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संघर्ष का पुनरारम्भ

गांधीजी 28 दिसंबर, 1931 को बम्बई पहुंचे। एक ही सप्ताह के अन्दर वे जेल के भीतर थे और सविनय अवज्ञा आन्दोलन फिर शुरू हो गया। सरकार ने कांग्रेस-संगठन को गैर-कानूनी घोषित कर दिया। गांधी-इरविन समझौता रद्दी की टोकरी में चला गया।
गांधीजी की वापसी यात्रा की अवधि में ही जवाहरलाल नेहरू और अब्दुल गफ्फार खां, जो उनके सबसे योग्य नायबों में से थे, गिरफ्तार हो चुके थे। इससे विषम स्थिति पैदा हो गई थी। अधिकांश अंग्रेज अफसर इरविन द्वारा गांधीजी से पुनर्मिलन के लिए किए गये प्रयत्न से नाराज थे। उन्होंने उनके उत्तराधिकारी लार्ड विलिंगडन को गांधीजी के प्रति कड़ी नीति अपनाने के लिए राजी कर लिया। कठिनाइयां हल करने के लिए गांधीजी ने वाइसराय से भेंट की अनुमति मांगी लेकिन उनको झिड़की ही मिली। भारत सरकार का रुख मैत्रीपूर्ण नहप था और उसने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को, अपने नेताओं, संगठन और साधनों से वंचित रखने के लिए बड़ी तेजी से दमन-चक्र चलाया। निर्दयता से अत्याचार किए जाने पर भी 1932 के शुरू के नौ महीनों में 61,551 व्यक्तियों ने संघर्ष में भाग लिया और सविनय अवज्ञा के अपराध में उन्हें सजा दी गई। इसके पहले 1930-31 के आन्दोलन में सजा पाने वालों की संख्या इससे कम थी।


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