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आधुनिक समाज में गाँधीवादी मूल्यों की प्रासंगिकता

डॉ. सुरेन्द्र वर्मा

क्या गाँधी-दर्शन के संबंध में प्रासंगिकता का सवाल बेमतलब नहीं है? नैतिक नज़रिये से अगर हम देखें तो गाँधी को बुद्ध और ईसा की कोटि में रखा जा सकता है, क्योंकि गाँधी ने जिन नैतिक मूल्यों पर ज़ोर दिया है, वे बौद्ध और ईसाई नैतिक मूल्यों से अलग नहीं हैं। पर बुद्ध या ईसा की प्रासंगिकता के सम्बन्ध में कभी किसी ने प्रश्न नहीं उठाया। फिर यह सवाल गाँधी के बारे में ही क्यों उठाया जाता है?

गाँधी ख़ुद अपने को एक सनातनी हिंदू कहते थे और सनातन हिंदू धर्म में सनातन नैतिक मूल्यों को क़बूल किया गया है। ये वे सामान्य मूल्य हैं, जो देश, काल और पात्रों के बदल जाने से बदलते नहीं। ये निरपेक्ष मूल्य हैं। सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य ऐसे मूल्य हैं, जो आम तौर पर सभी के लिए सद्गुणों के रूप में स्वीकार किये गये हैं। कोई भी विकसित धर्म उनको नज़रअंदाज नहीं कर सकता। ये सनातन मूल्य हर ज़माने में ज़रूरी रहे हैं। गाँधी ने इन्हीं क़द्रों को क़बूल किया है। इसलिए आज के दौर में उनकी प्रासंगिकता ढूँढ़ना एक बेमानी खोज है। वे तो सभी युगों में प्रासंगिक हैं।

आज के ज़माने में गाँधीवादी क़द्रों पर सवाल उठाया जाना, शायद सियायत के नज़रिये से ज़रूरी भले हो, गाँधी की उपयोगिता को सिद्ध या असिद्ध करके गाँधी-समर्थक या तथाकथित गाँधी-विरोधी ख़ेमे राजनैतिक फ़ायदा उठा सकते हैं। सच तो यह है कि गाँधी की प्रासंगिकता का प्रश्न उन गाँधी-विरोधी तत्त्वों ने ही उठाया है, जो गाँधी-दर्शन को अमहत्त्वपूर्ण क़रार देना चाहते हैं। इस सवाल को उठाकर गाँधी-समर्थक ख़ेमे की स्थिति 'सुरक्षात्मक' बना दी गयी है और गाँधीवादी बजाय इसके कि वे गाँधी-विचार को बढ़ावा दे पायें, उसका 'बचाव' करने में लग गये हैं। प्रासंगिकता के प्रश्न ने गाँधीवाद को कठघरे में खड़ा कर दिया है।

नैतिक मूल्य हमारे रोज़मर्रा के चाल-चलन से संबंधित मूल्य हैं। वे हमारे आचरण का बखान नहीं करते, बल्कि उसे कैसा होना चाहिए, यह बताते हैं। वे विवरणात्मक न होकर नियोजक (प्रिक्रिप्टिव) हैं। उनकी अभिव्यक्ति का आधार 'चाहिए' है। किन्तु नैतिक मूल्यों का 'चाहिए'-रूप मनुष्य की वास्तविक कूबत की ओर इशारा करता है, उसकी क्षमताओं की ओर संकेत करता है, न कि किसी ऐसी चीज़ की तरफ़, जो पायी ही न जा सके। जो अप्राप्य है, आकाश-कुसुम है, वह तो मूल्य हो ही नहीं सकता। अहिंसा एक नैतिक मूल्य इसलिए है कि यह हमें अहिंसा बरतनी चाहिए-ऐसा आदेश देता है। किन्तु अहिंसा में निहित जो 'चाहिए' है, वह ठीक इसलिए मुमकिन हो सका है कि मनुष्य दरअसल अहिंसक हो सकता है। यदि वह अहिंसक न हो सकता होता तो अहिंसा के संदर्भ में 'चाहिए' बेमतलब हो जाता। इस प्रसंग में जर्मनी के सुप्रसिद्ध दार्शनिक कांट की उक्ति-'आई ऑट देयरफ़ोर, आई कैन' (मुझे करना चाहिए, इसलिए मैं कर सकता हूँ।) द्रष्टव्य है।

