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गांधीजी और अहिंसा

पैगम्बर या तत्वज्ञानी होने का दावा गांधीजी ने कभी नहीं किया। उन्होंने तो बड़ी दृढ़ता से कहा थाः "गांधीवाद जैसे कोई चीज नहीं है और न मैं अपने बाद कोई पथ छोड़ जाना चाहता हूं।" उन्होंने कहा था गांधीवादी तो केवल एक ही हुआ है और वह भी अपूर्ण तथा सदोष और वह एक व्यक्ति थे, वह स्वयं।

गांधीजी के विचार से भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का वास्तविक वैशिष्ट्य था उसका अहिंसात्मक रूप। अगर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अहिंसात्मक सत्याग्रह न अपनाया होता तो गांधीजी की उसमें कोई रूचि न रह जाती। हिंसा के विरोध का कारण केवल यह नहीं था कि निहत्थे लोग सशस्त्र विद्रोह में सफल नहीं हो सकते, यह तो इसलिए था कि गांधीजी हिंसा को ऐसा भोंडा अस्त्र समझते थे, जिससे उतनी कठिनाइयां हल नहीं होती जितनी पैदा हो जाती हैं और इससे विद्वेष तथा कटुता का ऐसा वातावरण बन जाता है कि पुनः सच्चा मेल-मिलाप करीब असंभव ही हो जाता है।

अहिंसा पर गांधीजी का आग्रह उनके अंग्रेजी और भारतीय, दोनों आलोचकों को समान रूप से खलता था, यद्यपि इसके लिए दोनों के कारण  भिन्न-भिन्न थे। अंग्रेज उनकी अहिंसा को धोखा और छल समझते थे, भारतीय आलोचक उसे निरी भावुकता। अंग्रेज भारतीय स्वाधीनता संग्राम को यूरोपीय इतिहास की दृष्टि से देखने के अभ्यस्त थे, इसलिए उन्हें अहिंसा की बात में इतना अवास्तविक आदर्शवाद दीख पड़ा कि उन्होंने इसे सच माना ही नहीं। इसीलिए आंदोलन की छिटपुट हिंसात्मक कार्रवाइयों पर तो उनका ध्यान तुंत चला जाता था, परंतु अहिंसा के वास्तविक शांत स्वरूपको वे देख ही नहीं पाते थे। भारत के उग्र राजनीतिज्ञ मानो फ्रांस और रूस की क्रांतियों एवं इटली और आयरलैंड के स्वाधीनता-संग्रामों के इतिहास को घोटे बैठे थे। उन्हें इन्हीं इतिहासों का निष्कर्ष सत्य प्रतीत होता था कि हिंसा का मुकाबला हिंसा से ही किया जा सकता है, कांटे को कांटे से ही निकाला जा सकता है। हाथ आए राजनैतिक अवसर को नैतिक कारणों से छोड़ देना उनके मत में निरी मूर्खता थी। पूर्ण अहिंसा के प्रति गांधीजी की प्रतिबद्धता के कारण उनके और भारत के विशिष्ट वर्ग़ों के बीच दूरी पैदा हो गई थी, जो अत्यधिक राजनैतिक उत्तेजना के अवसरों पर ही अल्पकाल के लिए हटती थी। उनके घनिष्ठतम सहयोगियों में भी ऐसे लोगों की संख्या नहीं के बराबर थी, जो अहिंसा के सिद्धांत से निकलने वाले इन सभी तर्कसंगत निष्कर्ष़ों को स्वीकार करने और उन्हें प्रयोग में लाने को तैयार हों, घनघोर रूप में अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जिते संसार में किसी एक राष्ट्र का अकेले निरस्त्र रहना, पुलिस और सशस्त्र सेना को सदा के लिए विदा कर देना और प्रशासन का इस सीमा तक विकेंद्रीकरण करना कि राज्य का अस्तित्व ही न रह जाय। नेहरू, पटेल तथा अन्य लोगों को, जिन पर स्वतंत्र भारत के प्रशासन के संगठन का भार था, अपने नेता द्वारा प्रतिपादित अहिंसा के सिद्धांत की श्रेष्ठता में शंका न थी, लेकिन वे इसे प्रशासन में व्यवहार के लिए उपयुक्त नहीं समझते थे। भारतीय संविधान सभा के अधिकतर सदस्य गांधीजी में निष्ठा रखते थे या निस्संदेह उनका अत्यधिक आदर करते थे, लेकिन 1949 में उनके प्रयत्नों से जो संविधान बना वह अधिकांशतः पाश्चात्य संसदीय पद्धति पर आधारित था, न कि गांधीजी के विचारों पर। यह भी नहीं कहा जा सकता कि गत बीस वर्ष़ों में भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास गांधीजी के "स्वावलम्बी ग्राम गणतंत्र" के अनुरूप हुआ है। इसके विपरीत, इसके साक्ष्य मिलते हैं कि देश में औद्योगिक क्रांति लाने का सायास प्रयत्न किया गया है।

