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गाँधीवादी सौन्दर्य-बोध एवं वर्तमान परिवेश

मनोज कुमार राय

सम्पूर्ण सृष्टि को नैसर्गिक काव्य के रूप में देखने वाली भारतीय मनीषा सौन्दर्य की अवधारणा को लेकर इस विवाद में नहीं पड़ती कि सौन्दर्य द्रष्टा की दृष्टि में होता है अथवा दृश्य वस्तु में। कोई वस्तु आत्यंतिक रूप में इतनी सुन्दर नहीं होती कि वह सभी कालों में सभी देखनेवालों के लिए समान रूप से सुन्दर प्रतीत हो और न विधाता की इस रचना में कोई वस्तु इतनी असुन्दर होती है कि उसमें कभी किसी को किसी तरह का सौन्दर्य ही दिखायी न पड़े।

मनुष्य के मन में सौदर्य-बोध का विकास जीवन-जगत् के अनेक अनुभवों के आधार पर होता है। इनमें सृष्टि-सौन्दर्य का स्थान प्रमुख है। इसी के साथ सामाजिक संस्कार, आर्थिक परिस्थिति एवं व्यक्तित्व व जीवन का भी महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। व्यक्तित्व जन्मजात और अर्जित दोनों संस्कारों से बनता है। "सृष्टि में अनंत सौन्दर्य होने पर भी सौन्दर्यबोध के विकास के लिए द्रष्टा के सम्पूर्ण व्यक्तित्व, समझदारी, अन्तर्ग्राही संवेदनशीलता, प्रज्ञा और विवेक आदि की भी अपेक्षा है। इनसे परिपूर्ण द्रष्टा ही भौतिक और नैसर्गिक सौन्दर्य का भावन करने में समर्थ हो सकता है।''1

सौन्दर्य के प्रति आकर्षण मनुष्य का सहज संस्कार है। गाँधी जी का भी अपने ढंग से था। इसके बावजूद उन पर यह आरोप लगाया जाता रहा है कि उनके जीवन में कला का कोई स्थान नहीं था। इन आरोपों को तब और बल मिलता था, जब महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों को भी उनकी कुटिया में कोई अलंकरण का विधान नहीं मिलता था। पर गाँधी जी के कला-मूल्य लोगों के कला-मूल्य से कुछ भिन्न थे। अत उनके सादगी-भरे जीवन में लोगों को 'कला' के दर्शन नहीं होते थे। पर उनका यह दृष्टिकोण सर्वथा एकांगी है।

एक बार प्रसिद्ध चित्रकार नन्दलाल वसु उनकी कुटिया में गये। वहाँ पर उनकी दृष्टि अश्वत्थ-पत्र की आकृति वाले ढक्कन पर पड़ी, जिससे लोटा ढका हुआ था। गाँधी जी उनकी दृष्टि को ताड़ गये और उन्होंने कहा-"देखो सुन्दर है न! इस पर प्रकृति की छाप है और साथ ही उसे गाँव के एक लोहार ने मुझे गढ़कर दिया है।''2 कहना न होगा कि गाँधीवादी सौंदर्य-बोध का सम्पूर्ण रिक्थ इन दो वाक्यों में सिमट गया है। 'लोक' और 'प्रकृति' के प्रति इतना जीवन्त विश्वास शायद ही कहीं देखने को मिले।

