| | |

भोजपुरी लोकगीतों में गाँधी-दर्शन

डॉ. राजेश्वरी शांडिल्य

लोकगीत सामान्यत लोककंठ में रहते हैं। यदि उन्हें अक्षरों के माध्यम से काग़ज़ पर उतार दिया जाये तो वे साहित्य की धरोहर हो जायेंगे और जन्म-जन्मांतर तक उनके प्रभाव की अनुभूति उपलब्ध रहेगी। गाँधीजी स्वयं मृत्यु से परे एक महान् आत्मा थे, जिनके स्पर्श से पत्थर भी स्वर्ण बन गया। देश की काया पलट गयी। गाँधीजी तथा उनके द्वारा संचालित स्वतंत्रता-संग्राम आंदोलन का प्रभाव भोजपुरी क्षेत्र में देश के अन्य भागों की अपेक्षा अधिक रहा, क्योंकि इस आंदोलन का प्रारम्भ गाँधीजी ने स्वयं सन् 1917 में चम्पारण से किया था और इसकी पूर्णाहुति सन् 1942 में बलिया ज़िले में अंग्रेज़ी शासन को उखाड़ फेंककर अमर शहीद चित्तू पाण्डेय ने किया। इन दो ध्रुवों के मध्य लगभग 25 वर्षों की संघर्ष-गाथा अपने अंतर्मन में अनेक घटनाओं के बिम्ब-प्रतिबिम्ब संजोये हुए हैं। इनमें से अनेक दृष्टांत इतिहास के पन्नों से भी ओझल हैं, परंतु लोक-मन सदा संवेदनशील रहता है। उसकी दृष्टि भी बड़ी सूक्ष्म एवं विवेचक होती है। परिणामस्वरूप इन भावनाओं का प्रस्फुटन लोकगीतों के माध्यम से होकर जन-जन में व्याप्त हो जाता है। इन लोकगीतों ने स्वतंत्रता-संग्राम की अग्नि की ज्वाला में घी का काम किया। अनेक नर-नारियों ने जान की परवाह किये बिना गाँधीजी के नाम पर इस क्रांति में कूद कर अपना उत्सर्ग कर दिया।

महात्मा गाँधी मात्र इस देश के नहीं, वरन् विश्व -स्तर के इस शताब्दी के महानतम राजनीतिज्ञ, धर्मभीरु, धर्मप्रिय एवं मानव-प्रिय व्यक्ति थे। उनके हृदय में देश के प्रति जो दर्द था, वह मात्र यहाँ के देशवासियों तक सीमित नहीं रहा, वरन् वह सम्पूर्ण विश्व-समुदाय के लिए, संसार के समस्त शोषित, दलित, प़ीडित एवं दिग्भ्रमित मानव-मात्र के लिए प्रस्फुटित हुआ था। इस प्रकार की देशभक्ति या मानव-प्रेम बलात् किसी व्यक्ति में उत्पन्न नहीं हो सका। ये गुण सदैव संस्कारजनित होते हैं, परंतु परिवेश प्राप्त कर उन्हें अंकुरित एवं पल्लवित होने में सहायता मिलती है। गाँधीजी ने अपने बारे में जो कुछ लिखा है, उससे पता चलता है कि उनके ऊपर संत नरसी मेहता के 'वैष्णव जन तो तेने कहिए...' भजन का बहुत प्रभाव पड़ा था।

गाँधीजी को दक्षिण अ़फ्रीका के प्रवासी भारतीयों तथा अश्वेतों की स्थिति में भारतीय परिस्थितियों से समानता दिखायी पड़ी। उससे गाँधीजी अपने देशवासियों के प्रति दिनों-दिन करुणा, दया एवं सहानुभूति से द्रवित होते गये। इसका परिणाम यह हुआ कि वे सशरीर तो दक्षिण अ़फ्रीका में थे, परंतु मन, हृदय एवं बुद्धि से सदैव भारतीयों के बारे में चिंतित रहने लगे।