गाँधी-दर्शन में नैतिक मूल्यों के स्वभाव के इसी पहलू पर ज़ोर दिया गया है। गाँधी के अनुसार कोई भी आदर्श ऐसा नहीं होता, जिसे हासिल न किया जा सके। 'आदर्श' ठीक इसीलिए आदर्श है कि उसे व्यवहार में उतारा जा सकता है। नैतिक मूल्य आदर्शात्मक (विहित, नियोजक) होते हुए भी मानवी क्षमता के, इनसानी कूबतों के परे नहीं हैं। उन्हें आचरण में आसानी से लाया जा सकता है।

एक बात और। परंपरागत चिंतन में जहाँ नैतिक मूल्यों को कोरे आदर्शों के रूप में केवल सैद्धान्तिक माना गया है, वहीं उन्हें 'व्यक्ति' तक ही सीमित कर दिया गया है। किन्तु गाँधी ने जिस तरह सिद्धांत और व्यवहार के विभाजन को ख़त्म कर दिया, उसी तरह व्यक्ति और समाज के द्वैत को भी अस्वीकार किया। व्यक्ति से समाज तक एकसूत्रता है। इन दोनों के बीच हम जो भी विभाजन-रेखा खींचते हैं, वह हमेशा मनमानी होती है। यदि नैतिक मूल्यों को कोई व्यक्ति अपने आचरण में उतार सकता है, तो वे सामाजिक आचरण में भी उतारे जा सकते हैं, वे समाज के लिए भी उतने ही उपलब्ध हैं। गाँधी की नैतिक प्रतिभा ख़ासतौर पर इस बात में है कि उन्होंने नैतिक मूल्यों को कोरी आदर्शात्मकता और निरी वैयक्तिकता से आज़ाद करके, व्यावहारिक ज़मीन पर लाकर खड़ा कर दिया।

नैतिक मूल्य मानव-स्वभाव के सहज सद्गुण हैं। वे मनुष्य के सामान्य धर्म हैं। मनुष्य नैतिक सद्गुणों से ही इन्सान के रूप में अपनी पहचान बनाता है। जिस तरह आग अपनी गर्मी से और पानी अपनी ठंडक से पहचाना जाता है, इसी तरह मनुष्य अपने सद्गुणों से जाना जाता है।

मनुष्य के संदर्भ में गाँधी जी पशु-बल और आत्मबल में भेद करते थे। एक जानवर अपनी शारीरिक त़ाकत के अलावा और किसी शक्ति का उपयोग नहीं कर सकता। किन्तु मनुष्य में पशु-बल के अतिरिक्त आत्मबल भी है और यही आत्मबल आदमी को जानवरों से अलग करता है। नैतिक मूल्य आत्मबल के पर्याय हैं, अत वे सहज मानवी स्वभाव की पहचान भी हैं।

आधुनिक समाज सहज मानवी स्वभाव का परिचायक न होकर बनावटीपन और कृत्रिमता की वकालत करने लगा है। गाँधी आधुनिक समाज के इसी बनावटीपन के विरोधी थे। आधुनिक समाज अपनी असहजता में, अपनी हिंसा की प्रवृत्ति और परिग्रह-प्रेम में अपनी सहज स्वाभाविक सद्वृत्तियों को भूल गया है। नैतिक मूल्य, जो मनुष्य के वास्तविक स्वभाव की ओर संकेत करते हैं, जब तक मनुष्य नहीं अपनाता, वह मुक्त नहीं हो सकता।

गाँधी जी इस मुक्ति के लिए इन्सानियत-विरोधी वृत्तियों के ख़िलाफ बराबर लड़ते रहे। वे आज भी ठीक इसीलिए प्रासंगिक हैं कि अभी यह लड़ाई ख़त्म नहीं हुई है, बल्कि इसे और शिद्दत के साथ लड़ा जाना है । 

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