गांधीजी के 'राजनैतिक उत्तराधिकारी' जवाहरलाल नेहरू, बापू द्वारा सिखाए गए मानवोचित मूल्यों एवं मान्यताओं से पूरी तरह ओतप्रोत थे। लेकिन गांधीजी के निधन के बाद जिस व्यक्ति के कंठ से गांधी की वाणी फूटी, वह थे विनोबा भावे - पदयात्रा करने वाले संत - जिन्होंने राजनीति या सरकार से कोई सरोकार नहीं रखा। उनके भूदान आंदोलन का उद्देश्य जितना भूमि-सुधार था, उतना ही आध्यात्मिक जागरण भी। यद्यपि पचास लाख एकड़ से अधिक भूमि भूमिहीनों को बांटी गई, फिर भी यह आंदोलन सभी लोगों की सहमति से होनेवाली सामाजिक क्रांति का रूप नहीं ग्रहण कर सका है जैसी की शुरू में आशा थी। इसका कारण कुछ तो यह रहा है कि जनता को राष्ट्रीय आंदोलन के लिए संगठित करने की जो असाधारण प्रतिभा गांधीजी को प्राप्त थी, उसका विनोबा में अभाव था और कुछ यह कि स्वतंत्र भारत में लोगों में यह प्रवृत्ति पैदा हो गयी है कि अब वे सामाजिक सुधार के लिए भी स्वैच्छिक प्रयास और सहयोग पर आश्रित न रह कर, सरकार का मुंह ताकते हैं।

1948 में गांधीजी के निधन के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ में भाषण करते हुए एक सदस्य ने भविष्यवाणी की थी कि "उस भारतीय संत की सबसे बड़ी उपलब्धियां तो अभी सामने आने को हैं।" और विनोबा भावे ने कहा था कि गांधी युग में तो सत्याग्रह का सूर्य अपनी शैशव अवस्था में ही था। गांधीजी के निधन के 23 वर्ष बाद अब ऐसा लगा कि इतनी ऊंची आशा करना कुछगकुछ हवाई महल बनाने जैसा था। गांधीजी के सत्याग्रह के तरीकों का हाल के वर्ष़ों में और उन्हप के देश में जिस प्रकार उपयोग किया गया, वह उनके सिद्धांतों से बिल्कुल मेल नहीं खाता। संसार में कोरिया, कांगो, वियतनाम और पश्चिम एशिया में एक के बाद एक संकट की स्थिति पैदा होती रही, जिसके फलस्वरूप रक्तपात और कटुता का अंत होना नहीं दिखता। उधर विश्व के ऊपर आणविक युद्ध की काली छाया मंडरा रही है, जिसके खतरों का अंदाज भी नहीं लगाया जा सकता। इस अंधकार में गांधीजी के सिद्धांत और उनकी कार्यविधियां प्रकाश की किरण के समान हैं। दुर्भाग्य की बात यह है कि उनकी मूल भावना और तौरगतरीकों पर अक्सर शंका की जाती है और विचित्र बात तो यह है कि केवल साधारण लोग ही ऐसा नहीं करते। अभी बहुत दिन नहीं बीते, जबकि एक प्रसिद्ध लेखक ने कहा था कि गांधीजी के –ष्टिकोण के परिणाम होंगे - संगीन की मार और बलात्कार के समक्ष निक्रिय आत्मसमर्पण, गंदे पानी की निकासी की सुविधा के बिना गांव, विषाक्त रोगों से ग्रसित बच्चे और आंखों में रोहे। ऐसी आलोचना सत्य से कोसों दूर है। जिस –ढ़ संकल्प से गांधीजी ने अंग्रेजी साम्राज्य का सामना किया, उसी –ढ़ता से उन्होंने उन सामाजिक कुरीतियों से भी युद्ध किया जो समाज में घुन की तरह लगी थप। उनके द्वारा किए गए अहिंसा के प्रतिपादन का कारण यह नहीं था कि वह साधन के रूप में सरल है, किंतु यह कि हिंसा को गांधीजी एक भद्दा-भोंडा और अन्ततः प्रभावहीन अस्त्र समझते थे। गांधीजी के लिए हिंसा का विरोध कोई मजबूरी की बात नहीं थी, अहिंसा का चुनाव तो उन्होंने अपनी इच्छा से ही किया था।

