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लेखकीय

महात्मा गांधी विश्व की एक महानतम हस्ती। भगवान् के लिए इनसान और इनसान के लिए भगवान् के रूप में लाग इसकी पूजा आरती करते हैं। हाथ में लाठी लिये चलने की मुद्रा में निर्मित इस मूर्ति की स्थापना, बापू के देहावसान के दो दिन के बाद ही कर दी गई थी। तब यह मूर्ति इस मंदिर में न होकर कहीं और स्थापित की गई थी। पचपन वर्ष हो गए इस महपुरुष को देवत्व प्राप्त हुए।

गांधीजी को देवत्व का दर्जा इसलिए नहीं मिला कि वे कोई चमत्कारी पुरुष थे बल्कि इसलिए मिला, क्योंकि वे जीवन के प्रति संघर्ष करनेवाले एक अद्वितीय योध्दा थे। सत्य के पक्षधर थे। अहिंसा के पुजारी थे तथा आत्मविश्वास के प्रति उनकी गहरी आस्था थी। (*दि हितवाद (2 अपैल, 2003)में प्रकाशित समाचार के आधार पर)

वास्तव में देखा जाए तो गांधी एक नाम नहीं, अपितु एक संपूर्ण विचारधारा का द्योतक है। एक अलीक योध्दा थे वे। जो सदा लीक से हटकर चले। गृहस्थ होकर भी वीतरागी। फक्कडपन तो उनका हद दर्जे का। उनकी सत्यनिष्ठा उन्हें सुकरात या राजा हरिश्चंद्र के समक्ष ले जात है। बाहर से देखने में जितना सहज, भीतर से उतने ही सहस्यवादी।

उनकी मृत्यु के पश्चात् आइंस्टीन ने कहा भी था, "अगली पुश्तों को विश्वास भी नहीं होगा कि ऐसा भी कोई पुरुष हाड़-मांस के रूप में इस पृथ्वी पर रहा होगा।"

बापू शुरू से ही प्रयोगधर्मी रहे। सत्य, अहिंसा, उपवास, पदयात्रा, दृढ़ निश्चयता के बलबूते पर उन्होंने बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ लड़ीं। यही उनके प्रमुख अस्त्र थे। गांधीजी को लेकर अब तक न जाने कितनी पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं-उनके जीवन पर केंद्रित। उनकी प्रयोगधर्मिता को लेकर देश-विदेश के विज्ञ रचनाकारों ने इन पर बहुत काम किया, जैसे-एलीनर मार्टिन की 'द विमेन इन गांधीजीस लाइफ’, पोलक की 'महात्मा गांधी विसेंट शीन की लीड काइंडली लाइट', जिनेट इंटन की 'गांधी फाइटर विदाउट ए स्वोर्ड ', ज्योके एश की ' गांधी हाफ वे टू फ्रीडम '

भारतीय रचनाकारों ने भी गांधी पर अनेक अमूल्य कृतियाँ दी हैं। एम.चेलापति राव की 'गांधी एंड नेहरू', मीरा बेन की 'िद स्प्रिट्स पिलग्रिमेज जरनल', एफ.पी. क्रोजियर की 'ए वर्ड टू गांधी', महादेव देसाई की 'िद एपिक ऑफ ट्रावनकोर' तथा 'गांधीजी इन इंडियन विलेजेज', प्रफुल्लचंद्र घोष कृत 'महात्मा गांधी', निर्मल बोस की 'माई डेज विथ गांधीजी'

नव जीवन ट्रस्ट ने बापू के पत्रांs का संकलन दस खंडों में छापा। सस्ता साहित्य मंडल से गांधीजी की पुरानी चिट्ठियों का संग्रह छपा। डॉ. सुशीला नायर ने 'बापू की कारावास कहानी' लिखी तो यशपाल जैन ने 'साबरमती का संत' रचा महादेव की डायरी' के नाम से सन् 1917 से 1942 तक की कालावधि में बापू के भाषण, पत्र-व्यवहार, वार्त्तालाप आदि पर आधारित दस खंडों की एक विस्तृत श्रृंखला वाराणसी के सर्व सेवा संघ से हिंदी और अंग्रेजी में प्रकाशित हुई। इसमें भाग छह से नौ तक की सामग्री का प्रकाशन गुजराती में भी हुआ। दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी के संघर्ष की गाथा को केंद्रित कर डॉ. गिरिराज किशोर ने एक वृहद उपन्यास लिखा-'पहला गिरमिटिया'। उपन्यासकार ने गांधीली की विभिन्न गतिविधियों को, जो उन्हांने दक्षिण अफ्रीका में संवाहित की, 904 पृष्ठों में समेटने की चेष्टा की। गांधीजी के जीवन-चरित को के.एम. एडिमूलम ने अपनी पुस्तक 'िबटविन द लाइंस' में रेखांकित करने का प्रयास किया। गांधीजी के व्यक्तित्व एवं उनके विभिन्न क्रिया-कलापों को सर्वप्रथम सन् 1953 में रेखांकित किया गया। मूरे ने भी 'द स्टोरी ऑफ हिज लाइफ' में गांधी पर अनेक रेखाचित्र तैयार किए। उन दिनों के छाया चित्रकारों ने ाrााr गांधीजी की तस्वीर उतारने में भरपूर रुचि दिखाई थी।