दक्षिण अ़फ्रीका में गाँधीजी ने सत्याग्रह और आश्रम-संबंधी प्रयोगों पर अमल तो किया ही, उनके हृदय में संघर्ष, सहिष्णुता, विवेक, बलिदान, त्याग, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, श्रम, मानव-मात्र की समानता आदि के विचारों का भी मंथन हुआ तथा इन सिद्धांतों पर भी वे कई प्रयोग करने में सफल हुए। गाँधीजी के सारे प्रयोग भारत में भी सफल हुए, क्योंकि इन विचारों के बारे में अब वे परिपक्व एवं अनुभवी हो चुके थे। सत्य एवं अहिंसा के बारे में गाँधीजी ने अपने विचार सन् 1936 में इस प्रकार व्यक्त किये थे - 'किसी भी आदमी को यह नहीं सोचना चाहिए कि वह सत्य और अहिंसा में तो विश्वास करता है, लेकिन दस्तकारी या खादी और गाँवों के लोगों की सेवा करने में विश्वास नहीं करता। इसी प्रकार किसी को यह नहीं कहना चाहिए कि वह सत्य और अहिंसा में तो विश्वास करता है, लेकिन वह हिन्दू-मुस्लिम एकता और अस्पृश्यता- निवारण में विश्वास नहीं करता।''

यह एक संयोग ही है कि इस देश के बिहार के चम्पारण जिले में नील के किसानों एवं मज़दूरों को नील कोठी के मालिकों द्वारा दशकों से प्रत़ाडित एवं शोषित किया जा रहा था। चम्पारण-प्रवास में गाँधीजी को जो कष्ट उठाने पड़े तथा उनके लिए वहाँ की जनता में जो सद्भाव, प्यार, श्रद्धा एवं सम्मान था, वह सब ऐतिहासिक दृष्टांत बन चुके हैं। यद्यपि उस समय आवागमन की सुविधा, संचार-व्यवस्था, सम्पर्क के साधन अत्यंत अल्प एवं अविकसित थे, परंतु फिर भी गाँधीजी के कहीं आने-जाने की बात चम्पारण की जनता में तत्काल अग्नि-ज्वाला की तरह फैल जाती थी, परिणामस्वरूप गाँधीजी जहाँ भी जाते, लाखों की संख्या में जनता उपस्थित होकर उनका जय-जयकार करती, क्योंकि गाँधीजी के रूप में उन्हें उनके कष्ट-निवारणार्थ साक्षात् भगवान चम्पारण पधार चुके थे। गाँधीजी स्वयं चम्पारणवासियों के प्रेम, श्रद्धा एवं सम्मान तथा अपने कार्य की सफलता से इतने अभिभूत हुए कि उन्होंने अपने आत्मकथन में बड़े आत्मीय शब्दों में निम्न प्रकार से इसका उल्लेख किया है, 'बिहार ने ही मुझे हिन्दुस्तान में जाहिर किया। उससे पहले तो मुझे कोई जानता भी न था।''

''पहले मैं जानता भी न था कि चम्पारण कहाँ है, लेकिन जब यहाँ आया तो मुझे ऐसा मालूम हुआ कि मैं बिहार के लोगों को सदियों से जानता था और वे भी मुझे पहचानते थे।''

चम्पारण से प्रारंभ होकर गोरखपुर के रास्ते बलिया तक की स्वतंत्रता-संग्राम की विभीषिका ने भोजपुरी पर अपना जो रंग जमाया, उससे कोई भी नर-नारी, बाल-वृद्ध, युवक-युवती बच नहीं पाया। हमारे कहने का आशय यह नहीं है कि इतने विशाल भोजपुरी-क्षेत्र में मात्र तीन ही गाथाएँ उल्लेखनीय हैं। सम्पूर्ण भोजपुरी क्षेत्र का प्रत्येक नगर, प्रत्येक गाँव, प्रत्येक गली, प्रत्येक खेत एवं खलिहान स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए सब कुछ न्यौछावर करने के लिए तैयार था और गली-गली में ईंट-से-ईंट बज रही थी। इन प्रमुख घटनाओं का जो उन्मादक प्रभाव जनता पर पड़ना चाहिए, वह स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहा था।

गाँधी-दर्शन के विकास में भोजपुरी क्षेत्र का एक और दृष्टि से अत्यधिक महत्त्व है। सन् 1920 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्ययनरत लगभग 11 छात्रों ने गाँधीजी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने के लिए अपना अध्ययन त्यागकर काशी में भारतवर्ष के प्रथम 'श्री गाँधी आश्रम' की स्थापना की। इसका उद्देश्य गाँधी-दर्शन के प्रमुख सिद्धांत, ग्रामीण विकास, कुटीर उद्योग, स्वदेशी की भावना, स्वावलम्बन आदि रखे गये। इन छात्रों में सर्वश्री आचार्य कृपलानी, विचित्र नारायण शर्मा, आचार्य बीरबल सिंह एवं कपिलदेव का नाम प्रमुख है। 10 फ़रवरी 1921 को गाँधीजी ने ही बनारस में काशी विद्यापीठ का शिलान्यास किया, जहाँ भारतवर्ष के एकमात्र 'भारत माता मन्दिर' का निर्माण किया गया।

