर रहे हैं। जब तक हम अपनी शैतानियत नहीं मिटा देते, तब तक हममें दूसरों की शैतानियत मिटाने की योग्यता नहीं आती।''3

अस्पृश्यता निवारण के लिए गाँधीजी ने अपनी कार्य-नीति का मसौदा पेश करते हुए कहा था-"अस्पृश्यता पाप है, इसलिए उस पाप को मिटाना चाहिए। अस्पृश्यता को मिटाना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ, परन्तु वह अन्त्यजों के भीतर से नहीं, बल्कि हिन्दुओं में से मिटाना चाहिए।'' उन्होंने 'हरिजन' में लिखा था-'हिन्दू धर्म के दो पहलू हैं-एक ओर ऐतिहासिक हिन्दू धर्म है, जिसमें अस्पृश्यता है, अंधविश्वास है, पत्थरों और प्रतीकों की पूजा है, पशु-यज्ञ है और दूसरी ओर गीता, उपनिषदों और पतंजलि के योग सूत्र से सम्बन्धित हिन्दू धर्म है, जिसमें अहिंसा की प्राणिमात्र के साथ एकता की तथा एक अन्तर्यामी, अविनाशी, निराकार और सर्वव्यापक ईश्वर की विशुद्ध उपासना की चरम सीमा है। हिन्दू धर्म के ऐतिहासिक और दार्शनिक पहलुओं के इस अन्तर्विरोध का केन्द्र उन्हें अस्पृश्यता लगा।4

नोआखाली में एक सुबह की सैर में गाँधीजी के साथ श्री शरत बोस भी थे। चर्चा में गाँधीजी ने कहा-"मैं महसूस करने लगा हूँ कि मेरे शान्ति मिशन के लिए यदि मुस्लिम कार्यकर्ता आगे नहीं आते, तो अकेले हिन्दू ही इस काम को कर सकते हैं। एक ही शर्त है कि स्थानीय हिन्दू ईमानदारी से अपना फ़र्ज़ अदा करें। मैं उनसे कम-से-कम यह आशा तो करता ही हूँ कि वे अपने बीच के अस्पृश्यता के अभिशाप का मुँह काला कर दें; अन्यथा उन्हें अपनी असली स्थिति कभी प्राप्त नहीं होगी।''5 गाँधीजी की दलील यह थी कि साप्रदायिक फूट और अस्पृश्यता के कलंक से मुक्ति होने पर ही भारत के सात लाख स्वस्थ, आत्मनिर्भर, साक्षर और अहिंसक, उद्योगों के आधार पर सहकारी ढंग से संगठित हुए गाँवों को कोई ग़ुलाम नहीं रख सकता।6

नोआखाली में ही एक दिलचस्प व़ाकया हुआ। पश्चिम केरवा में खुलना के एक मुस्लिम मौलाना गाँधीजी से साप्रदायिक मेलजोल की समस्या पर चर्चा करने के लिए आये। गाँधीजी उस समय दोपहर का भोजन कर रहे थे। उन्होंने मौलाना को अपने साथ भोजन करने का आमंत्रण दिया। मौलाना ने इन्कार कर दिया, क्योंकि उस खाने को एक ग़ैरमुसलमान ने छू दिया था। इस पर गाँधीजी ने चुटकी लेते हुए कहा-"मुझे पता नहीं था कि मुस्लिम क़ौम पर भी अछूतपन का रंग चढ़ा हुआ है।'' इस प्रसंग पर विचार करते हुए गाँधीजी ने अपने सहयोगियों से कहा था-''हिन्दुओं को इससे यह शिक्षा मिलती है कि अगर वे अस्पृश्यता की अमानुषिक प्रथा को आश्रय देते रहे, तो उनका हिन्दू धर्म और उसका सारा भव्य आध्यात्मिक उत्तराधिकार किसी काम में नहीं आयेगा। अंग्रेज़ भारत से चले भी जायें, तो भी अस्पृश्यता के कलंक को पूरी तरह मिटाये बिना आज़ादी नहीं आयेगी।7

