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10. ्रह्मचर्य

ब्रह्मचर्यका मूल अर्थ है ब्रह्मकी प्राप्तिके लिए चर्या । संयमके बिना ब्रह्म मिल ही नहीं सकता । संयममे सर्वोपरि स्थान इन्द्रियनिग्रहका है । ब्रह्मचर्यका सामान्य अर्थ स्त्री-संगका त्याग और वीर्य-संग्रहकी साधना समझा जाता है । सब इन्द्रियोंका संयम करनेवालेके लिए वीर्य-संग्रह सहज और स्वाभाविक क्रिया हो जाती है । स्वाभाविक रीतिसे किया हुआ वीर्य-संग्रह ही इच्छित फल देता है । ऐसा ब्रह्मचारी क्रोधादिसे मुक्त होता है । सामान्यत जो लोग ब्रह्मचारी कहे जाते हैं, वे क्रोधी और अहंकारी देखनेमें आते हैं, मानो उन्होंने क्रोध और अभिमान करनेका ठेका ही ले लिया हो ।

यह भी देखनेमें आता है कि जो ब्रह्मचर्य-पालनके सामान्य नियामोंकी अवगणना करके वीर्य-संग्रह करनेकी आशा रखते हैं, उन्हें निराश होना पड़ता है; और कुछ तो दीवाने-जैसे बन जाते हैं । दूसरे निस्तेज देखनेमें आते हैं । वे वीर्य-संग्रह नहीं कर सकते और केवल स्त्री-संग न करनेमें सफल हो जाने पर आपने आपको कृतार्थ समझते हैं । स्त्री-संग न करनेसे ही कोई ब्रह्मचारी नहीं बन जाता । जब तक स्त्री-संगमें रस रहता है; तब तक ब्रह्मचर्यकी प्राप्ति नहीं कही जा सकती । जो स्त्री या पुरूष इस रसको जला सकता है, उसीके बारेमें कहाजा सकता है कि उसने अपनी जननेन्द्रिय पर विजय प्राप्त कर ली है । उसकी वीर्यरक्षा इस ब्रह्मचर्यका वाणीमें, विचारमें और आचारमें एक अनोखा प्रभाव देखनेमें आता है ।

ऐसा ब्रह्मचर्य स्त्रियोंके साथ पवित्र संबन्ध रखने से या उनके आवश्यक स्पर्शसे भंग नहीं होगा । ऐसे ब्रह्मचारीके लिए स्त्री और पुरुषका भेद मिट-सा जाता है । इस वाक्य का कोई अनर्थ न करे । इसका उपयोग स्वेच्छाचार का पोषण करनेके लिए कभी नहीं होना चाहिये । जिसकी विषयासक्ति जलकर ख़ाक हो गई है, उसके मनमें स्त्री-पुरुषका भेदमिट जाता है, मिट जान चाहिये । उसकी सौंदर्यकी कल्पना भी दूसरा ही रूप ले लेती है । वह बाहरके आकारको देखता ही नहीं । जिसका आचार सुन्दर है, वही स्त्री या पुरुष सुन्दर है । इसलिए सुन्दर स्त्री को देखकर वह विह्बल नहीं बन जायेगा । उसकी जननेन्द्रिय भी दूसरा रूप ले लेगी, अर्थात् वह सदाके लिए विकार-रहित बन जायेगी । ऐसा पुरुष वीर्यहीन होकर नपुंसक नहीं बनेगा, मगर उसके वीर्यका परिवर्तन होनेके कारण वह नपुंसक नहीं बनेगा, मगर उसके वीर्यका परिवर्तन होनके कारण वह नपुंसक-सा लगेगा । सुना है कि नपुंसकके रस जलते नहीं । मुझे पत्र लिखनेवालोंमें से कईने इस बातकी साक्षी दी है कि वे चाहते तो हैं कि उनकी जननेन्द्रिय जाग्रत हो, मगर वह होती नहीं । फिर भी वीर्य-स्खलन हो जाता है । उनमें विषय-रस तो रहता ही है । इसलिए वे अन्दर जला करते हैं । ऐसा पुरुष-रस तो रहता ही है । इसलिए वे अन्दर ही अन्दर जला करते हैं । ऐसा पुरुष क्षीणवीर्य होकर नपुंसक हो गया है, या नपुंसक होनेकी तैयारी कर रहा है । यह दयनीय स्थिति है । परन्तु जो रस मात्रके भस्म हो जानेसे ऊध्वरिता हो गया है, उसका ‘नपुंसकत्व' बिलकुल अलग ही किस्मका होता है । वह सबके लिए इष्ट है । ऐसे ब्रह्मचर्य-पालनाका व्रत 1906 में लिया था, अर्थात् मेरा इस दिशामें छत्तीस वर्षका प्रयत्न है । परन्तु मैं ब्रह्मचर्यकी अपनी व्याख्याको पूर्णतया पहुंच नहीं सका हूँ । तो भी मेरी दृष्टिसे इस दिशामें मेरी अच्छी प्रगति हूई है और ईश्वरकी कृपा  होगी तो पूर्ण सफलता भी शायद यह देह छूटनसे पहले मिले जाय । अपने प्रयत्नमें मैं कभी ढीला नहीं पडा । मैं इतना जानता हूँ कि ब्रह्मचर्यकी आवश्यकताके बारेमें मेरे विचार ज्यादा दृढ बने हैं । मेरे कुछ प्रयोग समाजके सामने रखनेकी स्थितिको प्राप्त नहीं हुए हैं । मुझे सन्तोष हो इस हद तक अगर वे सफल हो जायेंगे, तो मैं उन्हें समाजके सामने रखनेकी आशा रखता हूँ; क्योंकि मैं मानता हूँ उनकी सफलतासे पूर्ण ब्रह्मचर्य शायद अपेक्षाकृत सरल बन जायेगा ।

