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गाँधीवाद है प्रक्रिया-प्रकाश

- हर्ष शर्मा

महापुरुषों का जीवन संघर्षों से भरा होता है। जैसे ओस की बूँद काँटों की नोक पर उगकर ठहर जाती है, वैसे ही युग-पुरुष भी तानाशाह के अस्तित्व को ख़त्म कर देता है। चूँकि मनुष्य प्रकृति का अंश है, अत प्रकृति में चल रहा संघर्ष मनुष्य के संघर्ष की तरह ही होता है। प्रकाश की हर किरण चुम्बक-विद्युत के परस्पर प्रतिक्रिया-संघर्ष से आगे बढ़ती है। प्रकाश में सतत संघर्ष है और यह संघर्ष महापुरुषों के जीवन-प्रकाश से भी मेल खाता है। सीढ़ियों पर चढ़ते-चढ़ते ऊँचाई पर चढ़ना शिखर को फ़तह करना भी है तथा यह देखना भी है कि हर पर्वत को लाँघने के लिए स्वयं सीढ़ी है, क्योंकि कोई भी पर्वत एकदम खड़ा दस मील ऊँचा बन ही नहीं सकता। महापर्वत तक स्वयं झुका हुआ तथा सतत् धीरे-धीरे ऊँचाई और शिखर बनता है तो क्या सतत् धीरे-धीरे उस पर चढ़नेवाला नहीं पैदा होगा? जैसे हवाईजहाज़ सतत् ऊर्ध्वगामी होकर दस किलोमीटर की ऊँचाई पर यात्रा करता है, वैसे ही आरोही छोटी-छोटी चढ़ाइयाँ चढ़कर एवरेस्ट पर पहुँच जाते हैं। इसीलिए संघर्ष की उम्र, संघर्ष पैदा कर देने वाले के साथ-साथ है। यदि पापी है तो उसके मारने की विधि भी है। यदि तानाशाही ज़ंजीरें हैं तो ज़ंजीरों के बीच की फाँक से वायु तथा जल के गुज़र जाने की जगह भी है। जो ज़ंजीर जितनी ही मोटी होगी, उसमें से हवा तथा जल या किसी तरलता के गुज़रने की उतनी ही ज़्यादा फाँक होगी। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि चेतना किसी सृजन का रूप है और संघर्ष बहुत कठिन नहीं, बल्कि सहज भी है। काँटों की नोक ओस की बूँद को ज़रा भी नहीं चुभती। इसलिए संघर्ष-शक्ति गाँधी सरस तथा सहज एवं प्रसन्न जीवन जीते रहे, घबराते रहे अंग्रेज़।

जैसे राणा प्रताप के बाद शिवाजी, फिर टीपू एवं रानी लक्ष्मीबाई आ गयीं, जैसे राम के बाद कृष्ण आ गये, वैसे ही सागर में असंख्य लहरें आती रहती हैं। संघर्ष-पुरुषों की कभी कमी नहीं होगी। एक चरित्र दूसरे चरित्र में उतरता है, बशर्ते कि लेनेवाला सद्गुणी हो। कृष्ण भगवान की गीता से गाँधी प्रेरित होते हैं, जबकि भगवान कृष्ण स्वयं दुर्योधन को समझाने गये हैं, लेकिन वह सूई-नोक भर की ज़मीन भी देने के लिए तैयार नहीं है। शिव अवतार हनुमानजी तथा महाबली अंगद समझा रहे हैं, लेकिन रावण नहीं मानता, क्योंकि जिस सृष्टि ने रावण या दुर्योधन को बनाया है, वह इतनी रहस्यमयी है कि कृष्ण भी नहीं समझ पाते सृष्टि की एक नगण्य ईकाई को, जबकि एक अन्य अस्तित्व के लिए पुस्तक ही काफ़ी है।