होरेस अलेकजाण्डर ने, जो गांधीजी से परिचित थे और जिन्होंने उन्हें सत्याग्रहगसंग्राम का संचालन करते हुए भी देखा था, विरोधी के प्रति अहिंसात्मक सत्याग्रही के –ष्टिकोण का यह सजीव चित्रण किया है "तुम्हारे पास आधुनिक शासन की सभी प्रबल शक्तियां हैं - अस्त्र-शस्त्र, धन, नियंत्रित समाचारपत्र, इत्यादि। मेरे पास तो सत्य, न्याय में –ढ़ विश्वास और मानव की अजेय आत्मा ही है, जो पाशविक शक्ति के आगे घुटने टेकने के बदले अपने विश्वास के लिए मर मिटने को तैयार है। निरस्त्रता ही मेरी एकमात्र सहयोगिनी है। हम अपनी जगह स्थिर हैं और जरूरत पड़ी तो इसी स्थान पर धराशायी भी हो जाएंगे।" खतरे और कठिनाइयों से डरकर पीछे हटने के बदले, अहिंसात्मक सत्याग्रही को बड़े उच्च कोटि के साहस की आवश्यकता पड़ती है विद्वेष के बिना अन्याय का विरोध कर सकने का साहस, अतीव नम्र और विनीत होने के साथ-साथ अविचल बने रहना, कष्टों का स्वागत करना पर दूसरे को कष्ट न देना और स्वयं मर जाना, पर दूसरे को न मारना।

गांधीजी ने मानव जाति का विभाजन 'अच्छे' और 'बुरे' इन दो सरल वर्ग़ों में नहीं किया था। उनका विश्वास था कि हर मानव में, भले ही वह 'शत्रु' हो, 'सद' का कोई-न-कोई अंश अवश्य होता है। बुरे तो कार्य होते हैं, व्यक्ति ऐसा कोई नहीं होता जिसमें बुराई ही बुराई हो। गांधीजी की सत्याग्रह प्रविधि का उद्देश्य विरोधी पर दबाव डालना नहीं था, ऐसी शक्तियां सक्रिय करना था जिससे विरोधी का हृदय परिवर्तन हो जाय। क्योंकि गांधीजी का उद्देश्य विचार और हृदय का परिवर्तन था, इसलिए सफलता जल्दी नहीं मिलती थी, लेकिन शांतिपूर्ण उपायों के प्रयोग के कारण उनका परिणाम स्थायी अवश्य होता था। गांधीजी ने बहुत जोर देकर कहा थाः "यह मेरा –ढ़ विश्वास है कि हिंसा के आधार पर कुछ भी स्थायी काम हो ही नहीं सकता।" वास्तव में अहिंसात्मक उपायों से समाज में लाए गए परिवर्तन की गति, हिंसा से लाए गए परिणाम से ज्यादा सुस्त नहीं होती। इतना ही नहीं, उस परिवर्तन की गति उन संस्थाओं के सामान्य कार्यकलाप द्वारा अपेक्षित परिवर्तन की गति से तो तीव्र होती ही है, जो जड़ता को जन्म देती है या यथा स्थिति बनाए रखती है।

