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उध्दरणोंके स्त्रोत

मई

मई 1

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प्रार्थना प्रातःकालका  आरम्भ है और संध्याका अन्त है

यं.इं.,23-1-’30


मई 2

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जिस प्रकार भोजन शरीरके लिए आवश्यक है, उसी प्रकार प्रार्थना आत्माके लिए आवश्यक है । मनुष्य भोजनके बिना जो कई दिनों तक जीवित रह सकता है-जैसे मैक्स्विनी 70 दिनसे अधिक जीवित रहा - परन्तु ईश्वरमें श्रध्दा रखनेवाला मनुष्य प्रार्थनाके बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रह सकता, उसे नहीं रहना चाहिये

यं.इं.,15-12-’27


मई 3

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प्रार्थनाके लिए वाणीकी जरूरत नहीं होती । वह स्वाभावसे ही अदभुत वस्तु है । इस बारेमें मुझे जरा भी शंका नहीं कि हार्दिक उपासना विकाररूपी मलको शुध्द करनेके लिए रामबाण उपाय है । परन्तु इस प्रसादीके लिए हममें संपूर्ण नम्रता होनी चाहिये

आ. क., पृ. 69


मई 4

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मैं आपके सामने कुछ मेरा अपना और अपने साथियोंका अनुभव रखता हूँ, जब मैं यह कहता हूँ कि जिसने प्रार्थनाके जादूका अनुभव किया है वह लगातार कई दिनों तक भोजनके बिना तो रह सकता है, परन्तु प्रार्थनाके बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता; क्योंकि प्रार्थनाके बिना आंतरिक शांति नहीं मिल सकती

यं.इं.,23-1-’30


मई 5

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किसी पवित्र ध्येयमें कभी पराजय स्वीकार न कीजिये और आजसे यह दृढ़ निश्चय कर लिजिये कि आप शुध्द और पवित्र रहेंगे और आपको ईश्वरकी ओरसे उत्तर मिलेगा – ईश्वर आपकी प्रार्थना जरूर सुनेगा । परन्तु ईश्वर अहंकारीकी प्रार्थना कभी नहीं सुनता, न उन लोगोंकी प्रार्थना सुनता है, जो उसके साथ सौदा करते हैं

यं.इं.,4-4-’29


मई 6

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मैं अपना सबूत दे सकता हूँ और कह सकता हूँ कि हार्दिक प्रार्थना निश्चित ही ऐसा सर्वोच्च शक्तिशाली साधन है, जिसकी सहायतासे मनुष्य अपनी कायरता परऔर दूसरी पूरानी बुरी आदतों पर विजय पा सकता है । अपने भीतर विराजमान ईश्वरमें जीवित श्रध्दा हुए बिना प्रार्थना असंभव है

यं.इं., 20-12-’28


मई 7

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बड़ेसे बड़े अपवित्र या पापी मनुष्यकी प्रार्थना भी सुनी जायगी । यह बात मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव परसे कहता हूँ मैं इस आध्यात्मिक प्रायश्चित्तकी प्रक्रियामें से गुजर चुका हूँ । सबसे पहले ईश्वरके राज्यकी खोज करो; और बादमें हर चीज तुम्हें मिल जायगी

यं.इं.,4-4-’29


मई 8

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जब तक हम अपने आपको शून्यवत् नहीं बना लेते, तब तक हम आपने भीतरकी बुराईको जीत नहीं सकते । एकमात्र प्राप्त करने योग्य सच्ची स्वतंत्रताके मूल्यके रूपमें ईश्वर मनुष्यसे सम्पूर्ण आत्म-समर्पणसे कम किसी वस्तुकी मांग नहीं करता । और जब मनुष्य इस तरह अपने आपको खो देता है, तो तुरन्त ही वह अपनेको ईश्वरके सब प्राणियोंकी सेवामें लगा  हुआ पाता है । वह सेवा ही उसके जीवनका आनन्द और उसका मानेरंजन बन जाती है । वह बिलकुल नया आदमी बन जाता है और ईश्वरकी सृष्टिकी सेवामें अपने आपको खपानेमें कभी थकान महसूस नहीं करता