पाखण्ड, शैतानियत, पाप, अभिशाप, कलंक, अमानुषिकता-गाँधीजी के शब्दकोष में जो सबसे अधिक अहिंसक गालियाँ हो सकती थीं, वे सब उन्होंने हिन्दू समाज की अस्पृश्यता को दीं। साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में ही नहीं, आज़ादी की सार्थकता के लिए भी उन्होंने अस्पृश्यता निवारण की अनिवार्य शर्त रखी। 2 सितम्बर 1945 को कांग्रेसी मंत्रिमण्डल के मंत्री अपने पद सम्हालने से पहले भंगी बस्ती में, एक छोटे से आयोजन में, गाँधीजी से आशीर्वाद लेने गये। उस दिन सोमवार था। गाँधीजी का मौन व्रत था। उन्होंने अपना लिखित संदेश दिया - जिसे 'आदेश पत्र' की तरह याद किया जाता है। उन्होंने पाँच आदेश दिए-नमक कर हटा दीजिए, दांडी-कूच की याद रखिए, हिन्दू-मुस्लिम एकता सिद्ध कीजिए, छुआछूत मिटा दीजिए, खादी को अपनाइए...।8

गाँधीजी की दुहाई देनेवाली सरकारों के कितने मंत्रियों ने उनके इस 'पंचशील' की रक्षा की है? स्वतंत्रता-प्राप्ति के इतने वर्षों के बाद भी क्या यह पूछने का ह़क हम लोगों को नहीं है?

11 फ़रवरी 1947 की ही बात है। आसाम से आये मणिपुरियों के एक शिष्टमंडल ने गाँधीजी से शिकायत की-"यद्यपि हमारी गिनती सवर्ण हिन्दुओं में की जाती है, फिर भी ऊँची जातियाँ हमारे हितों की रक्षा नहीं करतीं।''गाँधीजी ने उसी दिन प्रार्थना-प्रवचन में कहा-"मैं बार-बार कह चुका हूँ कि यदि हिन्दू धर्म को जीवित रहना है तो उसे जाति-विहीन बनना पड़ेगा। यदि सवर्ण हिन्दुओं का अर्थ सिर्फ़ ब्राह्मण,क्षत्रिय और वैश्य ही हो, तो हिन्दू बहुत छोटे अल्पमत में हो जायेंगे। फिर उनके टिके रहने की बहुत कम संभावना रहेगी। मुझे तो आशा है कि जब अंग्रेज़ भारत से चले जायेंगे और यहाँ सच्ची स्वाधीनता की स्थापना हो जायेगी, तब 'उच्च जाति' का नाम-निशान भी नहीं रहेगा, सारी असमानताएँ मिट जायेंगी और तथाकथित पिछड़े हुए वर्गों को अपना मूल महत्त्व प्राप्त हो जायेगा।9

कहना न होगा, गाँधीजी की आशा आज तक पूरी नहीं हुई। अंग्रेज़ तो भारत से चले गये, लेकिन क्या गाँधीजी की आशा के अनुरूप सच्ची स्वाधीनता स्थापित हो सकी? दुर्भाग्य से स्वतंत्रता-प्राप्ति के इतने वर्षों बाद भी ऊँच-नीच का भेद-भाव बना हुआ है और भारतीय समाज जाति-विहीन होने के बजाय अधिकाधिक जातिवादी होता जा रहा है। चुनावी राजनीति के चलते, जाति के आधार पर वोट बटोरने की होड़ लगी हुई है, जातियों और संप्रदायों तथा मज़हबी फ़िऱकों के तुष्टीकरण को सत्ता हथियाने या उस पर क़ाबिज़ बने रहने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। सत्ताधारी और विपक्ष दोनों इस तुष्टीकरण का ही रास्ता अपना रहे हैं।

