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काका कालेलकर

 

31. ‘सनातनी लेकिन सुधारक’

बापू जब दक्षिण अफ्रिका से भारत आये तब उनके सिर पर चोटी नहीं थी, गले में जनेऊ नहीं था । हरिद्वार के कुंभ मेले में एक साधु ने उनसे इन दोनों वस्तुओं के लिए आग्रह किया । तब बापू ने सिर पर चोटी रखना स्वीकार किया और जनेऊ के लिए इन्कार कर दिया । इस विषय पर बताते हुए उन्होंने कहाः

“मुझे हिंदू समाज में बडे़-बडे़ सुधार करने हैं, सुधार करने के लिए लड़ना है और वह भा एक निष्ठावान हिंदू की भाँति । प्रसंग आने पर इस समाज के विरुद्ध मुझे उपवास भी करना होगा । इसलिए जहाँ तक संभव हो सके मुझे समाज के साथ एकरूप होना है । समाज को यह लगना चाहिए कि मैं उनका ही हूँ । तभी मैं उनमें कुछ परिवर्तन करवा सकूँगा । जितनी बातों में उनके रिवाजों का पालन किया जा सके, उनके द्वारा उन्हें खुश रखना ही उत्तम नीति है । सिर पर चोटी रखने जैसी नगण्य वस्तु में सुधार करके समाज से अलग दिखने में भला क्या लाभ है ?”

जनेऊ के विषय में उन्होंने कहाः

“हिंदू समाज में यों ही अनेक दलबंदियाँ हैं जिसमें समाज निर्बल होता जा रहा है । उसमें बिखराव आ रहा है । ऐसा भेदभाव है कि कुछ लोगों को जनेऊ ग्रहण करने का अधिकार है, कुछ को नहीं । तो हम अधिकार न प्राप्त लोगों के साथ ही मिल जाँए ।”

गाँधीजी में बहुत बडा़ सुधारक छिपा था लेकिन गाँधीजी बनिया थे । इसी स्वभाव के कारण उन्होंने अपना समावेश सनातनियों में करवाया और कार्यक्रम स्वीकारा सुधारकों का ।