गाँधी-दर्शन को भलीभाँति आत्मसात् करने के लिए उसकी पृष्ठभूमि पर भी दृष्टिपात करने की आवश्यकता है। गाँधीजी के पूर्व ही भोजपुरी जवान मंगल पाण्डे ने, जो एक सैनिक थे, सन् 1857 में स्वतंत्रता की ज्योति प्रज्ज्वलित कर देश का वातावरण ही बदल दिया था। यद्यपि मंगल पाण्डे को फाँसी का दण्ड मिला और सन् 1857 का विप्लव भी बिना किसी परिणति के समाप्त हो गया, परंतु स्वतंत्रता-प्राप्ति की लालसा की जिस ज्योति को मंगल पाण्डे, बहादुर शाह जफ़र, रानी लक्ष्मीबाई, वीरांगना झलकारीबाई, अवंतीबाई और तात्या टोपे जैसे वीरबाँकुरों ने मिलकर जलाया था, उसकी लौ बुझ तो गयी थी, परंतु अग्नि भीतर ही भीतर धधकती रही। अ़फ्रीका से लौटने के पश्चात् गाँधीजी के समक्ष यह सबसे बड़ी चुनौती थी कि सन् 1857 की क्रांति का, जिसने प्रत्येक भारतीय के हृदय में स्वतंत्र होने की जो एक अदम्य इच्छा शक्ति उत्पन्न कर दी है, दोहन किस प्रकार किया जाय, ताकि आगे की रणनीति सफल हो सके। इस दिशा में कतिपय गीतकारों की प्रमुख भूमिका रही, उनमें बक्सर के भोजपुरी कवि एवं गायक डॉ. कमला प्रसाद मिश्र 'विप्र' का नाम अग्रणी रहा, जिन्होंने अपने निम्न गीत के माध्यम से राष्ट्र को एक आह्वान दिया था -

हम हैं इसके मालिक हिन्दुस्तान हमारा,

है पाकवतन कौम का जन्नत से प्यारा।

यह है मिल्कियत हिन्दोस्तां हमारा,

इसकी कदीम कितना नईम सारे जहाँ से न्यारा,

करती है जरखेज जिसे गंगा यमुना की धारा।

ऊपर बर्फीला पर्वत पहरेदार हमारा।

नीचे साहिल पर बजता सागर का नगाड़ा।।

भोजपुरी क्षेत्र के प्रमुख क्रांतिकारी बाबू रघुबीर नारायण सिंह ने 'बटोहिया' गीत की रचना करके संपूर्ण उत्तरी भारत में तहलका मचा दिया था, क्योंकि इस गीत में भारत-दर्शन के साथ-साथ उसके प्रमुख व्यक्तियों, उनके सिद्धांतों और देश की नदियों, वनस्पतियों तथा पशु-पक्षियों के बारे में भी अत्यंत जीवंत वर्णन प्रस्तुत किया गया है। इस गीत को पढ़कर, गाकर और सुनकर लोगों में अपनी सुंदर मातृभूमि के प्रति न्यौछावर होने की उत्कंठा उत्पन्न हुई -

सुन्दर सुभूमि भैया भारत के देसवा से मोरे प्रान बसे हिम खोह रे बटोहिया।

एक द्वार घेरे राम हिम-कोतवलवा से, तीन द्वारसिंधु घहरावे रे बटोहिया।

उसी श्रेणी के एक अन्य साहित्यकार ने, जो प्राचार्य भी थे और जिन्हें प्राचार्य मनोरंजन प्रसाद सिंह के नाम से जाना जाता था, 'फिरंगिया' नामक एक गीत की रचना की, जो अत्यंत लोकप्रिय हुआ। इस गीत में भी उन्होंने अंग्रेज़ों के शासन-काल में भारत की बिगड़ती आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक स्थिति का उल्लेख करते हुए देशवासियों का आह्वान किया कि जैसे भी हो, देश की रक्षा के लिए अंग्रेज़ों को भगाना ही होगा। यह गीत प्रवासी भारतीयों में भी बहुत लोकप्रिय बन गया। इस गीत पर बाद में अंग्रेज़ी शासन ने प्रतिबंध लगा दिया था। यह गीत भी लगभग दो पृष्ठों का है, परंतु इसके कुछ अंश ही प्रस्तुत करना इस निबंध के लिए पर्याप्त है -

