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खण्ड 4 :
प्रेम-सिन्धु

44. वचन-पूर्ति

गांधीजी तिथल में थे, तब एक दिन बोर्डी स्थित गोखले-शिक्षण-संस्था के एक शिझक श्री ग. म. केलकर वहाँ आये । गांधीजी की उनके साथ अच्छी दोस्ती हो गयी । क्योंकि गांधीजी गोखलेजी को अपना गुरु मानते थे । ये शिक्षक बापूजी के सहवास में 3-4 दिन ही रहे थे । लौटते समय उन्होंने गांधीजी से कहाः

“बापूजी, आप भी एक बार बोर्डी आइये । काका (कालेकर) तो 2-4 महीने वहाँ अपने स्वास्थ के लिए आये थे और उस निसगँरम्य वातावरण में उनका स्वास्थ्य बिलकुल ठीक हो गया था ।”

बापू ने कहाः “अच्छी बात है । मैं बीमार पडूँगा, तब बोर्डी जरूर आऊँगा ।” यह सुनकर शिक्षक को बुरा लगा । वे बोलेः बोर्डी आने के लिए आप बीमार न पड़िये । स्वस्थ ही आइये ।”

बापू ने कहाः “आऊँगा, परन्तु एक शर्त है । आप जिस गाँव में हैं, वहाँ 100 घरों को खादीधारी बनाइये और ऐसे 100 घर बनाइये कि जहाँ एक हरिजन को वे अपने घर में रखें । तब मैं बोर्डी अवश्य आऊँगा ।”

शिक्षक ने कोई जवाब नहीं दिया । सामान्य व्यक्ति से भी कुछ-न-कुछ उपयोगी काम लेने की असामान्य कला बापूजी में भरपूर थी ।

वे भाई बापू की शर्त पूरी नहीं कर सके । बापूजी का अत्यन्त प्रिय कार्य ‘हरिजन-सेवा’ का था । उसमें वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से काफी मदद करते थे । शर्त न होने के कारण गांधीजी कभी बोर्डी नहीं गये । लेकिन मृत्यु के बाद भी गांधीजी ने अपने वचन का पालन किया । ‘भस्मी’ के रूप में गांधीजी बोर्डी गये और शिक्षक को दिया गया वचन इस तरह पूरा हुआ । दिये गये वचन को प्राणपण से निभाने में ही शीलसर्वस्य समाया हुआ है, यह बापूजी का महान् उपदेश था ।