इस प्रकरणमें जिस ब्रह्मयर्च पर मैं जोर देना चाहता हूँ, वह वीर्य-रक्षण तक ही सीमित है । पूर्ण ब्रह्मचर्यका अमोघ लाभ उससे नही मिलेगा, तो भी उसकी कीमत कुछ कम नहीं है ।


(11-12-’42)

उसके बिना, पूर्ण ब्रह्मचर्य असंभव है । और उसके बिना, पूर्ण आरोग्यकी रक्षा भी अशक्य-सी समझना चाहिये ।  जिस वीर्यमें दूसरे मनुष्यको पैदा करनेकी शक्ति है, उस वीर्यका व्यर्थ स्खलन होने देना महान अज्ञानकी निशानी है । वीर्यका उपयोग भोगके लिए नहीं, परन्तु केवल प्रजोत्पत्तिके लिए है, यह हम पूरी तरह समझ लें तो विषयासक्ति के लिए जीवनमें कोई स्थान ही न रह जायेगा । स्त्री-पुरुष-संगके खातिर नर-नारी दोनों जिस तरह आज अपना सत्यानाश करते हैं, वह बंद हो जायगा, विवाहका अर्थ ही बदल जायगा और उसका जो स्वरूप आज देखनेमें आता है, उसकी तरफ हमारे मनमें जिरस्कार पैदा होगा । विवाह स्त्री-पुरुषके बीच हार्दिक और आत्मिक ऐक्यकी निशानी होना चाहिये । विवाहित स्त्री-पुरुष यदि प्रजोत्पत्तिके शुभ हेतुके बिना कभी विषय-भोगका विचार तक न करें तो वे पूर्ण ब्रह्मचारी माने जानेके लायक हैं । ऐसा भोग दोनोंकी इच्छा होने पर ही हो सकता है । वह आवेशमें आकर नहीं होगा, कामाग्निकी पृप्तिके लिए तो कभी नहीं । मगर उसे कर्तव्य मानकर किया जाय, तो उसके बाद फिर भोगकी इच्छा भी पैदा नहीं होनी चाहिये । मेरी इस बातको कोई हास्यास्पद न समझे । पाठकोंको याद रखना चाहिये कि छत्तीस वर्षके अनुभवके बाद मैं यह सब लिख रहा हूँ । मैं जानता हूं कि जो कुछ मैं लिख रहा हूँ, वह सामान्य अनुभवसे उलटा है । ज्यों-ज्यों हम सामान्य अनुभवसे आगे बढ़ते हैं, त्यों-त्यों हमारी प्रगति होती है । अनेक अच्छी-बूरी शोधें सामान्य अनुभवके विरुध्द जाकर ही हो सकी है । चकमकसे दियासलाई और दियासलाईसे बिजलीकी शोध इसी एक च़ीजकी आभारी है । जो बात भौतिक वस्तु पर लागू होती है, वहीं आध्यात्मिक पर भी लागू होती है । पूर्वकालमें विवाह-जैसी कोई वस्तु थी ही नहीं । स्त्री-पुरुषके भोग और पशुओंके भोगमें कोई फरक न था । संयम-जैसी कोई वस्तु थी ही नहीं । कई साहसी लोगोंने सामान्य अनुभवसे बाहर जाकर संयम-धर्मकी शोध की । संयम-धर्म कहां तक जा सकता है; इसका प्रयोग करनेका हम सबका अधिकार है । और ऐसा करना हमारा कर्तव्य भी है । इसलिए मेरा कहना यह है कि मनुष्यका कर्तव्य स्त्री-पुरुष संगको मेरी सुझाई हुई उच्च कक्षा तक पहुँचानेका है । यह हंसीमें उड़ा देने जैसी बात नहीं है । इसके साथ ही मेरी यह भी सूचना है कि यदि मनुष्य-जीवन जैसा गढ़ा जान चाहिये वैसा गढ़ा याय तो वीर्य-संग्रह स्वाभाविक वस्तु हो जानी चाहिये ।