सुन्दर सुघर भूमि भारत के रहे रामा

आज इहे भइल मसान रे फिरंगिया

अन्न, धन, जन, बल, बुद्धि सब नास भइल,

कौनौ के ना रहल निसान रे फिरंगिया।

गोपाल शास्त्री बिहार में सारण जिले के संस्कृत के विद्वान थे। वे सन् 1932 में उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी चुने गये। असहयोग आंदोलन के वे अगुआ थे। शास्त्रीजी द्वारा रचित राष्ट्रीय लोकगीत न केवल बहुत लोकप्रिय हुए, बल्कि उनका प्रचार भी बहुत हो गया था। वे अंग्रेज़ों की नज़र पर चढ़ गये और उनका सारा साहित्य ज़ब्त कर लिया गया। उनके राष्ट्रीय गीत की एक बानगी प्रस्तुत की जा रही है -

उठु उठु भारतवासी अबहु ते चेत करू,

सुतले में लुटलसि देश रे विदेशिया।

जननी - जनम भूमि जान से अधिक जानि,

जनमेले राम अरुं कृष्ण रे विदेशिया।

इसी शृंखला में शाहाबाद-निवासी सरदार हरिहर सिंह का नाम श्रद्धा से लिया जा सकता है। वे सन् 1969 में बिहार के मुख्यमंत्री भी बने, परंतु वे एक उच्चकोटि के साहित्यकार थे, असहयोग आंदोलन, नमक आंदोलन एवं भारत छोड़ो आंदोलन तथा हिन्द फ़ौज़ की गतिविधियों के बारे में उन्होंने नये ढंग से तथ्यों को प्रस्तुत कर परस्पर सौहार्द की भावना जाग्रत करने एवं अंग्रेज़ों से देश को मुक्त कराने का आह्वान किया था। उनका एक प्रसिद्ध गीत द्रष्टव्य है -

चलु भैया आजु सभे जन हिलिमिली,

सूतल जे भारत के भाई के जगाईं जा।

जैसा कि पहले ही उल्लेख किया जा चुका है कि इन आंदोलनों की सफलता के पीछे गाँधीजी के व्यक्तिगत जीवन का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। गाँधीजी अपने व्यक्तिगत जीवन को एक साधक के रूप में विकसित करने के लिए सदैव सचेष्ट रहे। दक्षिण अ़फ्रीका में उन्होंने रस्किन और टॉलस्टॉय की पुस्तकों के साथ गीता का सम्यक् अध्ययन किया। भारत जाने पर उन्होंने ईसाई धर्मग्रंथ बाइबिल का अध्ययन किया और वे महात्मा ईसा के 'गिरि प्रवचनों' से बहुत प्रभावित हुए। इसी प्रकार चीनी धर्मगुरुओं लाओत्से एवं कन्प़्यूशियस की शिक्षाओं का भी उन पर गंभीर प्रभाव पड़ा। लाओत्से ने कहा है - ''जो मेरे प्रति अच्छे हैं, उनके प्रति मैं अच्छा हूँ।'' इस प्रकार सभी अच्छे हो जायेंगे। कन्प़्यूशियस ने घोषणा की थी कि हमें आपस में एक-दूसरे के प्रति ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए, जिसकी अपेक्षा हम दूसरों से अपने प्रति न करें। गाँधीजी ने इन शिक्षाओं को ग्रहण कर अपने अंतर्मन में इन्हें आत्मसात् भी कर लिया, जो उनके जीवन के आदर्श बन गये।

गाँधीजी ने अपने जीवन को 11 आदर्शों पर ढालने का प्रयास किया, जिसमें वे सामान्यत सफल भी हुए। गाँधीजी द्वारा अपनाये गये ये ही व्रत गाँधी-दर्शन के आधार-स्तंभ हैं, जो राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि में आलोक-स्तंभ की भाँति सुदृढ़ रूप से खड़े रहे। इनकी सम्यक् विवेचना की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ये इतने व्यापक एवं सर्वस्वीकृत हो चुके हैं कि जन-जन के मन में इनकी स्पष्ट छवि चित्रित है।