वस्तुत चित्रों से रहित दीवारों के पीछे उनके नैसर्गिक 'सौन्दर्य-बोध' के सिवा कुछ नहीं है। वे कहते हैं-"मैं मानता हूँ कि मेरे आश्रम की दीवारों पर चित्र आदि नहीं हैं। किन्तु इसका कारण यह है कि मैं दीवारों को आड़-बचाव की चीज़ मानता हूँ। यह नहीं कि मैं कला-मात्र का ही विरोधी हूँ। जब मैं ताराखचित प्रकाशमय आकाश की ओर देखता हूँ तो सोचता हूँ, भला आदमी की सचेत कला हमें क्या दे सकती है! प्रकृति के भीतर सौन्दर्य के इन सनातन बिम्बों की तुलना में आदमी की कला कितनी अपूर्ण है''!3 स्पष्ट है कि गाँधी जी प्रकृति को सबसे बड़ा कलाकार मानते थे। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है-"मैं प्राकृतिक दृश्य को देखकर मुदित हो जाता था...। अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा से अपना सिर झुका लेता था कि उनके सौन्दर्यबोध की दृष्टि कितनी उदात्त और पवित्र थी।''

ऐसा नहीं है कि गाँधी जी को मानव-निर्मित कला की वस्तुओं में कोई सौन्दर्य नहीं दिखता था। वे सच्चे श्रम और शोषण-विहीन कर्म में सौन्दर्य देखते थे। जो कला सभी की उन्नति के लिए कुछ कर सके, वह 'कला' उन्हें बेहद प्रिय थी। चरखा इसका ज्वलन्त उदाहरण है। चरखे के संगीत के भीतर उन्हें शाश्वत सौन्दर्य दिखता था। क्योंकि इसके ज़रिये वे करोड़ों को रोटी मुहैया करा सकते थे। वे बड़े ही सरल शब्दों में कहते हैं-"मेरा ध्येय सदा कल्याण का है, कला कल्याणकारी हो, तभी तक वह मुझे स्वीकार्य है।...और भारतीयों ने तो अपनी कला को मन्दिरों और गुफ़ाओं में उतारकर सार्वजनिक कर दिया है। गरीबों को ऐसे स्थानों में जाकर जो चाहिए, सो मिल जाता है।''5

असल में गाँधी जी 'कला के लिए कला' सिद्धान्त के विरोधी हैं। वे कहते हैं-"कला के लिए कला' मेरी समझ के बाहर है। जो कला हमें आत्म-दर्शन करना न सिखाये, वह कला ही नहीं है।''6 और "जो कला मन को शान्ति न दे सके, वह भी कला नहीं है।''7 उनकी दृष्टि में जो कला समाज के नैतिक और आध्यात्मिक उन्नति में सहयोग कर सके, वही सच्ची कला है। जिस कला को समझने के लिए किसी शास्त्र का अच्छा ज्ञान अपेक्षित हो, वह कला नहीं है, वह अस्थायी है। उनकी दृष्टि  में "कला और साहित्य को चिरंजीवी बनने के लिए सहज व सरल बनना होगा। जिससे लोग उसे सहजता से प्राप्त कर लेंगे और अपना भी सकेंगे।''8

गाँधी जी को असली सौन्दर्य प्रकृति की वास्तविकता और जीवन की ईमानदारी में दिखता था। उनके हिसाब से सौन्दर्य का सार-तत्त्व सत्य में ही निहित है। वे कहते हैं-"मुझे तो सत्य के प्रतिबिम्ब वाली सभी वस्तुएँ सुन्दर लगती हैं-सच्चा मित्र, सच्चा काव्य और सच्चा गीत। आम तौर पर लोगों को सत्य में सौन्दर्य नहीं दिखता है।''9 वे उदाहरण देते हुए कहते हैं कि-"अपने ज़माने के कुरूपतम व्यक्ति सुकरात को मैं सुन्दर कहूँगा। क्योंकि  उसकी सत्य-जिज्ञासा और उसकी अनवरत खोज उसे सम्पूर्ण सौन्दर्य प्रदान करती है।''10 डेमियन कोढ़ी था और कवि मिल्टन अंधा। आदमी केवल शरीर ही नहीं है, बल्कि उससे कई गुना ऊँची चीज़ है।11 गाँधी का यह सौन्दर्य-बोध उन्हें भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की अनुपम देन 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' के नज़दीक ले जाता है। आत्यंतिक विचार जब प्रज्ञा द्वारा निर्धारित होता है तो वह उच्चतम सत्य है, व्यवहार में जब चरितार्थ होता है, तब शिव है और जब उसकी अभिव्यक्ति मनुष्य और प्रकृति के रूप में होती है तो वही परम सौन्दर्य होता है। गाँधी जी इस सिद्धान्त पर एकदम खरे उतरते हैं। उनकी दृष्टि में "सत्य ही मूल वस्तु है। परन्तु वह सत्य `िशव' होता है, सुन्दर होता है। सत्य-प्राप्ति के बाद तुम्हें कल्याण और सौन्दर्य दोनों मिल जायेंगे। इस प्रकार मैं ईसा मसीह को बड़ा कलाकार कहता हूँ, क्योंकि उन्होंने सत्य की उपासना करके सत्य को खोजा और सत्य को प्रकट किया। मुहम्मद भी इसी प्रकार कलाकार हुए।...दोनों में से एक ने भी-न ईसा ने, न मूसा ने-कला पर व्याख्याएँ लिखीं। मुझे ऐसे सत्य और सौन्दर्य की लालसा रहती है।''12

