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हिन्दी साहित्य में गाँधी-दर्शन की अभिव्यक्ति

प्रो. इसपाक अली

राष्ट्रीय चेतना के प्रचार-प्रसार में भारत की महान् विभूतियों का विशेष स्थान रहा है, जिन्होंने अपने विचारों से, संस्थाओं और सभाओं की स्थापनाओं से जन-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सुधार करना चाहा। उन्होंने निश्चेष्ट, निराश एवं निरवलम्ब जनता को अपने उच्च विचारों का दान तथा नवचेतना प्रदान कर, उनके जन्मजात अधिकारों की ओर हमारी दृष्टि आकृष्ट की, जिससे भारतीय सांस्कृतिक जीवन-दर्शन का स्वाभाविक विकास हुआ। गाँधीजी ने इसी भारतीय जीवन-दर्शन तथा आध्यात्मिकता को राष्ट्रीय आन्दोलन का सम्बल बनाकर जन-आन्दोलन का रूप दिया था। इसका कारण यह था कि मनुष्य की सहज प्रकृति सामाजिक होने के साथ ही आध्यात्मिक भी है। साथ ही सोद्देश्य जीवन-यापन के लिए भी यह आवश्यक है कि मनुष्य का आचरण धर्मानुकूल हो। स्वतंत्रता को नियमित तथा न्यायपूर्ण बनाने के लिए धर्म की आवश्यकता होती है। इसी कारण गाँधीजी ने युग-युग से चले आ रहे भारतीय सांस्कृतिक जीवन-दर्शन के प्रमुख तत्त्व सत्य और अहिंसा को देश के लिए हितकारी माना था। उन्होंने आधुनिक युग को बर्बरता से मुक्त करने के लिए अहिंसा को भारतीय जीवन-दर्शन का आधार चुना था।

गाँधीजी के अहिंसा-दर्शन ने राष्ट्रवाद के प्रमुख अंगों को विकसित किया, जिसकी अभिव्यक्ति हिन्दी साहित्य में हुई, जिससे राष्ट्रीय विचारधारा को बल मिला। गाँधी-दर्शन की अभिव्यक्ति हिन्दी कविता, नाटकों और कथा-साहित्य के विभिन्न पक्षों में हुई।

भारतीय जीवन-दर्शन भौतिकता की अपेक्षा आध्यात्मिकता को अधिक महत्त्व देता है। धर्म, कर्म, काम, मोक्ष भारतीय जीवन के चार पुरुषार्थ हैं, लेकिन अर्थ तथा काम को धर्म द्वारा नियंत्रित किया गया है और मोक्ष अन्तिम लक्ष्य है। गाँधीजी ने अपने राष्ट्रवाद को भारत की चिर पुरातन आध्यात्मिक एवं दार्शनिक विचारधारा पर आश्रित किया था। गाँधीजी का वेद ग्रन्थ तथा भारत की अति पुरातन धर्म-व्यवस्था में पूर्ण विश्वास और श्रद्धा थी। गाँधीजी ने देश के आध्यात्मिक और नैतिक पतन को अपनी सूक्ष्म दृष्टि से देखा था, इसीलिए उनके राष्ट्रीयता के दर्शन का प्रमुख तथ्य था आध्यात्मिकता और नैतिकता की पुन प्रतिष्ठा। गाँधीजी के इस दर्शन पर हिन्दी साहित्यकारों की दृष्टि ऋषियों-मुनियों द्वारा प्रसारित धर्म तथा दर्शन के उत्कृष्ट सिद्धांतों की ओर गयी, जिसकी साहित्य में सुन्दर ढंग से अभिव्यंजना की गयी है। गाँधी-दर्शन का सत्य साध्य एवं अहिंसा साधन है। गाँधीजी के अनुसार 'सत्य' का उच्च अर्थ है 'परमेश्वर'। साधारण तथा अपर अर्थ में सत्य का व्यंजक है सत्याग्रह, सत्य विचार तथा सत्य वाणी। सत्य अथवा परम तत्त्व की प्राप्ति के लिए आत्मा की शुद्धि आवश्यक है। अहिंसात्मक मार्ग के अनुगमन द्वारा सत्य की प्राप्ति निश्चित है। निस्सन्देह गाँधीजी का सत्य चिर पुरातन सत्य है। गाँधीजी के सत्य तथा अहिंसा की तात्त्विक मीमांसा हिन्दी काल क्षेत्र में भी त्रिशूल, माखनलाल चतुर्वेदी, सियाराम शरण गुप्त, मैथिलीशरण गुप्त, पंअ रामनरेश त्रिपाठी, श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान आदि ने की है।