इस प्रसंग में गाँधीजी की निर्भीकता याद आती है। परिगणित जातियों के एक शिष्टमंडल ने सलाह की दृष्टि से गाँधीजी से पूछा-"हमारा लक्ष्य तथाकथित उच्च जातियों का दर्जा प्राप्त करना और उसके लिए एक वर्ग के रूप में विशेष सुविधाएँ प्राप्त करना होना चाहिए या हमारा प्रयत्न अस्पृश्यता को समूल नष्ट करना होना चाहिए, जिससे सवर्ण और अवर्ण का सारा भेद अतीत की बात हो जाय।'' गाँधीजी ने कहा-"मुझे स्वभावत दूसरा रास्ता पसन्द है। वर्गहीन और जातिहीन समाज मेरा आदर्श है। जब अस्पृश्यता सचमुच मिट जायेगी, तब कोई जाति नहीं रहेगी। सब शुद्ध और सीधे-सादे हिन्दू होंगे।  इसके विपरीत यदि हरिजन अपने लिए ही विशेषाधिकार प्राप्त करने की दृष्टि से अलग संगठन बनाने लगेंगे, तो उससे जल्दी ही वर्ग-संघर्ष खड़ा हो जायेगा। ऐसे संघर्ष में जो बुराइयाँ होती हैं, वे तो रहेंगी ही,इसके सिवा एक असमान युद्ध होगा। जहाँ तक मैं देख सकता हूँ, इसमें पलड़ा आपके बहुत ज़्यादा विरुद्ध हो जायेगा। इसके अलावा इस मार्ग से जिस अस्पृश्यता को मिटाना आपका ध्येय है, वही एक स्थापित स्वार्थ बनकर हमेशा के लिए इस भयंकर भेद को जारी रखेगी।10

गाँधीजी की पैगम्बराना भविष्य-दृष्टि ने जो ख़तरे देखे थे, वे अब सामने आ रहे हैं; जिन 'भयंकर भेदों' की उन्हें आशंका थी, वे सच साबित हो रहे हैं। गाँधीजी चाहते तो 'परिगणित जाति' की 'तुष्टीकरण' का रास्ता अपना सकते थे, लेकिन उन्होंने उस 'असमान युद्ध' के ख़तरे को पहचान लिया था, जो अब छद्म रूप धर कर लगातार विकराल होता जा रहा है। आरक्षण के विशेषाधिकार के पीछे सवर्णों की वह साजिश आज दलित चेतना के पक्षधरों को नहीं दिखती, जिसके चलते एक इतने बड़े समुदाय की जिजीविषा कुंठित और जीवनी-शक्ति कुन्द की जा रही है। क्या 'अस्पृश्यता' ही अब 'अनुसूचित' का रूप धर कर सदा के लिए 'आरक्षित' नहीं की जा रही है?...और जिस वर्ग-संघर्ष का रूप उभर रहा है, उसमें एक ओर तो 'आरक्षण की निरन्तरता' है, दूसरी ओर अनुसूचित जातियों पर बढ़ते जाते अत्याचार हैं और लगता है कि अस्पृश्यता अब सवर्ण और अवर्ण-दोनों समुदायों में एक 'स्थापित स्वार्थ' बनकर इस 'भयंकर भेद' को हमेशा के लिए 'आरक्षित' करने का हथियार बन गयी है। ...और हमारे दलित और नवबौद्ध हैं कि एक विशाल समाज और मुख्य धारा से कटकर अपनी अस्मिता की तलाश कर रहे हैं और अपने 'विशेष' और 'आरक्षित दर्जे' का उद्घोष कर ही सन्तुष्ट हो रहे हैं। उधर सवर्ण चेतना है कि वह भाषा के शब्दों तक को अछूत और अस्पृश्य बना रही है...जिसे कभी 'महत-तर' माना गया था, वह अब 'मेहतर' हो गया है, एक विशेष राजनीतिक दल को 'हरिजन' शब्द से ही परहेज है और 'अनुसूचित जाति' शब्द भी अब क्या एक गाली की तरह इस्तेमाल नहीं हो रहा है?