किसी भी दार्शनिक के चिंतन-मनन, धर्म-कर्म और अध्यात्म का प्रभाव उसके व्यक्तित्व के अनुसार ही सामान्यजन पर पड़ता है। गाँधीजी राजनीति में अवश्य थे, परंतु वे साधना, शुचिता, तप, सत्य और अहिंसा को अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य बनाकर देश-सेवा में लगे रहे। गाँधीजी की कथनी और करनी में न केवल समानता थी, वरन् वे स्वप्न में भी असत्य वचन या छल-कपट की भाषा का प्रयोग न करने के लिए दृढ़संकल्प थे। विश्व- इतिहास की यह सम्भवत अनहोनी घटना है कि फ़कीर और साधु के रूप में एक राजनीतिक पुरुष ने धर्म और अध्यात्म के पथ पर चलते हुए अपनी साधना के बल पर ब्रिटिश साम्राज्य जैसे प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ कर देश-निकाला दे दिया। आज-कल के राजनेताओं का व्यक्तिगत जीवन इतना गंदा, दूषित एवं छल-कपट से पूर्ण है कि उनके प्रति जनसामान्य में कोई श्रद्धा नहीं रहती। उनकी राजसत्ता, दबंगई या तिकड़म के कारण भले लोग ऐसे राजनेताओं के मुँह पर उनकी प्रशंसा करते हों। स्वतंत्रता-संग्राम और उसके बाद लगभग एक दशक तक पुरानी पीढ़ी के राजनेताओं में गाँधीजी के प्रभाव के कारण आचरण की शुद्धता, स्वार्थ-रहित देश-सेवा की प्रतिबद्धता और परिवारवाद या भाई-भतीजावाद के प्रति प्रबल विद्रोह था। गाँधीजी के इसी निश्छल व्यक्तित्व के कारण लोक में भी गाँधीजी घर-घर के पूज्य बन गये, श्रद्धास्पद बन गये और आदर्श पुरुष के रूप में प्रस्तुत हुए। इसी जनभावना को लोकगीतों में इस प्रकार प्रदर्शित किया गया है -

गाँधी कहै, गाँधी कहै, मन चित्त लाइको।

गंगा सरजू चाहे कूपा पर नहाइ के।

लिहले अवतार एही देशवा में आइ के,

चक्र के बदला में चरखा चलाइ के। गाँधी कहै...।

गाँधी-दर्शन के प्रमुख बिन्दुओं में चरखा का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। चरखा केवल सूत कात कर वस्त्र बनाने या तन ढकने का ही उपकरण नहीं रहा। इसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि अत्यंत जटिल एवं गूढ़ है। यूरोप में औद्योगीकरण के पश्चात् मशीनीकरण का युग प्रारम्भ हो चुका था और उसका प्रभाव भारत पर भी पड़ने लगा था। गाँधीजी ने सन् 1925 में जब अल्पकाल के लिए राजनीति से संन्यास लेकर दो-तीन वर्षों तक गंभीर चिंतन-मनन किया, तब उन्हें तत्कालीन औद्योगिक परिप्रेक्ष्य में चरखे का महत्त्व महसूस हुआ। गाँधीजी ने जब सार्वजनिक रूप से चरखे का विषय उठा कर इसे अपने चिंतन और आंदोलन का एक अंग घोषित कर दिया तो अनेक नेता, बुद्धिजीवी या अंग्रेज़ प्रशासक हतप्रभ रह गये, क्योंकि उन्हें यह विश्वास नहीं था कि चरखे से लड़कर अंग्रेज़ों के विरुद्ध संघर्ष जीता जा सकता था। चरखा गाँधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम का एक अंग था। वे कहते थे कि उन्हें आधुनिकता से परहेज़ नहीं है और न तो वे आधुनिक यंत्रीकरण के विरोधी हैं। किंतु उनका विचार था कि मशीन का क़द कभी भी आदमी से बड़ा नहीं हो सकता। वे सामाजिक मूल्यों को बऱकरार रखते हुए समाजवादी व्यवस्था के अधीन व्यक्ति के वर्चस्व के अवमूल्यन के पक्षधर नहीं थे। गाँधीजी कहा करते थे कि वे चरखे को रूढ़ नहीं बनाना चाहते थे। जनता के वर्तमान आर्थिक संकट को दूर करने के लिए यदि कोई दूसरा उपाय बता दे तो गाँधीजी चरखा को जला देने तक के लिए तैयार थे। वे अमेरिकनों के लिए भी चरखे को एक मशीन के रूप में पेश करना चाहते थे। गाँधीजी के अनुसार चरखे से विचार-मंथन की प्रेरणा मिलती है।