नित्य उत्पन्न होनेवाले अपने वीर्यका हमें अपनी मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक शक्तिको बढ़ानेमें उपयोग करना चाहिये । जो ऐसा करना सीख लेता है, वह प्रमाणमें बहुत कम ख़ुराकसे अपना शरीर बना सकेगा । अल्पाहारी होते हुए भी वह शारीरिक श्रममें किसीसे कम नहीं रहेगा । मानसिक श्रममें उसे कमसे कम थकान लगेगी । बुढापेके सामान्य चिह्न ऐसे ब्रह्मचारीमें देखनेको नही मिलेंगे । जैसे पका हुआ पत्ता या फल वृक्षकी टहनी परसे सहज ही गिर पड़ता है, वैसे ही समय आने पर मनुष्यका शरीर सारी शक्तियां रखते हुए भी गिर जायेगा । ऐसे मनुष्यका शरीर समय बीतने पर देखनें में भले क्षीण लगे, मगर उसकी बुध्दिका तो क्षय होनेके बदले नित्य विकास ही होना चाहिये । ये चिह्न जिसमें देखनेमें नहीं आते, उसके ब्रह्मचर्यमें उतनी कमी समझनी चाहिये । उसने वीर्य-संग्रहकी कला हस्तगत नहीं ही है । यह सब सच हो- और मेरा दावा है कि सच है- तो आरोग्यकी सच्ची कुंजी वीर्य- संग्रहमें है ।

वीर्य-संग्रहके जो थोडे-बहुत नियम मैं जानता हूँ, उन्हें यहां देता हूँ;

(12-12-’42)

1. विकारमात्रकी जड विचारमें है । इसलिए विचारों पर हमें काबू पाना चाहिये । इसका उपाय यह है कि मनको कभी खाली रहने ही न दिया जाय; उसे अच्छे और उपयोगी विचारोंसे पूर्ण रखा जाय । अर्थात् हम जिस काममें लगे हों उसकी चिन्ता न करके यह विचार करें कि कैसे उसमें निपुणता पायी जा सकती है, और उस पर अमल करें । विचार और उसका अमल विकारोंको राकेगा । परन्तु हर समय काम नहीं होता । मनुष्य थकता है, उसका शरीर आराम चाहता है । रातमें जब नींद नही आती तब विकारोंका हमला हो सकता है । ऐसे प्रसंगोंके लिए सर्वोपरि साधन जप है । भगवानका जिस रूपमें अनुभव किया हो, या अनुभव करनेकी धारणा रखी हो, उस रूपको हृदयमें रखकर उस नामका जप किया जाय । जप चल रहा हो तब दूसरा कोई विचार मनमें नहीं होना चाहिये । यह एक आदर्श स्थिति है । वहां तक हम न पहुँच सके और अनेक विचार बिना बुलाये चढ़ाई किया करें, तो उनसे हारना नहीं चाहिये, परन्तु श्रध्दापूर्वक जप जपते रहाना चाहिये; ऐसा करेंगे तो ज़रूर हमें विजय मिलेगी ।