इसीलिए हरिजनों को गाँधीजी की सलाह थी कि उन्हें अपने भीतर से सारे जाति-भेद मिटा देने चाहिए और स्वच्छता के नियमों का तथाकथित सवर्ण हिन्दुओं से भी अच्छा पालन करना चाहिए। अपने लिए भिन्न प्रकार के व्यवहार की माँग करने की दृष्टि से कार्य करने की अपेक्षा आपको 'हिन्दू मानवता के सागर' में विलीन होने का प्रयत्न करना चाहिए। भारत को स्वतंत्र करने का एकमात्र उपाय यही है।11 इस प्रसंग में दलित चेतना के पक्षधरों को भी पुनर्चिंतन करना चाहिए कि उनके सोच और प्रयत्न, भारतीय समाज की संरचना के लिए कितने उचित हैं। 'हिन्दू' और 'हिन्दू धर्म' का अन्धा विरोध क्या कहीं पूरी प्राचीन भारतीय संस्कृति, दर्शन और ऐतिहासिक उत्तराधिकार का विरोध नहीं है? 'हिन्दू' शब्द और विशेषण तो मध्यकाल की देन है, इस्लाम के आगमन का परिणाम है। क्या वेद और उपनिषद् गीता और पतंजलि पर सवर्णों का ही अधिकार है? वे तो 'हिन्दू' के आविर्भाव के पहले की, भारतीय ही नहीं, समग्र मानव जाति की धरोहर हैं। उनमें तो 'हिन्दू' ही नहीं, वरन् सनातन मानव-धर्म का दार्शनिक चिन्तन है और कौन दावे के साथ कह सकता है कि वैदिक और औपनिषदिक ऋषियों मसलन-अम्बरीष और सहदेव, सुराधस और कश्यप मारीच, जेता माधुछन्दस और नोधा गौतम, पराशर शात्त्य और शुनशेष अजीगर्त, रोमशा और लोपामुद्रा की जातियाँ क्या थीं? क्या वे सब-के-सब ब्राह्मण थे? सवर्ण थे? क्या उन पर सिर्फ़ ब्राह्मणों और सवर्णों का ही अधिकार है? क्या दलित उनके उत्तराधिकारी नहीं हैं? 'वेद' का मतलब तो 'ज्ञान' ही होता है और वह किसी जाति-विशेष की बपौती नहीं है। 'हिन्दू मानवता के सागर' से गाँधीजी का आशय इसी भारतीय मानवता के सागर से है, जिससे समरस होकर ही सवर्ण और अवर्ण, हिन्दू और दलित सब एक राष्ट्र के अविभाज्य अंग बनते हैं।

उधर सवर्णों को गाँधीजी की सलाह यह थी-आपको यह साबित कर देना चाहिए कि जिन धन्धों में अछूत लगे हुए हैं, उन सबको अपनाकर आपने सचमुच जाति को मिटा दिया है। इस प्रकार आपको भंगी का काम करने के लिए तैयार होना चाहिए। कहना नहीं होगा कि फिर तो हरिजन भी उन्हीं मुहल्लों में रहेंगे, जिनमें दूसरे लोग रहते हैं। उन्हें अछूतों की तरह अलग नहीं बसाया जायेगा, उन्हें और लोगों की तरह ही सारी नागरिक सुविधाएँ प्राप्त होंगी।12 इस प्रकार गाँधीजी ने अस्पृश्यता निवारण के लिए दोहरी शिक्षा का मार्ग अपनाया। एक ओर तो स्पृश्यों को धैर्यपूर्वक आचरण और उदाहरण के द्वारा यह सिखाना पड़ेगा कि अस्पृश्यता मानवता के विरुद्ध एक पाप है और उसका प्रायश्चित करना चाहिए और दूसरी ओर अस्पृश्यों को यह समझाना होगा कि उन्हें स्पृश्यों का डर छोड़ देना चाहिए। अस्पृश्यों को अपने में फैली हुई कुरीतियाँ भी दूर करनी होंगी-जैसे शराब पीना, मुर्दार मांस खाना तथा गन्दी और सेहत को नुकसान पहुँचाने वाली आदतें रखना-ताकि कोई उनकी तरफ़ तिरस्कार की उँगली न उठा सके।13