श्री त्रिशूल ने सत्याग्रह अथवा सत्य तत्त्व की विवेचना करते हुए लिखा है -

सत्य सृष्टि का सार, सत्य निर्बल का बल है,

सत्य सत्य है, सत्य नित्य है, अचल अटल है।

जीवन-सर में सरस मित्रवर! यही कमल है,

मोद मधुर मकरन्द, सुशय सौरभ निर्मल है।।

मन मिलिन्द मुनिवृन्द थे, मचल मचल इस पर गये।

प्राण गये तो इसी पर, न्यौछावर होकर गये।।

श्री मैथिलीशरण गुप्त ने 'सत्याग्रह' काव्य में गाँधीजी के 'सत्याग्रह' का विवेचन किया है। श्री माखनलाल चतुर्वेदी की 'अदालत में सत्याग्रह के नाते बयान' कविता में भी गाँधीजी द्वारा अपनाये गये सत्याग्रह तथा अहिंसा का वर्णन किया गया है। चतुर्वेदीजी ने गाँधीजी के अहिंसात्मक विचारों, नैतिक एवं आत्मिक बल की श्रेष्ठता तथा सत्य के वास्तविक स्वरूप का अंकन तत्कालीन गाँधीवादी विचारधारा से प्रभावित होकर किया था। इन्होंने गाँधीजी के सिद्धान्तों का विवेचन अधिक भावात्मक रूप से किया है। श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान की राष्ट्रीयता का टेक भी स्वाधीनता की कर्मण्यता है। पंअ  रामनरेश त्रिपाठी ने 'पथिक' नामक प्रेमाख्यानक खण्डकाव्य में गाँधीजी की सत्य-अहिंसा की पुष्टि की है। श्रीधर पाठक ने 'भ्रमरगीत' में गाँधीवादी सत्य तथा अहिंसा अथवा प्रेम द्वारा विश्व को जीतने के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, जिसे सम्बोधित कर पाठकजी कहते हैं -

ग्रहण कर मधुकर नीति नई

मधुर गुंज-मद से पल भर को भर दे भुवन जयी।

सियाराम शरण गुप्त ने गाँधी-दर्शन को प्रत्यक्ष रूप में स्वीकार किया है। उनके काव्य में जिस करुणा का स्वर प्रमुख है, वह भौतिक कुंठाओं की करुणा न होकर भारतीय अध्यात्म की मानव-करुणा है, जो मानव-मात्र का धर्म है। एक सत्य से अनुप्राणित होने के कारण प्राणी-मात्र का समान अस्तित्व है, उनके काव्य में सत्य के इस स्वरूप की पूर्ण अभिव्यक्ति मिलती है। गाँधीजी की सत्य-अहिंसा से अनुप्रेरित नीति का समर्थन करते हुए वे लिखते हैं -

तूने हमें बताया - हम सब

एक पिता की हैं संतान,

हैं हम सब भाई-भाई ही

हैं सबके अधिकार समान।

हिन्दी काव्य की भाँति ही हिन्दी के ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक नाटकों में गाँधी के सत्य तथा अहिंसा के सिद्धान्त, विचार तथा व्यवहार की पूर्ण अभिव्यक्ति मिलती है। जयशंकर प्रसाद, लक्ष्मीनारायण मिश्र, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, मैथिलीशरण गुप्त, सियाराम शरण गुप्त, सेठ गोविन्ददास आदि नाटककारों ने सत्य तथा अहिंसा को संघर्ष तथा कर्ममय जीवन का महान् धर्म तथा आवश्यक कर्तव्य ठहराया है। उनके पात्रों ने कुशलता के साथ सत्य तथा अहिंसा के कठिन व्रत को निभाने का सफल अभिनय किया है। राष्ट्रवाद के इतिहास में ये नाटक हिन्दी साहित्य की अमर देन हैं।

