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2. वाइसराय के नाम पत्र

नमक कानून ने सभी भारतवासियों को चाहे वे गरीब हों या अमीर, वृद्ध हों या युवा, शिक्षित हों या अनपढ़ प्रभावित किया था।

सन् 1835 में एक आयोग ने सिफारिश की थी कि भारत में बना नमक भारत में बेचा जा सकता है। नमक कानून के अनुसार नमक बनाने का एकाधिकार केवल सरकार को था। अन्य कोई भी नमक नहे बना सकता था। यदि कोई व्यक्ति नमक बनाये तो सरकार नमक जब्त कर सकती थी और से छह महीने की सजा दे सकती थी। नमक की कीमत के ऊपर 2400 प्रतिशत कर भी लगा दिया गया था।

अपने साप्ताहिक पत्र 'यंग इंडिया' में लिखते हुए गाँधीजी ने इस अन्याय की ओर संकेत किया। 'पानी के बाद नमक ही एक ऐसी चीज़ है जिस पर कर लगा कर सरकार लाखों भूखे, बीमार और असहाय लोगों तक पहुंच सकती है नमक एकाधिकार का परिणाम है विनाश - अर्थात उन हजारों स्थानों का बन्द होना जहां हजारों लोग अपने लिए नमक बनाते थे। वह सरकार गैर कानूनी है जो लोगों का नमक छीन कर, उस पर कर लगा कर फिर महंगी कीमत पर बेचती है। लोगों को पूरा अधिकार है कि जो उनका अपना है उसे वे ले लें।'

ब्रिटेन और भारत में बहुत से निःष्पक्ष अंग्रेज जानते थे कि नमक कानून न्याय संगत नहीं है। रामजे मैकडोनल्ड ने प्रधानमंत्री बनने से पहले नमक कानून की निन्दा की थी। इसी कानून का उल्लंघन करके गाँधीजी ने भारत की स्वाधीनता पाने की इच्छा को दुनिया के सामने व्यक्त किया। जल्दी ही सब इस बारे में बातें करने लगे थे।

गाँधीजी ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति से सहमति ले ली थी कि नमक सत्याग्रह आरम्भ किया जाए। इसका नियंत्रण और निर्देशन वही लोग करेंगे जो अहिंसा में विश्वास रखते हैं। उन्होंने कहा, 'मेरी आशा का आधार सत्य और अहिंसा ही हो सकता है। मुझे विश्वास है कि जब कोई अन्य तरीका काम नहीं करेगा तो इन सिद्धान्तों की विजय होगी।'

योजना यह थी कि गाँधीजी किसी स्थान पर जाकर नमक उठायेंगे और इस तरह नमक कानून तोड़ देंगे। वह अपने साथ साबरमती आश्रम से कुछ गिने-चुने लोग साथ ले जाने वाले थे। बाकी सब लोगों को गाँधीजी द्वारा नमक कानून तोड़ने की प्रतीक्षा करनी थी। उनका विचार था कि इसके बाद यह आन्दोलन फैलेगा।

उन्होंने कहा, 'हम विजय प्राप्त करेंगे या मिट जायेंगे। यदि हम मिट गये तो यह बात साम्राज्य की नव हिला देगी। यदि लोग पूछें कि अगर सरकार ने बम बरसाये तो क्या होगा, उसका उत्तर है, 'यदि निर्दोष आदमी, औरतें एवं बच्चे नष्ट होकर राख हो जाते हैं तो उस राख में से ऐसी आग भड़केगी जो सारे साम्राज्य को राख कर देगी।'

दक्षिण अफ्रीका से लौटकर गाँधीजी ने सन् 1915 में साबरमती के तट पर सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की थी। आरम्भ में आश्रम में केवल पच्चीस सदस्य थे और वे सब संयुक्त परिवार की तरह रहते थे। गाँधीजी ने इसे अपने सामाजिक प्रयोगों के लिये परीक्षणशाला और ऐसा स्थान बनाया जहां पर देश की सेवा के लिये स्वयंसेवक प्रशिक्षित किये जाते थे।

आरम्भ से ही वह अछूतों को, जिन्हें उन्होंने हरिजन नाम दिया था, आश्रम में ले लेते थे। उन्होंने शुरू से ही यह स्पष्ट कर दिया था कि वह छुआछूत की सामाजिक बुराई को कभी सहन नहीं करेंगे। सबका भोजन एक ही रसोईघर में बनता था और शौचालय तक सब स्वयं साफ करते थे - यह काम केवल हरिजनों के सुपुर्द नहीं था। उसी तरह सब आश्रमवासियों के लिये चर्खा कातना भी आवश्यक था।