अस्पृश्यता निवारण के लिए गाँधीजी ने 'हरिजन सेवक संघ' का अखिल भारतीय संगठन बनाया। इस संघ की कल्पना तत्वत 'प्रायश्चित करनेवालों' के एक समाज के रूप में की गयी थी, जिससे हिन्दू समाज तथाकथित अस्पृश्यों के प्रति किये गये अपने पाप का प्रायश्चित कर सके। उसका कार्य किसी को विशेषाधिकार देने के बजाय ऋण चुकाना है, इसलिए उसकी कार्यकारिणी में वे ही लोग रखे गये, जिन्हें प्रायश्चित करना था।14 'हरिजन सेवक संघ' यद्यपि अस्पृश्यता को जड़-मूल से मिटा देने और हरिजनों की दशा सुधारने के उद्देश्य से स्थापित किया गया था, लेकिन उसकी कार्यकारिणी में सवर्ण हिन्दुओं को ही लिये जाने पर अनेक लोगों ने सवाल खड़े किये। गाँधीजी इस प्रश्न पर दृढ़ रहे। उन्होंने लोगों को समझाया कि 'हरिजन सेवक संघ' का काम किसी विशेषाधिकार का दावा करने या किसी पर कृपा करने का नहीं है, वह तो 'ऋण उतारने' का काम है। वह प्रायश्चित करनेवालों का समाज है। इस मामले में पापी तो सवर्ण हिन्दू हैं, इसलिए उन्हीं को हरिजनों की सेवा करके और सवर्ण हिन्दू लोकमत को हिन्दू धर्म के माथे से अस्पृश्यता का कलंक दूर करने की शिक्षा देकर प्रायश्चित और पश्चाताप करना है। जब तक अन्याय करनेवाला सच्चा पश्चाताप न करे, तब तक अस्पृश्यता जड़ से नहीं मिटायी जा सकती और पश्चाताप दूसरों के द्वारा नहीं किया जा सकता-उसे तो स्वयं ही करना होता है।15

गाँधीजी से पूछा गया-सवर्ण हिन्दू हरिजनों के हितों की देखभाल कैसे कर सकते हैं? जिन वर्गों ने उनके हाथों दीर्घकाल से कष्ट उठाये हैं, उनकी भावनाओं को वे कैसे समझ सकते हैं? गाँधीजी ने उत्तर दिया-सवर्ण हिन्दू स्वेच्छापूर्वक, नाम के लिए नहीं, बल्कि व्यवहार में भंगी बन जायें। यदि सवर्ण हिन्दू अपना कर्तव्य पूरी तरह और अच्छी तरह पालन करें, तो हरिजन देखते-ही-देखते ऊपर उठ जायेंगे और हिन्दू धर्म अस्पृश्यता के कलंक से शुद्ध होकर संसार के लिए बहुमूल्य विरासत छोड़ जायेगा।16