यं.इं.,20-12-’28


मई 9

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हमारी प्रार्थना आत्म-निरीक्षणकी क्रिया है । वह हमें इस बातकी याद दिलाती है कि ईश्वरकी सहायता, उसके सहारेके बिना हम लाचार और निराधार हैं । हमारा कोई भी प्रयत्न प्रार्थनाके बिना – इस वस्तुको निश्चित रूपसे स्वीकार किये बिना पूरा नहीं होता कि मानवके उत्तम प्रयत्नका भी तब तक कोई फल नहीं आता जब तक उसके पीछे भगवानका आशीर्वाद न हो । प्रार्थना नम्रताकी पुकार है; वह आत्मशुध्दिकी, आन्तरिक निरीक्षणकी पुकार है

ह., 8-6-’31


मई 10

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व्यक्तिकी योग्यता और क्षमाताकी मर्यादायें होती हैं । जिस क्षण वह ऐसा विश्वास करने लगता है कि मैं सारे कार्य हाथमें ले सकता हूं, उसी क्षण  भगवान उसके इस अभिमानको मिटा देता है

यं.इं.,12-3-’31


मई 11

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मनुष्य स्वभावसे गलती करनेवाला प्राणी है । वह निश्चित रूपसे यह कभी नहीं कह सकता कि उसके कदम सही दिशामें ही उठ रहे हैं । जिसे वह अपनी प्रार्थनाका उत्तर समझता है, वह उसके अहंकारकी प्रतिध्वनि भी हो सकती है । अचूक मार्गदर्शनके लिए मनुष्यके पास ऐसा पूर्ण निर्दोष हृदय होना चाहिये, जो कभी पाप कर ही नहीं सकता

यं.इं.,25-9-’24


मई 12

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प्रत्येक मनुष्य करे और आपने अनुभवसे देखे कि दैनिक प्रार्थनाके फलस्वरूप वह अपने जीवनमें कुछ नया जोड़ता है  - कोई ऐसी वस्तु ज़ेडता है, जिसके साथ दुनियाकी किसी भी वस्तुकी तुलना नहीं की जा सकती

यं.इं.,24-9-’31


मई 13

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कुछ ऐसे विषय भी होते हैं, जिनमें हमारी बुध्दि हमें बहुत दूर तक नहीं ले जा सकती; और हमें उनसे सम्बन्ध रखनेवाली बातोंको श्रध्दासे स्वीकार कर लेना पड़ता है । उस स्थितिमें श्रध्दा बुध्दिका विरोध नहीं करती, परन्तु उससे ऊँची उठ जाती है । श्रध्दा एक प्रकारकी छठी इन्द्रिय है; वह ऐसे विषयोंमें काम करती है, जा बुध्दिकी सीमासे बाहर होते हैं

ह., 6-3-’37


मई 14

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श्रध्दाके अभावमें यह विश्व एक क्षणमें नष्ट हो जायगा । सच्ची श्रध्दाका अर्थ है ऐसे लोगोंके ज्ञानपूर्ण अनुभवका उपयोग करना, जिनके बारेमें हमारा यह विश्वास है कि उन्होंने प्रार्थना और तपस्यासे शुध्द ओर पवित्र बना हुआ जीवन बिताया है । इसलिए ऐसे पैगम्बरों या अवतारोंमें, जो अति प्रचीन कालमें हो गये हैं, विश्वास रखनेका अर्थ निरर्थक अन्धविश्वास नहीं है, परन्तु एक गहनतम आध्यात्मिक अभिलाषाकी तृप्ति है ।

यं.इं.,14-4-’27


मई 15

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बिना श्रध्दावाला मनुष्य महासागरसे बाहर फेंके  हुए बिन्दुके समान है, जो निश्चित रूपसे नष्ट होनेवाला है । महासागरके  भीतरका हर बिन्दु महासागरकी भव्यताका सहभागी होता है और हमें जीवनप्रद देनेका गौरव प्राप्त करता है ।

ह.,25-4-’36


मई 16

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श्रध्दा हृदयका कार्य है । बुध्दिकी सहायतासे उसे शक्तिशाली बनाना चाहिये। जैसा कि कुछ लो सोचते हैं, श्रध्दा और बुध्दि एक-दूसरेकी विरोधिनी नहीं हैं । मनुष्यकी श्रध्दा जितनी अधिक तीव्र होती है, उतनी ही अधिक वह मनुष्यकी बुध्दिको पैनी और प्रखर बनाती है । जब श्रध्दा अन्धी हो जाती है तब वह मर जाती है ।