उनकी इच्छा थी कि सारी व्यवस्था में शुचिता आये तथा व्यक्ति की भागीदारी की कहीं उपेक्षा न हो, क्योंकि व्यक्ति की उपेक्षा होगी तो व्यवस्था के प्रति अविश्वास एवं उदारीकरण का अंकुरण होगा। गाँधीजी की प्रासंगिकता वर्तमान अर्थव्यवस्था और औद्योगीकरण के माहौल में उनके जीवन-काल से ही महसूस होती आ रही है। गाँधीजी ने चरखे को न केवल स्वावलम्बन एवं आत्मनिर्भरता का प्रतीक बनाया, वरन् यह शारीरिक श्रम, स्वदेशी की भावना, सहकारिता एवं सर्वधर्म समभाव का भी आधार बना। डॉअ राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा है कि जब चरखा तलाश करके बापू ने पहले-पहल उसे चलाना शुरू किया तो देश में एक भूली हुई, खोई हुई च़ाज को उन्होंने फिर से प्रतिष्ठित किया। उसका सारा इतिहास हमने अपनी आँखों से देखा है। धीरे-धीरे चरखा लोकप्रिय हो गया। गाँधीजी राजनीति के क्षेत्र में मानव तथा मानव-मूल्यों को प्राथमिकता देकर सर्वोपरि रखना चाहते थे। उनकी राजनीति धर्म-विहीन एवं आचरण-विहीन नहीं थी। चरखे के माध्यम से वे राजनीतिज्ञों में भी विनम्रता, उदारता, सम्यक् दृष्टि एवं समभाव का विस्तार चाहते थे। उन्होंने कल-कारख़ानों के होते हुए भी चरखे को देश के सामने रखा। और इस बात की चुनौती दी कि चरखे के द्वारा हम न केवल स्वराज लेंगे, वरन् एक नये समाज की स्थापना भी करेंगे। स्वराज बापू की दृष्टि में मूल्यवान ज़रूर था, परंतु वह अन्तिम आदर्श की वस्तु नहीं था। चरखे का इतना प्रचार- प्रसार हो गया कि घर-घर में इससे सूत बना कर लोग सूत के बदले वस्त्र ले आते थे। यह इतना लोकप्रिय हो गया कि चरखे की प्रशस्ति में असंख्य लोकगीतों की रचनाएँ की गयीं।