2. विचारोंकी तरह वाणी और वाचन भी विकारोंको शान्त करनेवाले होने चाहिये । जिसको बीभत्स विचार नहीं आते, उसके मुंहसे बीभत्स वचन निकल ही नहीं सकते । विषयोंका पोषण करनेवाला क़ाफी साहित्य पड़ा हुआ है । उसकी तऱफ मनको कभी जाने नहीं देना चाहिये । सदग्रंथ या पने कामसे सम्बन्ध रखनेवाले गंथ पढ़ने चाहिये और उनका मनन करना चाहिये । गणितादिका यहां बड़ा स्थान है । यह तो स्पष्ट है कि जो मनुष्य विकारोंका सेवन नहीं करना चाहता, वह विकारोंका पोषण करनेवाले धंधेका त्याग करेगा ।

3. जैसे मनको काममें लगाये रखनेकी आवश्यकता है, वैसे ही शरीरको भी काममें लगाये रखना ज़रूरी है । यहां तक कि रात पडने तक मनुष्यको इस कदम मीठी थकान चढ जाय कि बिस्तार पर पडते ही वह तुरन्त निद्रावश हो जाय । ऐसे स्त्री-पुरुषोंकी नींद शान्त और नि:स्वप्न होती है । जितना समय खुलमें मेहनत करनेको मिले, उतना ही अच्छा है । जिन्हें ऐसी मेहनत करनेको न मिले, उन्हें अचूक रूपसे कसरत करनी चाहिये । उत्तमसे उत्तम कसरत है खुली हवामें तेजीसे घूमना । घूमते समय मुंह बन्द होना चाहिये और नाकसे ही श्वास लेना चाहिये । चलते, बैठना या चलना आलस्यकी निशानी है । आलस्यमात्र विकारका पोषक होता है । आसन भी इसमें उपयोगी सिध्द होते हैं । जिसके हाथ, पैर, आंख, कान, नाक, जीभ इत्यादि इन्द्रियां अपने योग्य कार्य योग्य रीतिसे करती है, उसकी जननेन्द्रिय कभी उपद्रव करती ही नहीं । मैं आशा रखता हूँ कि मेरे इस अनुभव-वाक्यको सब कोई मानेंगे ।

4. जैसा आहार वैसा ही आकार । जो मनुष्य अत्याहारी है, जो मनुष्य आहारमें कोई विवेक या मर्यादा ही नहीं रखता, वह अपने विकारोंका गुलाम है । जो स्वादको नहीं जीत सकता, वह कभी भी जितेन्द्रिय नहीं हो सकता । इसलिए मनुष्यको युक्ताहारी और अल्पाहारी बनना चाहिये । शरीर आहारके लिए नहा । आहार शरीरके लिए है । शरीर आपने-आपको पहचाननेके लिए हमें मिला है । अपने-आपको पहचानना अर्थात् ईश्वरको पहचानना । इस पहचानको जिसने अपना परम विषय बनाया है, वह विकारवश नहीं होगा ।

5. प्रत्येक स्त्री को माता, बहन या पुत्रीकी तरह देखना चाहिये । कोई पुरुष अपनी मां, बहन या पुत्रीको कभी विकारी दृष्टिसे नहीं देखेगा । स्त्री प्रत्येक पुरुषकी अपने पिता, भाई या पुत्रकी तरह देखे ।

इन पांच नियमोंमें सब नियमोंका समावेश हो जाता है । अपने दूसरे लेखोंमें मैंने इससे अधिक नियम दिये हैं । मगर उन सबका समावेश इन पांचमें हो जाता है । इन नियामोंका पालन करनेवालेके लिए महान विकारको जीतना बहुत सरल हो जाना चाहिए । जिसे ब्रह्मचर्य-व्रतके पालनकी लगन लगी हैं, वह ऐसा मानकर कि यह तो असंभव बात है या यह मानकर कि इसका पालन करोड़ोंमें कोई बिरले ही कर सकते हैं, अपना प्रयत्न नहीं छोड़ेगा । जो रस ब्रह्मचर्यके पालनमें है, वह दूसरी किसी च़ीजमें नहीं है । और जो मनुष्य विकारका गुलाम है, उसका शरीर सर्वथा निरोग नहीं रह सकता ।