गाँधीजी के संघर्ष से प्रेरित होकर मार्टिन लूथर किंग ने भी संघर्ष किया। वही शक्तियाँ थीं, जो उन्हें दबा रही थीं, लेकिन वे दब नहीं रहे थे, क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि उनका रास्ता गाँधीवादी है, सत्य के पक्ष में है। इसी तरह नेल्सन मण्डेला ने भी यातनाएँ सहीं, वे जेल में रहे, लेकिन उन्होंने संघर्ष नहीं छोड़ा। तानाशाही ज़ंजीर की तरह होती है और चूँकि ज़ंजीर से किसी को बाँधा जाता है, अत: जो उसमें बँधा है, उसकी क्रियाशीलता से एक दिन ज़ंजीर टूट जाती है। यदि ज़ंजीर किसी घाट पर हो, तब उसमें से गुज़र कर पानी ज़ंजीर का क्षरण करके उसे तोड़ देता है। ऐसे ही पानी की तरह होता है संघर्ष करनेवाला, जो धीरे-धीरे ज़ंजीर के जोड़ों को खोल देता है। जैसे रस्सी आते-जाते पत्थर को घिस देती है। जैसे सागर की लहरें पत्थर को रेणु में बदल देती हैं, वैसे ही महामानव लहरों और रस्सी से बहुत कम समय में ही ज़ंजीर को तोड़ देता है। मनुष्य पानी, रस्सी और लहर से बहुत बड़ा है, इसीलिए कम समय लेता है।

यदि विकसित देशों और धनिकों तथा विकासशील देशों तथा ग़रीबों पर कोई सेतु बन सकता है तो वह है गाँधीवाद। कुछ लोग कह सकते हैं कि धन, आयुध, ऐश्वर्य तथा पद हमारा लक्ष्य होना चाहिए। कुछ लोग कह सकते हैं कि शांति, सुख, सौम्यता तथा न्याय हमारा लक्ष्य होना चाहिए। धनी और उन्नत लोग भोग तथा विशेष व्याधियों से पीड़ित हैं, तब वे उन्नत कहाँ हुए। उन्नत तो वह हुआ, जो प्रेमी है, स्वस्थ है तथा सहअस्तित्व में योगदान देता है। तो क्या सारे विकासशील लोग सुखी हैं? नहीं, क्योंकि उनकी भी सीमाएँ हैं, जैसे वे अकर्मण्यता, अशिक्षा तथा आबादी से ग्रस्त हैं। वे ढोंग तथा अंध-विश्वासों से ग्रस्त हैं। ऐसे में लक्ष्य तो यही हो सकता है कि सत्य का सहारा लिया जाये। मिट्टी से राकेट, कम्प्यूटर, हवाईजहाज़ निकला तो मिट्टी तथा शोधकर्ता मनुष्य दोनों सम्मान के योग्य हैं। मान लीजिए कि विकासशील देश मिट्टी हैं तो उससे प्रगति की ऊँचाई बने। यानी कि विकसित देश विकासशील देश की सहायता करें और यदि बिना मिट्टी के उपकरण बन नहीं सकते तो मिट्टी भी योगदान करे। मनुष्य और मिट्टी मिलकर बेहतर मनुष्य बनते हैं। मनुष्य (केवल) दो मिनट भी हवा के बिना ज़िंदा नहीं रह सकता, अत: हवा भी महत्त्वपूर्ण है। यानी कि सृष्टि में हर किसी का योगदान है। विकसित देश विकासशील देश को हवा की तरह ज़रूरी मानेंगे, तभी उन्हें सही सुख मिलेगा। अन्यथा वे भोग की मरीचिका में भटकते-भटकते मरते रहेंगे। क्या पश्चिमी देशों में सभी स्वस्थ व्यक्ति सौ वर्ष का जीवन जीते हैं? नहीं, वहाँ भी अकाल मृत्यु कभी भी होती है। अत: सारे मनुष्य मिलें और हिंसा कम हो।

गाँधीजी साधना को कर्म की निष्कामता, मन की निर्मलता मानते हैं तथा अपरिग्रह पर ज़ोर देते हैं, ताकि सभी उचित वस्तु, भोजन तथा आवास प्राप्त कर सकें और नये शोधों से मनुष्य को और भी बेहतर बनायें, अन्यथा उन्नति के नाम पर पश्चिम के दस- बारह साल के बच्चे और बच्चियाँ काम-वासना में डूबे रहेंगे और विकासशील देशों की प्रतिभाएँ उनके यहाँ जाकर विज्ञान-तकनीकी पर शोध करती रहेंगी।