गांधीजी का यह विचार नहीं था कि समाज के ढांचे में किसी तरह का आमूल परिवर्तन रातों-रात हो सकता है और न उन्हें यह भ्रांति थी कि नये समाज का निर्माण केवल वाक्विलास और सदिच्छामात्र से हो सकता है। यह काफी नहीं है कि हम अपने विरोधी को दोष दें या उस युग को दोष दें जिसमें हम पैदा हुए। कठिनाइयां कैसी भी क्यों न हों, सत्याग्रही का कर्तव्य है कि वह हताश कभी न हो। वह इतना तो कर ही सकता है कि स्वयं काम में जुट जाए। अगर वह किसानों के उत्थान के लिए अभियान चला रहा है तो वह स्वयं जाकर गांव में रहने लगे। अगर वह किसी अशांति ग्रस्त जिले में शांति स्थापित करना चाहता है तो वह उस क्षेत्र में पदगयात्रा कर सकता है और अग्नि परीक्षा दे रहे लोगों के मस्तिष्क और हृदय तक अपना संदेश पहुंचा सकता है। यदि अस्पृश्यता जैसी परंपरागत बुराई को दूर करना है, तो किसी सुधारक के लिए उसके विरोध का इससे अधिक प्रभावकारी उपाय और क्या हो सकता है कि वह किसी अछूत के बच्चे को स्वयं गोद ले ले अगर विदेशी शासन को चुनौती देनी है तो वह यह मान कर काम करना क्यों न शुरू कर दे कि देश मुक्त हो चुका है, विदेशी शासन की पूरी अवहेलना करे, और लोगों के स्वेच्छित एवं रचनात्मक प्रयत्नों को सही दिशा देने के लिए ऐसी संस्थाएं बनाए, जो वर्तमान संस्थाओं का विकल्प बन सकें। यदि सत्याग्रही का उद्देश्य विश्वशांति है तो क्यों न आज से ही वह अपने सबसे निकट के पड़ोसी के प्रति शांतिपूर्वक व्यवहार शुरू करे और उसे समझने और उसका दिल जीतने के लिए पहले अपना हाथ आगे बढ़ाए ?

यद्यपि कुछ लोगों को गांधीजी अनुभवहीन आदर्शवादी लगे, लेकिन सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं के प्रति उनका दृष्टिकोण अत्यंत व्यावहारिक था। गांधीजी में एक गंभीर रहस्यमयी चेतना थी लेकिन उनके रहस्यमय चिंतन में कोई हवाई महल बनाने की बात नहीं थी। वह स्वर्ग के सपने नहीं देखते थे और न भाव-समाधि में कोई ऐसी बात सुनते थे जिसे वे दूसरों को बता नहीं सकते हों। जब कभी वह यह कहते कि "ईश्वर ने मुझे कुछ करने का आदेश दिया है" तो अक्सर वह "आदेश" इतना ही होता कि किसी सामाजिक बुराई को हटाने या दो लड़ते हुए समुदायों के बीच मेल पैदा करने के लिए क्या किया जाए। भगवान की खोज की कोशिश से गांधीजी की सार्वजनिक कामों में रुचि कम नहीं हुई, इससे तो उन्हें प्रभावकारी होने की शक्ति ही मिली। गांधीजी के लिए केवल धर्मशास्त्रों का अध्ययन, प्राचीन धर्मग्रन्थों के सूत्रों की छानबीन अथवा किसी मठ की निर्जन शांति में रहकर सद्गुणों का विकास ही सच्चा धर्म नहीं था, उनके लिए तो धार्मिक होने का अर्थ था राजनैतिक और सामाजिक चुनौतियों के बीच जीवन बिताना ।