गाँधीजी ने इस आश्रम का नाम सत्याग्रह आश्रम रखा था क्योंकि वह सत्याग्रह का वही तरीका जिसके द्वारा दक्षिण अफ्रीका में उन्हें बहुत सफलता मिली थी, यहां भी उपयोग में लाना चाहते थे। क्योंकि गाँधीजी आश्रम-वासियों के साथ ही रहते थे इसलिए सब अहिंसा और सत्याग्रह के बारे में उनके विचारों से भली भांति परिचित थे। इसलिये गाँधीजी ने निर्णय लिया कि जब वह नमक कानून का उल्लंघन करने जायेंगे तो उनके साथ केवल आश्रमवासी ही रहेंगे।

नमक सत्याग्रह आरम्भ करने से पहले गाँधीजी ने वाइसराय लार्ड अर्विन को एक पत्र लिखा। इसमें उन्होंने वाइसराय को 'प्रिय मित्र कह कर सम्बोधित किया और लिखाः 'असहयोग एवं सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू करने से पहले, जो खतरा लेने से मैं इतने वर्ष डरता रहा हूं मैं आपको कोई अन्य उपाय खोजने के लिए लिख रहा हूं। मेरा स्वयं का विश्वास बिलकुल स्पष्ट है। मैं जानबूझकर किसी जीवित प्राणी को चोट नहीं पहुंचा सकता, फिर इन्सानों की तो बात ही क्या, चाहे वे मुझे और मेरों को कितनी हानि क्यों न पहुंचायें। यद्यपि मैं भारत में अंग्रेजी शासन को शाप समझता हूं फिर भी मेरी इच्छा किसी भी अंग्रेज को हानि पहुंचाने की नहीं है। मैं ब्रिटिश शासन को शाप क्यों समझता हूं? ब्रिटिश शासन ने सैनिक और नागरिक प्रशासन की भयंकर खर्चीली व्यवस्था को हमारे ऊपर लादा है। इसने लगातार हमारा शोषण किया है और लाखों लोगों को गूंगा और कंगाल बना दिया है।

'इसने हमें राजनैतिक रूप से खरीदे हुए गुलाम बना दिया है और हमारी संस्कृति की आधार शिला ही हिला दी है। मुझे शंका है कि निकट भविष्य में भारत को स्वतंत्र उपनिवेश बनाने का आपका कोई इरादा नहीं है।

'मैं आपके सामने कुछ महत्वपूर्ण बातें रख रहा हूं' सारी राजस्व पद्धति का सुधार करना होगा। इसका ध्येय किसान का भला होना चाहिये। ब्रिटिश तरीका ऐसा है कि यह किसान का जीवन तत्व ही चूस लेता है। जीने के लिये जो नमक उसे चाहिए उस पर भी कर लगा दिया गया है। इसका सबसे अधिक बोझ उसी पर पड़ता है। यह कर गरीब आदमी को तब और भी अधिक खलता है जब उसे यह याद आता है कि वह इस चीज़ को अमीर से अधिक खाता है। शराब और गैर कानूनी चरस-अफीम का राजस्व भी गरीबों से ही अधिक आता है।

'ऐसे अन्याय जिनके उदाहरण ऊपर दिये गये हैं, हर समय किये जाते हैं जिससे दुनिया में सबसे महंगा विदेशी प्रशासन चलता रहे। आप अपने वेतन को ही देखिए जो 21,000 रुपये मासिक है। ब्रिटिश प्रधान मंत्री को 5000 पाऊंड वार्षिक मिलते हैं अर्थात 5,400 रुपये मासिक। आपको 700 रुपये प्रतिदिन मिलते हैं जबकि एक भारतीय की औसतन आय दो आना प्रतिदिन से भी कम है। ब्रिटिश प्रधान मंत्री को 180 रुपये प्रतिदिन मिलते हैं जबकि एक ब्रिटेनवासी की प्रतिदिन की औसत आय दो रुपये है। इस तरह आपकी आय एक भारतीय की औसत आय से पांच हजार गुना अधिक है। अंग्रेज प्रधान मंत्री की आय एक अंग्रेज की औसतन आय से केवल नब्बे गुना अधिक है। मैं घुटने टेक कर कहता हूं कि आप इस बात पर गौर करें।

'जो बात वाइसराय के वेतन के लिये सच है वह सारे प्रशासन के खर्च के लिये भी सच है। राजस्व में कमी करने का अर्थ है प्रशासन के खर्च में कमी - यह कमी मूलभूत सुधार लाकर की जाये।