'यंग इंडिया' में गाँधीजी ने लिखा थाö''मेरा विश्वास है कि हिंसा से अहिंसा की मर्यादा बलवती है, दण्ड देने से क्षमादान कहीं वीरत्व का लक्षण है। क्षमा-दान सच्ची वीरता का प्रमाण है। यदि दण्ड देने की मुझमें क्षमता है और मैं दण्ड देना स्वीकार नहीं करता, तो वही क्षमा सच्ची क्षमा है।'' पांडेय बेचन शर्मा उग्र के 'महात्मा ईसा' नामक नाटक में महात्मा ईसा के व्यक्तित्व का चित्रण गाँधीजी के व्यक्तित्व के सामञ्जस्य में हुआ है। उग्रजी के गाँधीजी के सत्य, अहिंसा, क्षमा आदि की पुष्टि महात्मा के जीवन-चरित्र के द्वारा करायी गयी है। गाँधीजी का यह विश्वास था कि सत्य ही ईश्वर है और सत्य की प्राप्ति का एकमात्र मार्ग दया और क्षमा है। जयशंकर प्रसाद के नाटकों में ऐतिहासिक कथानकों द्वारा गाँधीजी की सत्य और अहिंसा-संबंधी विचारधारा का पुष्ट रूप मिलता है। हिन्दी नाट्य साहित्य में स्वदेशी, चर्खा, खादी तथा ग्रामोद्योग को भी अभिव्यक्ति मिलती है। गाँधीजी नगर के कृत्रिम जीवन, कल-मशीनों की अपेक्षा ग्राम के नैसर्गिक एवं प्राकृत जीवन तथा हस्तकला उद्योग के पक्षपाती थे। जयशंकर प्रसादजी के 'कामायनी' नाटक में गाँधीजी की राष्ट्रीय विचारधाराओं का उल्लेख मिलता है।

जयशंकर प्रसाद के ऐतिहासिक नाटकों में, प्रच्छन्न रूप में समाज-सुधार के रचनात्मक कार्यक्रमों को अभिव्यक्ति मिलती है। 'ध्रुवस्वामिनी' में ऐतिहासिक कथा के माध्यम से विधवा-विवाह की पुष्टि की गयी है।

गाँधीजी के दर्शन का हिन्दी कथा-साहित्य में रचनात्मक कार्यक्रम के विभिन्न पक्षों के अनेक दृश्य-वर्णन और कथोपकथन पर प्रभाव पड़ा है। कहानियों में स्वदेशी-प्रचार की कार्यप्रणाली, जन-जीवन में स्वदेशी का प्रभाव, खादी, चरखे आदि का वर्णन मिलता है। प्रेमचन्द, सुदर्शन, निराला, सुभद्रा कुमारी चौहान, सियाराम शरण गुप्त आदि की कहानियाँ उल्लेखनीय हैं। प्रेमचन्द की 'होली का उपहार', 'पत्नी से पति', 'सुहाग की साड़ी' कहानियों में स्वदेशी के प्रचार की संपूर्ण प्रक्रिया का उल्लेख मिलता है। प्रेमचन्दजी के 'प्रेमाश्रम' और 'कर्मभूमि' उपन्यासों में ग्राम-सुधार एवं ग्रामीण शिक्षा के कार्यक्रम का क्रियान्वित रूप दिया गया है।

वास्तव में गाँधी-दर्शन का हिन्दी साहित्य में देश के जन-जीवन के साथ जो घनिष्ठ संबंध स्थापित किया गया है, वह अपूर्व है। हिन्दी साहित्य में गाँधी-दर्शन देशवासियों की सत्य, अहिंसा की भावना को प्रगाढ़ करता है, साथ ही राष्ट्रीय भावना को प्रोत्साहित करता है। गाँधी-दर्शन मूलत आध्यात्मिक जीवन-दर्शन है, जो जीवन का सत्य है और मानव की सप्रवृत्तियों में भी अनन्य विश्वास है, जिसके माध्यम से अन्याय, अत्याचार तथा शोषण की समस्या का अहिंसात्मक रीति से समाधान मिलता है। गाँधी-दर्शन से प्रभावित हिन्दी साहित्य परिधान से सुसज्जित होकर युग-युग के लिए देश-जीवन को राष्ट्र-निर्माण की प्रेरणा देता है। गाँधी-दर्शन को साहित्यिक स्वरूप देकर साहित्यकार का यह परम धर्म हो जाता है कि वह वर्तमान समय में देश-काल की परिस्थिति का निरीक्षण कर अपने विशद् मानस पट पर अंकित कर गाँधी-दर्शन को अपनी अनुभूति के गहरे रंग में रंग कर व्यक्त करे, जिससे साहित्य द्वारा राष्ट्रीयता की रक्षा हो सके।

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