ह., 6-4-’40


मई 17

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श्रध्दा ही हमें सुरक्षित रूपमें तुफानी समुद्रोंके पार ले जाती है, श्रध्दा ही पर्वतोंको हिला देती है और श्रध्दा ही महासागरको कूद कर पार कर जाती है । वह श्रध्दा हमारे भीतर बसे हुए ईवरके जीवित और पूर्णतया जाग्रत भानके सिवा और कुछ नहीं है । जिसने वह श्रध्दा प्राप्त कर ली है, उसे और कुछ नहीं चाहिये । शरीरसे रोगग्रस्त होते हुए भी आध्यात्मिक दृष्टिसे वह पूर्ण स्वस्थ है, भौतिक दृष्टिसे गरीब होते हुए भी आध्यात्मिक समृध्दिसे उसका भंडार भरा रहता है ।

यं.इं.,24-9-’25


मई 18

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मैं तो श्रध्दालु मनुष्य हूँ । मेरा आधार केवल उस ईश्वर पर है । मेरे लिए एक कदम काफी है । अगला कदम, जब उसका समय आयेगा, ईश्वर मुझे स्पष्ट रूपमें  बता देगा ।

ह., 20-10-’40


मई 19

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उस श्रध्दाका कोई मूल्य नहीं है, जो केवल सुखके समयमें ही पनपती है । सच्चा मूल्य तो उसी श्रध्दाको है, जो कड़ीसे कड़ी कसौटीके समय भी टिकी रहे । यदि आपकी श्रध्दा सारी दुनियाकी निन्दाके सामने भी अडिग खड़ी न रह सके, तो वह निरा दंभ और ढोंग है ।

यं.इं.,24-4-’29


मई 20

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श्रध्दा ऐसा सुकुमार फूल नहीं है, जो हलकेसे हलके तूफानी मौसममें भी कुम्हला जाय। श्रध्दा तो हिमालय पर्वतके समान है, जो कभी डिग ही नहीं, सकती । कैसा भी भयंकर तूफान हिमालय पर्वतको बुनियादसे हिला नहीं सकता । ...मैं चाहता हूँ कि आपमें से प्रत्येक मनुष्य ईश्वर और धर्मके विषयमें वैसी ही अचल श्रध्दा अपने भीतर बढ़ावे ।

ह.,26-1-’34


मई 21

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अगर हमारे भीतर श्रध्दा है, अगर हमारा हृदय प्रार्थनामय है, तो हम ईश्वरके सामने कोई प्रलोभन नहीं रखेंगे, उसके साथ कोई सौदा नहीं करेंगे । हमें अपनेको शून्यवत् बना लेना चाहिये ।

यं.इं.,22-12-’28


मई 22

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प्रत्येक भौतिक संकटके पीछे कोई ईश्वरीय हेतु होता है । यह बिलकुल संभव है कि आज जैसे विज्ञान हमें सूर्य-ग्रहण या चन्द्र-ग्रहणके बारेमें पहलेसे बता देता है, वेसे ही पूर्णताको पहुँचा हुआ विज्ञान हमें यह भी पहलेसे बता दे कि भूकंप कब होगा । वह मानव-मस्तिष्ककी एक और बड़ी विजय होगी । परन्तु ऐसी विजयें अमर्यादित रूपमें ही क्यों न बढ़ जायँ, वे हमारी आत्मशुध्दि नहीं कर सकतीं, जिसके बिना किसी भी वस्तुका कोई मूल्य नहीं है ।

ह.,8-6-’35


मई 23

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हमारा इहलोकका यह जीवन कांचकी उन चूड़ियोंकी अपेक्षा अधिक जल्दी टूटनेवाला है, जो स्त्रियाँ पहनती हैं । आप कांचकी चूछियोंको हजारों वर्ष तक बिना टूटे रख सकते हैं, यदि आप उन्हों एक पेटीमें सुरक्षित रखे और उन्हे कभी न छुएँ । परन्तु यह पार्थिव जीवन इतना अस्थायी और नाशवान है कि एक क्षणमें इस धरतीसे मिट सकता है । इसलिए जीवनके जितने भी दिन हमें मिले हैं, उन दिनोंमे हम ऊंच-नीचके भेदेंसे मुक्त हो जायँ, अपने हृदयोंको शुध्द बना लें और जब कोई भूकंप, कोई  कुदरती संकट या साधारण क्रममें मृत्यु हमें इस संसारसे उठा ले, उस समय ईश्वरके सामने खड़े होकर अपने कामोंका हिसाब देनेके लिए तैयार रहें ।

ह.,2-2-’34


मई 24

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मृत्यु, जो शाश्वत सत्य है, उसी प्रकार एक क्रान्ति जिस प्रकार जन्म और उसके बादका जीवन एक धीमा और स्थिर विकास है । मनुष्यके विकासके लिए मृत्यु उतनी ही आवश्यक है जितना कि स्वयं जीवन ।

