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खण्ड 5 :
ज्योति-पुरूष

57. मरण का आनन्द मनाओ

आज एक गंभीर कहानी सुनाता हूँ । गांधीजी ने हर प्रकाश का भय अपने जीवन से प्रयत्नपूवर्क दूर कर दिया था । वे निर्भय हो गये थे । निर्भयता ही मोक्ष है । संस्कृत में एक वाक्य हैः

‘आनन्दं ब्रह्माणो विद्वान् न बिभेति कदाचन’ इसका अर्थ बताऊँ ? अर्थ यह कि-

ब्रह्मानन्द जो जाने, उसे भय कहीं नहीं ।’

महात्माजी सकल चराचर में अपनी आत्मा ही देखते थे । फिर जहाँ अपनी ही आत्मा देखनी है, तब कोई किसीसे डरे क्यों ? ठीक है न ?

मैं जो प्रसंग सुना रहा हूँ, वह इस प्रकार हैः

रौलट कानून के खिलाफ गांधीजी ने प्रचण्ड आन्दोलन देशभर में किया । उसमें से जलियाँवाला बाग का काण्ड हुआ । उसमें से असहयोग और कानून की अवज्ञा सब बाद में होने को था । प्रवास से थके-माँदे गांधीजी आश्रम में विश्रान्ति के लिए आये थे । उस समय आश्रम छोटा था । स्थापना को 3-4 वर्ष ही हुए थे। विनोबाजी, अप्पासाहब पटवर्धन जैसे तेजस्वी, ध्येयनिष्ठ साधक आश्रम में आ गये थे । और सन् 1919 का 2 अक्टूबर का दिन आया। गांधीजी 50 वर्ष पूरे करके 51 वें में प्रवेश करनेवाले थे । आश्रमवासियों ने मिलकर एक सामान्य-सा आनन्द समारोह करने का निश्चय किया । माला, हार, तोरण आदि से सब जगह की शोभा बढा़ दी गयी । समारोह का समय हुआ । गांधीजी आकर बैठे । चारों ओर सत्यार्थी साथी जमा थे । मानो चन्द्र के चारों ओर तारे हों, सूर्य के चारों ओर किरणें हों, कमल के चारों ओर मधुकर हों । गांधीजी बोलने लगे । उन्होंने कहाः

‘‘आज मेरे 50 वर्ष पूरे हुए । यानी आधा जीवन समाप्त हुआ । अब थोडे़ से दिन बचे हैं। मुझे 51 वाँ वर्ष लगा है । 50 पूरे होने आप लोग आनन्द मना रहे हैं । मेरा 51 वाँ जन्म-दिन देखकर खुश हैं । आप लोग ईश्वर को धन्यवाद दे रहे हैं । ठीक है । और यह माला, ये हार ! मुझे इनमें विशेष रूचि नहीं है । लेकिन आप लोगों ने बडे़ प्रेम से यह सब किया है । आपकी भावना को मैं समझ सकता हूँ । ठीक है । लेकिन मुझे जो बात कहनी है, वह भूलिये नहीं । आप लोग मेरा जन्म-दिन जितने आनन्द से मना रहें हैं, उतने ही आनन्द से मेरा मृत्यु-दिन भी मनाना । आज जिस प्रकार ईश्वर का आभार मान रहे हैं, उसी प्रकार उसने मुझे उठा लिया, इसके लिए भी कृतज्ञतापूर्वक उसका आभार मानना । जीवन और मरण दोनों उसीके मंगलमय वरदान हैं । अन्यथा मेरी मृत्यु के समय यदि आप लोग रोते बैठेंगे, तो यह विनोबा यहाँ जो लगातार गीता पढ़ता है, उसका क्या प्रयोजन है ?’’

महात्माजी ने अफ्रीका से आने के समय से ही अपने मन से मरण का भय पूरी तरह मिटा दिया था । वे सचमुच मुक्त पुरूष थे ।