पश्चिम में आज पढ़ाई महँगी है, माँ-बाप भोग में डूबे हैं। अत: सोलह साल बाद बच्चों को बोल देते हैं कि कमाओ और जियो। जबकि विकासशील देशों में माँ-बाप बच्चों को ज़रूरत पड़े तो तीस-चालीस साल तक सँभालते हैं। इन्हीं विकासशील देशों की प्रतिभाएँ विकसित देशों में विलक्षण कार्य कर रही हैं, लेकिन अपने यहाँ असफल रहती हैं, क्योंकि विकासशील देश देशों में शोध का माहौल नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि विकसित और विकासशील देश एक दूसरे के करीब आयें। यह कार्य गाँधीवाद सम्पन्न कर सकता है, क्योंकि गाँधीवाद न्याय, कर्मठता, मन की निर्मलता, पाखंडहीनता और सहअस्तित्व का नाम है। गाँधीवाद प्रकृति में चल रही प्रक्रियाओं का अस्तित्व है, क्योंकि यहाँ हर कोई क्रियाशील है, चाहे सूर्य हो, उसकी किरण हो, पक्षी हो या सागर की लहर हो। प्रकृति में सहअस्तित्व है। आदमी हवा के बिना मर जाता है, लेकिन लाशों के लिए व्यर्थ है, अत: सहअस्तित्व ही जीवंतता है, ब़ाकी अकेले-अकेले सभी व्यर्थ हैं। अंधविश्वास कई तरह के होते हैं, जिससे विकसित और विकासशील देश दोनों ग्रस्त हैं। जो विकसित हैं, वे भोग से और जो विकासशील हैं, वे अकर्मण्यता तथा अशिक्षा-आबादी से ग्रस्त या त्रस्त हैं। भोग हमें अंधा बनाता है, अकर्मण्यता भी आँख नहीं खोलने देती। आख़िर आँख खोलने में भी तो ऊर्जा लगती है। इसलिए गाँधीवाद का सेतु विकसित तथा विकासशील दोनों को एक करके बर्फ़ से महा झील बना सकता है और मनुष्य जाति पर ईश्वर को गर्व होगा, न कि वह बार-बार अवतार ले और रावण-कंस को मारता फिरे। जब उसने मनुष्य बनकर अत्याचारियों को मारा, तब हमारा प्रथम कर्तव्य हो जाता है कि हम हिंसा, भोग, अंधविश्वास तथा अकर्मण्यता को मारें।

जैसे हर कण रोशनी का कार्य करता है, वैसे ही हर विचार, साधना तथा साक्षात्कार भी प्रकाश है। प्रकाश की किरण काँटे पर भी गिरती है, फूल पर भी, पत्थर पर भी, पानी पर भी, लेकिन वह कहीं रुकती नहीं। इसी तरह गाँधीवाद है प्रक्रिया-प्रकाश, जो भविष्य में सदा प्रासंगिक होगा और आलोकमय रहेगा गाँधीवाद, क्योंकि इससे प्रेम, करुणा, अहिंसा है, जो उच्चतर प्रकाश-किरणें हैं।

पहले हम किसी वस्तु, किसी दृश्य या प्रवाह को देखते हैं। पहले कोई उड़ता पंछी, बहती हुई नदी, देदीप्यमान पर्वत हमारी आँख से हमारे मस्तिष्क में उतर जाता है, फिर वह बनता है स्मृति, जिससे समय-समय पर दृश्य याद आता रहता है। किसी मनुष्य के साथ सालों रह जायें तो वह स्मृति इतनी गहराई में उतर जाती है कि कभी-कभी उसके बिना जीना संभव नहीं होता। इसीलिए दो अनजाने स्त्री-पुरुष शादी के बाद भारतवर्ष में एक साथ सालों रहने के बाद एक दूसरे के लिए इतने आवश्यक हो जाते हैं कि बिछुड़ने पर दारुण दु:ख मिलता है। ये सारी चीज़ें स्मृति-कोष की विलक्षणता के कारण हैं। किसी से जुड़ना योग की एक शुरुआती पद्धति है। इसी तरह किसी अतीत-व्यक्ति से जुड़ना तभी संभव है, जब हम उसके क्रिया-कलापों, जगहों तथा विचारों से परिचित हों। गाँधीजी की तस्वीर, फिल्म या मूर्तियाँ देखकर, उनके ऊपर लिखे उपन्यास पढ़कर, वे जहाँ-जहाँ रहे, उन भवनों तथा जगहों में जाकर उनका अनुभव तथा अनुभूति की जा सकती है।