यं.इं.,2-2-’22


मई 25

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मृत्यु कोई राक्षसी नहीं है; वह हमारी सच्चीसे सच्ची मित्र है। वह हमें यातनाओं और पीड़ाओंसे मुक्त करती है । वह हमारी इच्छाके विरुध्द हमारी मदद करती है । वह हमें सदा नये अवसर, नयी आशयें प्रदान करती है । मीठी नींदकी तरह हममें फिरसे नयी शक्ति  और नये जीवनका संचार करती है ।

यं.इं.,20-12-’26


मई 26

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यह मेरे मनमें सूर्यके प्रकाशकी तरह स्पष्ट है कि जीवन और मरण उसी एक वस्तुके केवल दो पहलू हैं - एक ही सिक्केकी सीधी और उलटी बाजुएँ हैं । सचमुच संकट और मृत्यु मेरे सामने सुख या जीवनकी अपेक्षा कहीं अधिक समृध्द और सम्पन्न पहलू पेश करते हैं । कड़ी कासौटियों, संकटों और दुःखेंके बिना, जो जीवनको स्वस्थ और प्राणवान बनाते हैं, जीवनका क्या मूल्य रह जाता है?

यं.इं.,12-3-’30


मई 27

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मेरा धर्म मुझे सिखाता है कि जब कभी जीवनमें ऐसा संकट आवे जिसे हम दूर न कर सकें तब हमें उपवास ओर प्रार्थना करनी चाहिये ।

यं.इं.,25-9-’24


मई 28

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उपवास और प्रार्थनाके समान शक्तिशाली वस्तु दुनियामें और कोई नहीं है । उनमे हमारे जीवनमें आवश्यक अनुशासन पैदा होता है, आत्मत्यागकी भावना बढ़ती है तथा नम्रता और संकल्पकी दृढ़ता उत्पन्न होती है, जिनके बिना हमारी सच्ची प्रगति नहीं हो सकती ।

यं.इं.,31-3-’20


मई 29

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'उपवास सत्याग्रहके शस्त्रागारका एक अत्यन्त शक्तिशाली हथियार है । हरकोई उपवास नहीं कर सकता। उपवास करनेकी केवल शारीरिक शक्ति होना ही उपवासके लिए मनुष्यकी योग्यताकी कसौटी नहीं है । ईश्वरमें सजीव श्रध्दा न हो, तो उपवाससे कोई लाभ नहीं होता । उपवास न तो केवल यांत्रिक प्रयत्न बनना चाहिये और न निरा अनुकरण होना चाहिये । उसकी प्रेरणा हमारी आत्माकी गहराईमें से मिलनी चाहिये ।

इं.,18-3ö’39


मई 30

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मनुष्य स्वास्थ्यके नियमोंके अनुसार स्वास्थ्य सुधारनेके लिए उपवास करता है । वह अपनेसे होनेवाले अन्यायके प्रायश्चित्तके रूपमें भी उपवास करता है, जब उसे अपने अन्यायकी प्रतीति हो जाती है । इन उपवासोंमें उपवासीका अहिंसामें श्रध्दा रखना जरूरी नहीं है । परन्तु एक ऐसा भी उपवास होता है, जिसे समाजके किसी अन्यायके खिलाफ करना कभी कभी अहिंसाके पुजारीका पवित्र कर्तव्य हो जाता है; और यह उपवास वह तभी करता है, जब अहिंसाके पुजारीके नाते उसके सामने अन्यायको मिटानेका दूसरा कोई उपाय नहीं रह जाता ।

दि.डा.,पृ.330


मई 31

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सम्पूर्ण उपवास सम्पूर्ण और सच्चा आत्मत्याग है । वह सच्चीसे सच्ची प्रार्थना है । ‘ प्रभो, मेरा जीवन तुझे ही समर्पित है; तू मेरे सम्पूर्ण जीवनको सदा केवल तेरे ही लिए रहने दे ’ - यह प्रार्थना केवल मौखिक अथवा आलंकारिक अभिव्यक्ति नहीं है, नहीं होनी चाहिये । यह आत्म-समर्पण परिणामकी चिन्तासे मुक्त, पूर्ण शुध्द और आनन्दमय होना चाहिये ।  भोजनका और पानीका भी  त्याग केवल इसका आरम्भ ही है - आत्म-समर्पणका छोटेसे छोटा अंश है ।

ह.,13-4-’33


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