1

देसवा के लाज रहि है चरखा से, गाँधीजी के मान सनेसवा

पिया जनि जा हो विदेसवा।।

2

चरखा में बड़ा गुन भइया घोरवा सुन-सुन

खेल-खेल में काम सिखावे बड़ा हुनर बड़ा गुन।

चरखे से ही सम्बद्ध खादी का कार्यक्रम गाँधीजी ने चलाया। यह कार्यक्रम तथा खादी वस्त्र इतने लोकप्रिय हुए कि संभ्रान्त परिवारों में भी इसने स्थान बना लिया और खादी पहनने में लोग अपनी प्रतिष्ठा समझने लगे। असहयोग-आन्दोलन की अवधि में गाँधीजी की एक माँग यह भी थी कि विदेशी वस्त्रों का आयात न बढ़ने दिया जाय। इस समय विदेशी वस्त्रों की होली जलायी गयी और अनेक देशभक्तों ने यह संकल्प लिया कि वे विदेशी वस्त्र धारण नहीं करेंगे। चरखा का प्रारंभ होते ही खादी-उद्योग पनपने लगा।यह उद्योग मृतावस्था में पड़ चुका था, क्योंकि हमारे देश में हज़ारों वर्षों से घरेलू कपड़ा बनाने की रीति थी, जब एक-से-एक मज़बूत, सुंदर एवं सुदर्शन कपड़े बनते थे। ढाके की मलमल भी इसी देश की पहचान थी। शुरू-शुरू में खादी के वस्त्र निश्चित रूप से थोड़े मोटे एवं खुरदरे होते थे, परंतु उससे कभी कोई डिगा नहीं। उसको पहनने में ही लोग अपनी शान समझने लगे, क्योंकि इसमें उनका परिश्रम था। उनके जीवन का आदर्श था और उनकी आकांक्षाओं की पूर्ति होती दिखायी देती थी। खादी के संबंध में गाँधीजी ने स्पष्ट घोषणा की - ''खादी मुल्क की सारी जनता की आर्थिक आज़ादी और समानता के आरम्भ की सूचक है। खादी का अर्थ है सर्वव्यापी स्वदेशी भावना, जीवन की सब आवश्यक वस्तुएँ हिन्दुस्तान में ही और उन्हें भी गाँववालों की मेहनत और बुद्धि के उपयोग द्वारा प्राप्त करने का निश्चय।'' गाँधीजी खादी को भारतीयों की एकता, आर्थिक स्वतंत्रता एवं सामाजिक समरसता का प्रतीक मानते थे। वे चाहते थे कि कपड़े के रूप में इस देश का एक पैसा भी विदेशी व्यापारियों को न दिया जाय। उसका लाभ देशवासियों को मिले, क्योंकि कपास पैदा करनेवाले, उसको चुननेवाले, ओटनेवाले, साफ़ करनेवाले, धुननेवाले, पिउनी बनानेवाले, कातनेवाले, माड़ी देनेवाले, रंगनेवाले, ताना-बाना करनेवाले, बुननेवाले, धोनेवाले, माल ढोनेवाले एवं बिक्री करनेवाले सभी समान रूप से उसका लाभ उठायें और देश का ग्रामोद्योग खादी के सहारे पनप उठे।

गाँधीजी के व्रतों में स्वदेशी व्रत का एक महत्त्वपूर्ण स्थान था। यद्यपि स्वदेशी की भावना बड़ी व्यापक एवं बहुमुखी है और उसे चरखा या खादी तक सीमित नहीं किया जा सकता, परंतु स्वदेशी के दर्शन का सूत्रपात करने में चरखा एवं खादी के कार्यक्रम ने एक महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। गाँधीजी के नैतिक एवं राजनैतिक विचारों पर तीन आधुनिक दार्शनिक महापुरुषों का विशेष प्रभाव पड़ा। उनमें जॉन रस्किन, डेविड थोरो तथा टॉलस्टॉय का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। जॉन रस्किन की पुस्तक 'अण्टू दिस लास्ट' से गाँधीजी ने श्रम के महत्त्व को समझकर शारीरिक श्रम को आदर देना सीखा। साथ ही उन्होंने उस आर्थिक व्यवस्था को सर्वोत्तम माना, जिससे सबको लाभ होता हो। गाँधीजी के आर्थिक कार्यक्रमों का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य होता था। उनके विचार से जिस आर्थिक कार्यक्रम के माध्यम से समाज के अंतिम सोपान पर स्थित व्यक्ति को लाभ मिलता हो, उसके कल्याण की संभावना हो, वही सफल कार्यक्रम है। इस दृष्टि से खादी से स्वाभिमान और सामुदायिक भावना का भी उदय हुआ। खादी मात्र एक वस्त्र न होकर एक विचार बन गया। स्वतंत्रता- संग्राम का एक प्रतीक-चिह्न बन गया और स्वतंत्रता-संग्राम के सेनानियों की पहचान खादी से होने लगी। सन् 1926 में आगरा के सेंट जॉन्स कालेज में विद्यार्थियों की एक सभा को गाँधीजी सम्बोधित कर रहे थे तो उन्होंने जिज्ञासा व्यक्त की कि कितने छात्र खादी पहनते हैं। मुश्किल से एक दर्जन छात्रों ने हाथ उठाया और अधिकांश ने निवेदन किया कि यद्यपि वे गाँधीजी के आदर्शों पर विश्वास करते हैं, परंतु वे उसे व्यवहार में लाने में असमर्थ हैं। गाँधीजी का उत्तर था कि वे छात्रों से असमर्थता शब्द सुनने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने छात्रों से कहा कि सम्पूर्ण विद्वत्ता मात्र उनके पुस्तकीय ज्ञान में सीमित न होकर इसका प्रकाश उनके चरित्र, आचरण, संयम एवं व्यवहार में भी होना चाहिए। उनका तात्पर्य था कि खादी वस्त्र को धारण करने के लिए उसके योग्य बनना पड़ेगा, एक इच्छा-शक्ति जाग्रत् करनी होगी। इसी प्रकार काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों को सम्बोधित करते हुए एक बार गाँधीजी ने कहा था कि यदि छात्रगण चरित्र की आवश्यकता को आचरण में व्यक्त करना चाहते हैं तो उन्हें इसके लिए चरखा एवं खादी के अतिरिक्त कोई अन्य माध्यम उपयुक्त दिखायी नहीं दे रहा है। गाँधीजी की पहल पर सन् 1926 में गोहाटी कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस के सदस्यों के लिए खादी वस्त्र पहनने का प्रस्ताव पारित हुआ। उनका विचार था कि खादी कोई मरणशील सप्रदाय नहीं है, यह एक प्राणवान तथा जीवन्त दर्शन है। इसीलिए तो गाँधीजी ने खादी को हमारी संस्कृति का एक अंग बनाने हेतु यह नारा दिया था - 'जियें तो बदन पर स्वदेशी बसन हो, मरें तो बदन पर स्वदेशी कफ़न हो।'' खादी- भावना जन-जन तक पहुँच गयी, जिसका यशगान लोक-कंठ से फूट पड़ा। खादी-गान संबंधी इस गीत से इसका अनुमान लगाया जा सकता है -