गांधीजी ने अपनी अहिंसात्मक प्रविधि का प्रयोग भारत और दक्षिण अफ्रीका में अपने देशवासियों के लिए तो किया, लेकिन उन्होंने इसकी परिकल्पना केवल भारतीय राष्ट्रीयता के अस्त्र के रूप में नहीं की थी। इसके विपरीत, उन्होंने इसे अन्याय हटाने तथा विरोधी दलों, जातियों और राष्ट्रों में होने वाले झगड़ों को समाप्त करने वाले साधन का रूप दे दिया था। यह विचित्र बात है कि हमारे युग में उपनिवेशवाद के विरोध में सबसे सफल विद्रो करने वाले गांधीजी स्वयं संकीर्ण राष्ट्रीयता की कालिमा से बिल्कुल मुक्त थे। 1924 में ही उन्होंने कहा था कि आज की सारी मानव-जाति के प्रबुद्ध लोग पूर्ण रूप से स्वतंत्र, एक-दूसरे के खिलाफ लड़ने वाले राज्यों का समर्थन न करने वाले, एक-दूसरे पर आश्रित, मित्र राष्ट्रों के संघ की कामना करते हैं। पहले महायुद्ध ने यह सिद्ध कर दिया कि राष्ट्रीयता के साथ औद्योगीकरण का संयोग होने से कैसी बर्बादी हो सकती है। लेकिन गांधीजी इसके पहले ही यह विचार बना चुके थे कि दो राष्ट्रों के बीच हिंसा के लिए कोई स्थान हो ही नहीं सकता।

1931 में जब गांधीजी इंग्लैंड गये तो 'स्टार' पत्र ने एक कार्टून में उन्हें मुसोलिनी, हिटलर, डी वेलेरा और स्टालिन की बगल में लुंगी पहने खड़ा दिखाया था। ये नेता काली, भूरी, हरी और लाल कमीजें पहने थे। इस पर दिए गए शीर्षक का अर्थ था, 'यह तो किसी भी रंग की कमीज नहीं पहनते हैं।' यह शीर्षक केवल शब्दशः ही सत्य नहीं था, इसका लक्ष्यार्थ यह था कि उस अहिंसक के लिए जो मानव जाति के भ्रातृत्व में विश्वास रखता हो, 'अच्छे' और 'बुरे' राष्ट्र, 'मित्र' और 'शत्रु' इस तरह का कोई ऊपरी वर्ग-विभाजन हो ही नहीं सकता। इसका आशय यह नहीं कि गांधीजी हिंसा करने वाले और उसे सहन करने वाले राष्ट्रों का अंतर नहीं समझते थे। उनका अपना जीवन हिंसा की शक्तियों के विरोध में किया गया अनवरत संघर्ष था। और सत्याग्रह का लक्ष्य था हिंसा और अन्याय को दूर करना।

द्वितीय महायुद्ध के ठीक पहले के वर्ष़ों में जब नाजी और फासिस्ट आक्रमण बड़ी तेजी पर था, गांधीजी ने अहिंसा में अपने विश्वास का समर्थन करते हुए उन छोटे राष्ट्रों को इसे अपनाने का सुझाव दिया था, जो भयंकर पाशविक शक्ति से विनष्ट हो जाने के भय से आतंकित थे। अपने साप्ताहिक पत्र 'हरिजनञ में उन्होंने सैनिक आक्रमण और राजनैतिक अत्याचार से पीड़ित राष्ट्रों से अहिंसा को अपनाने का आग्रह किया था। उन्होंने कमजोर राष्ट्रों को सलाह दी कि वे अपनी रक्षा, सैनिक शक्ति बढ़ा कर नहीं, आक्रामक के अहिंसात्मक प्रतिरोध द्वारा करें। जब सितम्बर, 1938 में चेकोस्लोवाकिया को धुरी शक्ति की धमकी के आगे घुटने टेक देने पड़े, तो गांधीजी ने अभागे चेक लोगों को सलाह दी थी "इससे महान कोई वीरता नहीं कि पृथ्वी की किसी भी शक्ति के सामने घुटने टेकने से –ढ़तापूर्वक इनकार कर दें, भले ही वह शक्ति कितनी भी बड़ी क्यों न हों; पर साथ ही मन में किसी तरह की कटुता भी न रखें और इस बात में पूर्ण विश्वास बनाए रहें कि आत्मा को छोड़ कर और कुछ अमर नहीं है।"