गाँधी जी का विश्वास है कि सर्वोत्तम कला तभी सम्भव है, जब कलाकार का व्यक्तित्व व चरित्र एकदम निर्दोष हो। कोई भी कलाकार, जिसने आत्मा के सौन्दर्य को नहीं पहचाना है, वह कला के चरम रूप को कभी नहीं प्राप्त कर सकता है। उनका कहना है-"जो सर्वोत्तम जीवन जीता है, वही सबसे बड़ा कलाकार है। क्योंकि जिस कला के पीछे उदात्त जीवन न हो, वह कला कैसी?''13

सभी कलाओं में गाँधी जी को संगीत सर्वाधिक प्रिय था। भक्ति-गीत व भक्तिपूर्ण संगीत बेहद प्रिय थे। एक जगह उन्होंने लिखा है-"मीरा के...गीत बहुत सुन्दर हैं। इसका कारण यह है कि वे मीरा के हृदय से निकले हैं...मैं तो संगीत के बिना भारत के धार्मिक जीवन के विकास की कल्पना भी नहीं कर सकता।''14 यही नहीं, उनका मानना है कि संगीत से ईश्वर का ध्यान आसानी के साथ किया जा सकता है। वे संगीत और चित्रकला को समस्त विश्व की एक भाषा मानते हैं। संगीत का महत्त्व उनके जीवन में कितना है, यह उनके इस कथन से पता चलता है, जब वे योगी के लिए भी संगीत को अनिवार्य तत्त्व बताते हैं-"सच पूछा जाये तो योगी भी संगीत के बिना अपना काम नहीं चलाता। उसका संगीत हृदय-वीणा में से निकलता है, इस कारण हम सुन नहीं पाते।''15