खद्दर की धोती पहिरे, खद्दर के कुरता पहिरे,

आवे के बेरि गाँधी बाबा अवरु राजेन्द्र बाबू सीटिया बजवले

उठि गइले सब सुराजी, सुराजी झंडा हाथ में।।

उपर्युक्त लोकगीतों के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि भोजपुरी जनमानस ने गाँधी-दर्शन को स्वतंत्रता- आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में पूरी तरह आत्मसात् कर लिया था। गाँधीजी की तरह तपोनिष्ठ, अडिग, त्यागी, बैरागी और देश-सेवा का व्रती होना तो सबके लिए सम्भव नहीं था, परंतु लोगों ने व्यापक रूप से गाँधीजी के अंतर्मन की वेदना को सुना और समझा तथा उस पर चलने का अपना आत्मबल प्रदर्शित किया। गाँधीजी का यह आत्मबल ही था कि उससे प्रेरणा लेकर संपूर्ण देश गाँधी-पथ का अनुयायी बन गया।

गाँधी-दर्शन के कतिपय अन्य प्रमुख बिन्दुओं में चम्पारण-आन्दोलन, नमक-आन्दोलन और राष्ट्रीय आन्दोलन के सामाजिक रूप का घर-घर में प्रवेश करने की उद्भावना है। हम गाँधी-दर्शन के इन सभी बिन्दुओं के संबंध में विस्तार में न जाकर केवल उनके एक-एक लोकगीत ही प्रस्तुत करना पर्याप्त समझते हैं, क्योंकि इससे अधिक कुछ कहने का अवकाश यहाँ नहीं है -

1

भये आमिल के राजा प्रजा सब भयेउ दुखारी

मिल जुल लुटे गाँव गुमस्ता और पटवारी।।

2

लाला, धनि धनि भइलै नमकवा रे।

लाला, सुंदर सुराज के सिंगार

नमकवा धनि धनि रे।

लाला, दमरी अधेला के नमकवा रे।

3

हिन्द में सुराज के तिलक भालपवले तैं

आठो याम तोको परनाम रे नमकवा

केवल सिंगार रहले भोजन के दुनिया में,

दादा बाबा इहै सब जानै रे नमकवा।

4

जेहि घर जनमें ललनवा, त ओहि घरे धनि धनि हो।

रामा धनि धनि कुल परिवार त धनि धनि लोग सब हो।

इस प्रकार स्पष्ट है कि भोजपुरी क्षेत्र के लोक-जीवन में गाँधी-दर्शन कोई अप्रासंगिक अथवा किताबी विषय नहीं रह गया था, बल्कि घर-घर, जन-जन, स्त्री-पुरुष, बाल-वृद्ध, साधु-संन्यासी, रागी-बैरागी सभी इस रंग में रंग चुके थे। लोकगीतों ने स्वतंत्रता-आन्दोलन और गाँधी-दर्शन को घर-घर ले जाकर भोजपुरी जनमानस की संवेदनात्मक शक्ति को बृहत्तर ढंग से उजागर किया है।

| | |