सात साल बाद, जब जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर आणविक बम का विस्फोट हुआ, गांधीजी की प्रतिक्रिया बड़ी विशिष्ट थी "मैंने एक मांसपेशी भी नहीं हिलायी। मैंने अपने से कहा कि अगर अब भी संसार अहिंसा को नहीं अपनाता, तो मानवता का आत्मघात अवश्यम्भावी है।" गत वर्ष़ों में यह विचित्र बात और अधिक स्पष्ट हो गई है कि शस्त्रास्त्रगत 'पूर्णता' ने ही उन्हें दो राष्ट्रों के पारस्परिक झगड़ों के निर्णायक के रूप में निरर्थक बना दिया है। बड़े-बड़े राष्ट्र आणविक अस्त्राsं का जो भण्डार संचित कर चुके हैं, उससे वर्तमान सभ्यता जैसी अनेकों सभ्यताओं का पूर्ण विनाश हो सकता है। विनाश के कगार पर आकर शांति तो केवल उस संतुलन के सहारे टिकी है, जिसे कठोर भाषा में 'आणविक विनाश के आतंक का संतुलन' कहा गया है। सामूहिक विनाश के जो शस्त्र आज हमारे पास हैं - ऐसी स्थिति में किसी दूसरे पर आक्रमण करना अपने पर स्वयं आक्रमण करने के बराबर हो गया है। अपनी पुरानी विचारधाराओं को न छोड़ सकने के कारण यह कटु सत्य हमने अभी तक स्वीकार नहीं किया है। आइंस्टाइन ने अत्यंत कातर होकर कहा था, कि "अणु के विस्फोट ने हर चीज को बदल दिया है, सिवाय हमारी विचारधारा के और इसीलिए हम अभूतपूर्व विनाश की ओर ढुलकते जा रहे हैं।"

जिस रूप में अहिंसा का गांधीजी ने प्रतिपादन किया था वह अब शुभ आग्रह मात्र न रह कर, एक आवश्यकता हो गई है। द्वितीय महायुद्ध के घोर अन्धकार के पूर्व उन्होंने चेकोस्लोवाकिया और एबीसीनिया के लोगों को जो सलाह दी थी, वह पहले भले ही विशुद्ध आदर्शपरक और अव्यवहार्य लगी हो, लेकिन आज यह ठीक तर्क पर आधारित है। सर स्टीफेन किंगहाल जैसे व्यवहारकुशल युद्धनीतिज्ञ भी गांधीजी के विचारों में आत्मघाती हिंसा का ऐसा विकल्प देखने लगे हैं, जो व्यवहार में लाने योग्य है।

इस बात को अस्वीकार करने वाले गांधीजी प्रथम व्यक्ति होते कि उनकी कार्यविधि ऐसा अमोघ उपाय है, जिससे विश्वभर में तत्काल शांति स्थापित हो सकती है। इस परिवर्तनशील विश्व में नई-नई परिस्थितियों के अनुरूप उनकी कार्यविधि का अनन्त विकास संभव है। गांधीजी द्वारा अंगीकृत कार्यविधियों के एक अध्येता जान बानड्युरेण्ट ने यह विचार प्रकट किया है कि "आज प्रायोगिक अहिंसा का विकास उसी स्थिति में है जो स्थिति एडिसन और मारकोनी के युग में बिजली की थी।" चीफ लिथूली और डा. मार्टिन लूथर किंग के जीवन और मृत्यु, दोनों ने हमें दिखा दिया है कि अहिंसा कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका प्रयोग कुछ गिने-चुने लोग ही, किसी विशेष देश में, या किसी विशेष काल में ही, कर सकें। गांधीजी के समसामयिक तथा मित्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भविष्यवाणी की थी कि "पूर्व से पहले ही, पश्चिम के लोग गांधीजी की विचारधारा को अपनाएंगे क्योंकि ये लोग शक्ति पर आश्रित भौतिक समृद्धि के दुष्चक्र से गुजर चुके हैं और उनका भ्रम दूर हो चुका है। उनमें अब आत्म-तत्त्व की जिज्ञासा है और वे उसी की उपलब्धि चाहते हैं। पूर्व अभी भौतिकवाद के दुष्चक्र से नहीं गुजरा है और इसीलिए उसका भ्रम भी अभी दूर नहीं हुआ है।" 

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