वर्तमान परिवेश में संगीत और सौन्दर्य के मापदण्ड विकृत हो गये हैं। संगीत के नाम पर भोंडे और उत्तेजक संगीत का बोलबाला है तो सौन्दर्य के नाम पर विश्वसुन्दरी, शहर-सुन्दरी अथवा गाँव-सुन्दरी का नाटक चल रहा है। गाँधी जी रूप और तत्त्व में भेद नहीं करते थे। उनके लिए दोनों ही अभिन्न हैं। लेकिन आज रूप का ही बोलबाला है। रूप के गर्व को नारी-स्वभाव का एक स्वाभाविक अंग माना गया है, जो उसके यौवन से आरम्भ होकर मातृत्व-प्राप्ति के समय तक प्रकट होता है। पर इसमें सात्त्विकता का भी पुट रहता है। क्योंकि रूप-गर्व जब सीमा का अतिक्रमण कर जाता है, तो उससे व्यक्ति का पतन होता है। उससे उसका अहं पुष्ट होता है कि वह रूप के बल पर सारे संसार को वश में कर सकता है। पुरुष की अपेक्षा नारी में यह दुर्बलता अधिक होती है। क्लियोपैट्रा, नूरजहाँ जैसे ऐतिहासिक उदाहरण तो हैं ही, वर्तमान में पामेला बोर्डेसों की भी कमी नहीं है। नारी के रूप-सौन्दर्य का अहंकार उसे अपने रूप की प्रशंसा सुनने और सम्मान पाने के लिए उत्तेजित करता है। और फिर तो वह विश्वसुन्दरी बनना चाहती है। यही दुर्बलता उसके पतन का कारण बनती है। प्रसिद्ध कवि और कहानीकार जयशंकर प्रसाद ने अपनी कहानी 'सालवती' में इस दुर्बलता की चरम स्थिति को बख़ूबी दर्शाया है, जिसमें सालवती 'कुलवधू' से 'वेश्या' हो जाती है। रूप-गर्व का अहं व्यक्ति के जीवन को असन्तुलित और मर्यादा-विहीन बना देता है। गाँधी जी व्यक्ति के जीवन में सन्तुलन और मर्यादा के पक्षघर थे। उनका मानना था कि "व्यक्ति का सच्चा सौन्दर्य उसके शुद्ध हृदय,पवित्र जीवन और चरित्र-शुद्धता में है।''16

गाँधी जी के लिए 'कला' सत्य का दर्पण है और सत्य उनके लिए अमूर्त न होकर निश्चित और साकार है। ध्यान रहे, गाँधी जी की दृष्टि में सच्ची व जीवन्त कला वही है, जिसका हमारे जीवन से सम्बन्ध है।''17 जब व्यक्ति सत्य में सौन्दर्य देखने लगता है, तभी सच्ची कला का निर्माण होता है। सत्य व्यक्ति को उसके कर्तव्य-पालन में दिख सकता है। वस्तुत सौन्दर्य की अभिव्यक्ति व्यक्ति के मन, कर्म और वचन में होनी चाहिए। गाँधी जी ने एक जगह लिखा है-"काव्य और कला को तो सत्य के प्रचार का साधन होना चाहिए, उनका उपयोग कभी भी चापलूसी के लिए नहीं करना चाहिए। क्योंकि कविता के ऐसे प्रयोग से न केवल कला का ह्रास होगा, बल्कि सत्य का भी खंडन होगा।''18

इस संक्रमण काल में भारतीय मनीषा अपने चिन्तन और सामाजिक संगठन की पुनर्रंचना करती रही है, जिससे नयी चुनौतियों का सामना होता रहा है। वर्तमान संक्रमण से निकलने हेतु भारतीय मनीषा के शिखर पुरुष गाँधी ने हमें अपने यज्ञमय जीवन के ज़रिये एक नयी दृष्टि दी है। यदि व्यक्ति उनके सौन्दर्य की अवधारणा को अपने दैनिक जीवन में उतार सके, तो उससे उसका ही नहीं, सम्पूर्ण विश्व का कल्याण सम्भव है।


संदर्भ संकेत -

1. दस्तावेज़, अंक 83-विश्वनाथ तिवारी

2. पत्र मणि पुतुल के नाम-कुबेर नाथ राय

3. सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय, खण्ड 23, पृ. 207

4. गाँधी की आत्मकथा

5. महादेव भाई की डायरी, भाग 4, पृ. 73

6. वही

7. यंग इंडिया, 27 / 5 / 1926

8. महादेव भाई की डायरी, भाग 4, पृ. 73

9. वही

10. वही

11. सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय, खण्ड 33, पृ. 253

12. महादेव भाई की डायरी, भाग 4

13. सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय, खण्ड 33, पृ. 207

14. वही

15. विशाल भारत 1931, पृ. 29

16. सम्पूर्ण गाँधी वाङ्मय, खण्ड 35, पृ. 36

17. वही

18. वही, खंड 56, पृ. 355 

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