'यदि भारत को एक राष्ट्र की तरह जीवित रहना है और यहां के लोगों का भूख से धीरेगधीरे मरना बन्द होना है तो कोई ऐसा उपाय ढूंढ़ना होगा जिससे उन्हें तत्काल राहत मिले।

'मेरे भीतर यह विश्वास जड़ पकड़ता जा रहा है कि केवल अहिंसा ही अंग्रेजी सरकार की संगठित हिंसा को रोक सकती है। यह अहिंसा हम असहयोग आन्दोलन द्वारा प्रकट करेंगे। अभी यह आन्दोलन साबरमती आश्रम के सदस्यों तक ही सीमित होगा लेकिन अंततः यह आन्दोलन जनता का आन्दोलन बनकर रहेगा और इसमें जो चाहे शामिल हो सकेगा।
'यदि मेरे इस पत्र ने आपके मर्मस्थल को न छूआ तो मेरी महत्वाकांक्षा यह है कि अंग्रेज लोगों को अहिंसा से बदल दूं और उन्हें दिखाऊं कि वे भारत के प्रति कितना बड़ा अन्याय कर रहे हैं।

'यदि आपने मेरे पत्र के उत्तर में इस महीने की 19 तारीख तक कोई प्रतिक्रिया न दिखाई तो मैं अपने आश्रम के साथियों के साथ आगे बढ़कर नमक कानून का उल्लंघन करूंगा। मैं गरीब आदमी के दृष्टिकोण से इस कर को सबसे ज्यादा अन्यायपूर्ण समझता हूं। स्वतंत्रता आन्दोलन इस देश के सबसे गरीब आदमी के लिये है सो मैं उसका आरम्भ इस बुराई से ही करूंगा। आीचर्य यह है कि हमने इस क्रूर एकाधिकार को इतने दिन तक पनपने दिया। मैं जानता हूं कि यह आपके हाथ में हैं कि आप मुझे गिरफ्तार करके इस योजना को पूरी न होने दें। लेकिन मुझे आशा है कि मेरे बाद हजारोंगलाखों लोग अनुशासित तरीके से इस काम को पूरा करने के लिये आगे बढ़ेंगे।

'यह पत्र धमकी के रूप में नहीं लिखा गया है बल्कि यह एक सत्याग्रही का सामान्य और पवित्र कर्तव्य है। इसलिये मैं इसको एक युवा अंग्रेज मित्र द्वारा, जो हमारे सत्याग्रह और अहिंसा की सत्यता में विश्वास करता है, भिजवा रहा हूं।'

सदा आपका सच्चा दोस्

एम.के. गांधी

यह पत्र लेकर जाने वाला युवा अंग्रेज रेजिनल्ड रेनाल्ड्स था जो इस समय साबरमती आश्रम में रह रहा था। खादी के कपड़े पहने और अपना सिर हैलमेट से ढके हुए (अंग्रेज होने के कारण उसे सूर्य की गरमी बहुत सताती थी) वह वाइसराय के यहां पत्र देने गया।

वाइसराय मेरठ से दिल्ली आया ही था। उसने पत्र का कोई उत्तर नहीं दिया। इसके बदले उसके सचिव ने लिखा 'महामना को यह जान कर खेद हुआ कि आप ऐसा रास्ता अपना रहे हैं जिससे स्पष्ट तौर पर कानून का उल्लंघन और जन शान्ति को खतरा होगा।'इस उत्तर से गाँधीजी उदास हो गये। उन्होंने लिखा 'मैंने घुटने टेक कर रोटी मांगी मगर मुझे पत्थर मिला। अंग्रेज जाति केवल शक्ति से ही डरती और उसके उत्तर में प्रतिक्रिया करना जानती है। इसलिये वाइसराय का पत्र पाकर मुझे विशेष आीचर्य नहीं हुआ। इस राष्ट्र की जनता केवल कारागार की शान्ति जानती है। मैं इस कानून का विरोध करता हूं। मैं इसे अपना पवित्र कर्तव्य मानता हूं कि इस अनिवार्य शान्ति को जो हमारी कौम का गला घोट रही है, को तोड़ना ही ठीक है।'

लार्ड अर्विन ने गाँधीजी को मिलने से इंकार कर दिया। लेकिन उसने गाँधीजी की गिरफ्तारी का भी आदेश नहीं दिया। गाँधीजी ने टिप्पणी की, 'सरकार परेशान और उलझन में है।'

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