श्री प्यारेलाल ने सच कहा है कि गाँधीजी ने अस्पृश्यता के विरुद्ध लड़े जानेवाले धर्म-युद्ध को अपने राजनीतिक कार्यक्रम का अविभाज्य अंग बनाकर अपने सारे राजनीतिक जीवन को ख़तरे में डाल दिया था। उन्होंने जब अस्पृश्यता निवारण आन्दोलन चलाया था, उस समय भी समाज और उनके निकट के कुछ साथी उनके उस क़दम को पसन्द नहीं करते थे। उन्होंने अपना बोरिया-बिस्तर बाँधकर चले जाने की तैयारी भी कर ली थी, परन्तु गाँधीजी इससे विचलित नहीं हुए। उन्हें इससे आन्तरिक संतोष ही हुआ था। श्री प्यारेलाल की टिप्पणी है-ब्रह्मचर्य के प्रश्न पर उनकी लड़ाई अस्पृश्यता निवारण की लड़ाई की तरह सत्य के शोध का अथवा प्रेम-धर्म की कार्य-पद्धति का एक सीमा-चिह्न है और उसी को सिद्ध करने के लिए वे नोआखाली आये हैं।17

'हरिजन सेवक संघ' के कार्यकर्ताओं की एक बैठक में यह सवाल उठाया गया कि यदि सवर्ण हिन्दू छूत और अछूत की समानता का दावा सच्चे हृदय से करते हैं, तो उन दोनों में विवाह क्यों नहीं होते? गाँधीजी ने उत्तर दिया-आपको याद होगा कि मैंने बहुत पहले यह नियम बना लिया है कि दो पक्षों में से एक पक्ष यदि हरिजन न हो, तो ऐसे किसी विवाह में न तो मैं उपस्थित होता हूँ और न उसे आशीर्वाद देता हूँ। स्पर्श मात्र से भ्रष्ट करनेवाली अस्पृश्यता अब भूतकाल की वस्तु बन गयी है। अब तो हरिजनों का सांस्कृतिक और आर्थिक उत्थान करने की ज़रूरत है, ताकि छूत-अछूत के सब भेद मिट जायें।18

गाँधीजी ने अस्पृश्यता की तकलीफ़ एक व्यापक स्तर पर महसूस की थी। 30 दिसम्बर 1920 की एक सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने श्री गोपालकृष्ण गोखले को उद्धृत किया-"जैसे हम अंत्यजों को अस्पृश्य समझते हैं, वैसे ही यूरोप के लोग हमें, हिन्दू-मुसलमान सबको, अस्पृश्य समझते हैं। हमें उनके साथ रहने की अनुमति नहीं, हमें उनके बराबर अधिकार नहीं। हिन्दुओं ने अन्त्यजों को जितना बेहाल किया है, उतना ही दक्षिण अ़फ्रीका के गोरों ने भारतवासियों को किया है। भारत से बाहर के साम्राज्य के जितने उपनिवेश हैं, उनमें भी गोरों का बरताव ऐसा ही है, जैसा कि हिन्दू समाज का अछूतों के साथ है।'' इसीलिए गोखलेजी ने कहा था कि "हम हिन्दू समाज की अब तक की शैतानियत का फल भोग रहे हैं। समाज ने बड़ा पाप किया है, भारी शैतानियत दिखायी है। उसी के परिणामस्वरूप दक्षिण अ़फ्रीका में हमारी बुरी हालत हुई है।'' मैंने इसे तुरन्त स्वीकार कर लिया। यह बात बिल्कुल सच थी। उसके बाद मेरा अनुभव भी ऐसा ही है।19

चूँकि गाँधीजी ने रंगभेद की इस अस्पृश्यता की यातना स्वयं भोगी और झेली थी, इसीलिए उनकी आत्मा में किसी दलित से अधिक दलित चेतना की बेचैनी और छटपटाहट मिलती है।

अस्पृश्यता सचमुच मानवता के विरुद्ध किया गया जघन्यतम अपराध और क्रूरतम हिंसा है। सामान्य मानव-हत्या में तो आप व्यक्ति का यकबारगी ही शारीरिक अन्त कर देते हैं, लेकिन अस्पृश्यता में मानवता के एक विशाल समुदाय के मन में बूँद-बूँद घृणा टपकाते हैं, तिल-तिल उसकी नैतिक हत्या करते हैं और पल-पल उसकी आत्मा का वध करते हैं, यहाँ तक कि अन्तत उसका सम्पूर्ण अमानवीकरण ही कर देते हैं।

