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आश्रम की स्थापना

1915 में, जो उनकी उम्मीदवारी अथवा परीक्षा का वर्ष था, गांधीजी पूरी तरह राजनीति से दूर रहे। अपने भाषणों और लेखों में उन्होंने अपने को व्यक्ति और समाज के सुधार तक सीमित रखा और भारत के राजनैतिक प्रसंगों पर उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा। इस नियंत्रण का एक कारण तो स्वयं अपने ऊपर लगाया गया प्रतिबंध था, और दूसरी यह बात कि वह अभी देश की राजनैतिक स्थिति का पूरा अध्ययन कर लेना चाहते थे।

जबकि गांधीजी देश की राजनैतिक स्थिति पर अभी अपने विचार कायम नहीं कर पाए थे, उनकी तात्कालिक समस्या दक्षिण अफ्रीकी संघर्ष के उन साथी-सम्बन्धियों को बसाने की थी, जिन्होंने अपनी किस्मत उनके साथ जोड़ रखी थी। उन्होंने अहमदाबाद के निकट कोचरब गांव में एक आश्रम की स्थापना करने का निश्चय किया। बाद में वह आश्रम साबरमती नदी के किनारे अधिक स्थायी स्थान पर स्थापित हो गया।


साबरमती आश्रम

एक बार आश्रम की परिभाषा करते हुए गांधीजी ने उसे 'धार्मिक आचरण वाला सामूहिक जीवन' बताया था। 'धार्मिक' शब्द का प्रयोग यहां उसके सर्वाधिक व्यापक और उदार अर्थ में किया गया है। आश्रमवासी किसी विशेष धर्म अथवा उसके विधि-विधान से बाध्य नहीं थे। लेकिन उनके लिए व्यक्तिगत आचरण के कुछ सीधे-सादे नियमों का पालन अनिवार्य था। आश्रम में किये जाने वाले कुछ संकल्पों, उदाहरणार्थ सत्य, अहिंसा और पुण्यशीलता का सार्वभौमिक महात्म्य था और कुछ उदाहरणार्थ, अस्पृश्यता-निवारण, शारीरिक श्रम और निर्भीकता; उस समय के भारतीय समाज की विशिष्ट स्थिति में आवश्यक थे, क्योंकि वह समाज जाति-पांति से जर्जर था, हाथ से काम करने को अपमानजनक समझता था और विदेशी शासन से आतंकित था।

ये संकल्प निरे यांत्रिक ढंग से नहीं, बुद्धिपूर्वक रचनात्मक ढंग से पालन करने के लिए बनाए गए थे। इनका उद्देश्य नैतिक और आध्यात्मिक विकास था। ऊपर से भले ही ये घिसेगपिटे मालूम होते हों, लेकिन इनमें निहित सत्य को पुरातन काल से मान्यता प्राप्त है और जब तक मानव जाति इन्हें अपने दैनिक आचरण का अंग नहीं बना लेती, इनकी आवश्यकता और महत्व बने ही रहेंगे।

इन संकल्पों के नामोल्लेख से ही पता चल जाता है कि आश्रमवासियों का जीवन अत्यंत संयत था। वहां का जीवन व्यस्त भी था। वहां कुछ-न-कुछ शारीरिक श्रम तो सभी को करना पड़ता था। कताई और बुनाई के विभाग थे, गौशाला थी और बड़े खेत थे। जूठे बरतनों की सफाई और कपड़ों की धुलाई हर आश्रमवासी खुद करता था। नौकर वहां कोई था ही नहीं। आश्रम का वातावरण किसी महंत के मठ या अखाड़े का नहीं, किन्तु कस कर काम लेने वाले दयालु कुलपति की छत्रछाया में जीवन बिताने वाले एक बड़े परिवार का सा था। गांधीजी उस परिवार के पिता या 'बापू' थे, कस्तूरबा 'बा' या मां थप। उस समुदाय में सभी तरह के लोग थे। छोटे-छोटे बच्चे थे, तो अस्सी-अस्सी वर्ष के बूढ़े भी; यूरोपीय और अमरीकी विश्वविद्यालयों के स्नातक थे, तो संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित भी, गांधीजी के कट्टर भक्त भी थे और हर बात में भीतर ही भीतर गांधीजी पर संदेह करने वाले शंकालु भी। आश्रम तो मानो एक ऐसी प्रयोगशाला थी, जहां के निवासियों पर गांधीजी अपनी नैतिक और आध्यात्मिक धारणाओं का परीक्षण किया करते थे। उनके अपने लिए उस आश्रम का वही महत्व था जो अधिकतर लोगों के लिए परिवार का होता है, वह विीव के तुमुल कोलाहल से उन्हें मुक्त रखने वाला आश्रय-स्थल था। वह परिवार रक्त या सम्पत्ति के बंधनों से नहीं, समान उद्देश्यों में निष्ठा से बंधा हुआ था। गांधीजी आश्रम पर शासन करते थे। पूरे देश के समान ही, आश्रम में भी उनका यह शासन केवल नैतिक था। जब कोई गलती हो जाती या कोई आश्रमवासी गंभीर अपराध कर बैठता तो वह सारा दोष अपने सिर ले लेते और उपवास कर उसका प्रायश्चित्त भी करते थे।

जब पहला महायुद्ध छिड़ा तो गांधीजी इंग्लैंड होते हुए देश लौट रहे थे। उनका विचार इंग्लैंड में कुछ सप्ताह ठहरने का भी था। 6 अगस्त 1914 को वह इंग्लैंड पहुंचे और तुरन्त भारतीयों का एक ऐम्बुलेंस-दल बनाने के लिए सभा की। इस दलील का उन पर कोई प्रभाव न पड़ा कि साम्राज्य का संकट भारत के लिए सुअवसर है। बाद में गांधीजी ने लिखा था : "मैं भारतीय और अंग्रेज की स्थिति में अन्तर तो जानता था लेकिन मुझे यह विश्वास नहीं था कि हम पूरी तरह गुलाम बन गए हैं। तब मेरा विचार था कि दोष अधिकतर व्यक्तिगत अधिकारियों का है, न कि अंग्रेजी तत्र का और हम प्यार से इन अफसरों का हृदयगपरिवर्तन कर सकते हैं। अगर अंग्रेजों की सहायता और सहयोग से हम अपनी स्थिति सुधार सकते थे तो हमारा कर्तव्य था कि जरूरत पड़ने पर उनकी मदद कर हम उनकी सहायता प्राप्त करें।"

अगर इंग्लैंड में गांधीजी को पसली के दर्द की बीमारी न हुई होती तो शायद वह अपने द्वारा संगठित ऐम्बुलेंस-दल में स्वयं भी भरती हो जाते और उनका भारत लौटना अनिश्चित काल के लिए रुक जाता।


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