अपनी सहजता व सरतला की वजह से देश-विदेश के व्यंग्य चित्रकारों का ध्यान बापू ने स्वाभाविक रूप से खींचा। बल्कि यूँ कह कि व्यंग्य चित्रकार की इनकी ओर ख्ंिाचे चले आए। स्वयं बापू ने अपने व्यंग्य चित्रों में गहरी रुचि दिखाई। गांधीजी पर केंद्रित व्यंग्य चित्रों को संकलन सहज नजर नहीं आता। हिंदी में तो खैर ऐसा कोई संकलन हैं ही नहीं। कभी-कभार पत्र-पत्रिकाओं में गाधीजी पर कुछ व्यंग चित्र जरूर प्रकाशित हुए या किसी-किसी व्यंग्य चित्रकार के व्यंग्य चित्र संकलन में दो एक व्यंग चित्र गांधी के भी संकलित किए गए बस। अत यह संकलन व्यापक रूप में इस दिशा में किया गया पहला प्रयास कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।

गुलामी के दिनों में गांधीजी यद्यपि चिंतित व दुःखी थे, किंतु आजादी के बाद बापू पहले की अपेक्षा कहीं अधिक तनावग्रस्त दिखे। 29 जनवरी को तो वे बड़े चिंतित लग रहे थे। करीब सवा नौ बजे वे सोने के लिए उद्यत हुए और फिर मनु ने कहा-

है बहारे बाग दुनिया चंद रोज

देख तो इसका तमाशा चंद रोज

और फिर आई 30 जनवरी। सुबह से मौसम कुछ म्लान सा लग रहा था। दोपहर बाद वे बिशन से बोले, ’बिशन, मेरी महात्त्वपूर्ण चिट्ठियाँ ले आ। मुझे उनके जवाब आज ही दे देने चाहिए शायद कल मैं ही नहीं।"

शाम साढ़े चार बे का समय। बापू बिड़ला हाऊस से प्रार्थना के लिए निकले कि भ़ाड चीरता हुआ कोई सख्श सीधे बापू के पास आकर खड़ा हो गया। युग प्रवर्तक को उसने नमन किया और फिर दनदन गोलियों का तीन आवाजें

"हे राम!" बापू के श्रीमुख से बस यही शब्द अंतिम शब्द के रूप में प्रस्फुटित हुए थे कोई पचपन साल हो गए इस शब्द को उच्चारित हुए। यदि आज बापू जिंदा होते तो यह शब्द दिन में कितनी बार कहते। परिस्थितियाँ ही कुछ ऐसी हो गई हैं। गनीमत कहो कि बापू इन सब स्वातंत्र्योत्तर गतिविधियों को देखने के लिए अधिक दिन नहीं रहे वरना वे स्वयं को गोली मार डालते।

गांधी पर बनाए इन व्यंग्य चित्रों की तलाश में बरसों से भटक रहा हूँ। यह संकलन तो एक पड़ाव मात्र है। यात्रा अभी और भी है। जिन कार्टूनिस्टों की रचनाएँ यहाँ प्रस्तुत हुई हैं, उनके लिए मो उनका आभारी हूँ। बापू का भी बहुत-बहुत धन्यवाद। और अंत में चलकर उस सर्वशक्तिमान का भी, जिन्होंने कार्टूनिस्टों के लिए बापू को भेजा। खदी के डायमंड जुबली के इस हीरक वर्ष में यह कृति बापू को विनम्र रेखांजलि के रूप में। शायद इसी बहाने हम और आप बापू की याद ताजा कर लें। यह पुस्तक इसी निमित्त स्वरूप।

30 जनवरी, 2005 शिवानंद कामड़े

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