इधर यह अस्पृश्यता अपने नाम-रूप बदल कर विविधवर्णी हो गयी है। अब उसने वैचारिक और सैद्धांतिक वेश-भूषा पहन ली है। स्वामी विवेकानंद ने धर्म और संस्कृति, दर्शन और चिन्तन के क्षेत्र में जिसे 'मतछुओवाद' का नाम दिया था, वह अस्पृश्यता भी अब कितनी कट्टर होती चली जा रही है और दुर्भाग्य से शिक्षा और सभ्यता की इतनी आश्चर्यजनक प्रगति और गर्वीले विकास के समानान्तर यह 'मतछुओवाद' बढ़ रहा है। 'आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वतो।दब्धासो अपरीतास उद्भिद,20' का वैदिक उद्घोष करनेवाली भारतीय संस्कृति और चिन्तन धारा में भी विभिन्न विचारों, मतों, जातियों और धर्मों के प्रति कितनी असहिष्णुता बढ़ रही है। गाजर, घास और कुकुरमुत्तों की तरह छोटे-छोटे जाति-समुदायों के मंच और मंदिर बन रहे हैं, राजनीतिक दलों में परस्पर अछूत भावना बढ़ रही है, वाम और दक्षिण-दोनों पंथों में परस्पर अस्पृश्यता विकसित हो गयी है, बुद्धिजीवियों में असमान विचार को जाति से बाहर करने का रिवाज अब आम है। दूसरों को फ़ासिस्ट कहने वाले ही अपने संगठनों में, अपने क्रिया-कलापों में, अपने व्यवहार में कितने लोकतांत्रिक और स्वतंत्रता के संरक्षक होते हैं? हम-आप देख रहे हैं कि धर्म, सिद्धांत और विचारधारा जब संस्था और संगठन में कायान्तरित हो जाते हैं, तो कितने कट्टर और बर्बर हो जाते हैं। नक्सलवाद, उग्रवाद और आतंकवाद इसी की मिसालें हैं। अस्पृश्यता ही इनका भी मूल बीज है और चरम संकीर्णता ही इनका खाद-पानी है। दुर्भाग्य तो यह है कि बुद्धिजीवी और विद्वान, लेखक और कलाकार भी इस संकीर्णता से नहीं बचे हैं। वे दक्षिणपंथी हों या वामपंथी-दोनों ने ही राजनीतिक नृशंसताओं के लिए तर्क और दर्शन, विचार और विज्ञान मुहैया करवाये हैं। असहमत को अछूत और बेमेल विचार को दुश्मन करार देनेवाली इस अस्पृश्यता का निवारण कैसे होगा???


संदर्भ संकेत :

(क)     गाँधीजी के साथ पच्चीस वर्ष : महादेव भाई की डायरी और

(ख)     महात्मा गाँधी पूर्णाहुति : प्यारेलाल

1.  डायरी : खण्ड-3, पृ. 30

2.  वही

3.  डायरी : खण्ड-2, पृ. 309-310

4.  पूर्णाहुति : खण्ड-2, पृ. 49-50

5.  वही, पृ. 69

6.  पूर्णाहुति : खण्ड-1, पृ. 80

7.  वही, खंड-2, पृ. 245

8.  वही, खंड-1, पृ. 8

9.  वही, खंड-2, पृ. 253

10.  वही, पृ. 253

11.  वही

12.  वही

13.  वही

14.  वही

15.  वही, क्रमश पृ. 254, 255 और 325

16.  वही

17.  वही, पृ. 263 और 265

18.  वही, खण्ड-3, पृ. 157

19.  डायरी, खण्ड-3, पृ. 27-28

20.  यजुर्वेद, 25:14

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