कृत्रिम उपाय:  अब कृत्रिम उपायोंके विषयमें कुछ कह दूँ । विषय-भोग करते हुए भी कृत्रिम उपायोंके द्वारा प्रजोत्पत्ति रोकनेकी प्रथा पुरानी है । मगर पूर्वकालमें वह गुप्त रूपमें चलती थी । आधुनिक सभ्यताके इस जमानेमें उसे ऊंचा स्थान मिला है और कृत्रिम अपायोंकी रचना भी व्यवस्थित तऱीकेसे की गयी है इस प्रथाको परमार्थका जामा पहनाया गया है । इन उपायोंके हिमायती कहते हैं कि भोगेच्छा  तो स्वाभाविक वस्तु है, शायद उसे ईश्वरका वरदान भी कहा जा सकता है । उसे निकाल फेंकना अशक्य है । उस पर संयमका अंकुश रखना कठिन है । और अगर संयमें सिवा दूसरा कोई उपाय न ढूंढ़ा जाय, तो असंख्य स्त्रियोंकेलिए प्रजोत्पत्ति बोझरूप हो जायगी; और भोगसे उत्पन्न होनेवाली प्रजा इतनी बढ जायगी कि मनुष्य-जातिके लिए पूरी ख़ुराक ही नहीं मिल सकेगी ।

इन दो आपत्तियोंको रोकनेके लिए कृत्रिम उपायोंकी योजना करना मनुष्यका धर्म हो जाता है । किन्तु मुझ पर इस दलीलका असर नहीं हुआ है, क्योंकि इन उपायोंके द्वारा मनुष्य अनेक दूसरी मुसीबतें मोल ले लेता है । मगर सबसे बड़ा नुकसान तो यह है कि कृत्रिम उपायोंके प्रचारसे संयम-धर्मका लोप हो जानेका भय पैदा होगा । इस रत्नको बेचकर चाहे जैसा तात्कालिक लाभ मिले, तो भी यह सौदा करने योग्य नहीं है । मगर यहां मैं दलीलमें नहीं उतरना चाहता । जिज्ञासुको मेरी सलाह है कि वह ‘अनीतिकी राह पर'* नामक मेरी पुस्तक पढ़ें और उसका मनन करें । बादमें जैसा उसका हृदय और बुध्दि कहे वैसा करें । जिन्हे यह पुस्तक पढ़नेकी इच्छा या अवकाश न हो, वे भूलकर भी कृत्रिम उपयोंके ऩजदिक न फटकें । वे विषय-भोगका त्याग करनेका भगीरथ प्रयत्न करें और निर्दोष आनन्दके अनेक क्षेत्रोंमें से थोड़े पसन्द कर लें । ऐसी प्रवृत्तियां ढूंढ़ लें जिनसे सच्चा दंपती-पेम शुध्द मार्ग पर लग जायृ दोनोंकी उन्नति हो और विषय-वासनाके सेवनका अवकाश ही न मिले । दंपती  ध्द त्यागका थोडा अभ्यास करनेके बाद इस त्यागके भीतर जो रस भरा पड़ा है, वह उन्हें विषय-भोगकी ओर जाने ही नहीं देगा । कठिनाई आत्म-वंचनासे पैदा होती है ।  इसमें त्यागका आरम्भ विचार-शुध्दिसे नहीं होता, केवल बाह्यचारको रोकनेके निष्फल प्रयत्नसे होता है । विचारकी दृढताके साथ आचारका संयम शुरू हो, तो सफलता मिले बिना रह ही नहीं सकती । स्त्री-पुरुषकी जोड़ी विषय-सेवनके लिए हरग़िज नहीं बनी है ।


*सस्ता साहित्य मंडल, नई दिल्ली से प्रकाशित । इसका मूल गुजराती संस्करण ‘नीति विनाशने मार्गे' नवजीवन ट्रस्टने प्रकाशित किया है ।

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