गाँधीजी जिस कोठरी में पैदा हुए थे, वहाँ जाकर मेरी सिगरेट-लत छूट गयी, जबकि उसी भवन के आस-पास शराब की दुकानें भी हैं, पोरबंदर में स्मगलिंग भी होती है सागर तट से। आज भी जबकि पोरबंदर, अहमदाबाद, बम्बई, पवनार-नागपुर, दिल्ली, इलाहाबाद, वाराणसी, कलकत्ता आदि वाणिज्य, वित्त, भ्रष्टाचार, राजनीति तथा स्खलन से घिनौने लगते हैं, वहीं पोरबंदर की वह कोठरी, जिसमें गाँधीजी जनमे; अहमदाबाद के जिस आश्रम में गाँधीजी रहे; मणि भवन, मुंबई, जिसमें गाँधीजी का प्रकाश फैला, एक भव्य और गहरी शान्ति से आलोकित मिलते हैं। जहाँ-जहाँ भी वे दीर्घकाल तक रहे, ख़ासकर साधना-सत्य और अहिंसा से महात्मा बनने के बाद, वे जगहें, भवन तथा कोठरियाँ और ऐनक-खड़ाऊँ आदि अजीब-सी शांति प्रदान करते हैं। मैं बहुत से जंगलों के अंदर भी गया हूँ, सागर के तट पर रहा हूँ और कुंभ आदि को भी देखा है, मजमा जुटा लेने वाले प्रवचनकर्ताओं को भी सुना है, लेकिन गाँधीजी की जन्म-कोठरी जैसी गहरी शांति गीता पुस्तक में भी नहीं मिली।

सारनाथ में गौतम की पद्मासन में भव्य प्रतिमा से मिली शांति, शिव के योगस्थ मुखमंडल से निकली स्थिरता गाँधीजी की मूर्ति या तस्वीर से मुझे मिलती है। लाठी लिए हँसते, भागते गाँधी की तस्वीर आनंद-विभोर कर देती है। शांति और आनंद गाँधीजी के जीवन से फूटता रहता है। स्थिर मन से पकड़ें तो अतीत की हर चेतना हमें गहरी शांति देती है।

साहित्य, विज्ञान, कला तथा संगीत से मन:स्थिति का निर्माण होता है। कभी साहित्य ने गाँधीजी को समृद्ध किया तो कभी गाँधीजी पर महानतम लोगों ने साहित्य लिखा। कभी चुंबक ने विद्युत तथा प्रकाश पैदा किया तो कभी विद्युत ने चुंबकत्व बनाया। इसी तरह कभी गाँधीजी ने रस्किन तथा टॉल्सटॉय, वेदव्यास, तुलसी को पढ़ा तो कभी रोम्याँ रोलाँ ने गाँधीजी पर पुस्तक लिखी। प्रकृति में सहअस्तित्व की एक प्रक्रिया है परस्परता। एक दूसरे में उतरते हुए, एक दूसरे को प्रभावित करते हुए सृष्टि महानता की ओर बढ़ रही है। जब हम कोई गिरता हुआ पेड़ देखते हैं, तब हमारा मन भी टूटता है और जब हम किसी उड़ते चहचहाते पक्षी को देखते हैं, तब हमारा मन भी प्रफुल्लित हो बुलंदी पर पहुँचता है। वर्षा की असंख्य बूंदों को गिरता देखकर मन गिरता नहीं, बल्कि उठता है, जबकि आँसू को गिरता देख मन रोता है। ऐसा विलक्षण है मन कि उत्थान-पतन के उद्देश्य को पहचान कर वह विपन्न या समृद्ध होता है। जब गाँधीजी अंग्रेज़ों की लाठी खा रहे थे, तब का दृश्य अजीब-सी स्मृति बनता है और हमारे किसी भी संघर्ष या कष्ट को तुच्छ कर देता है। क्योंकि आज का कष्ट तो यह है कि गाड़ी विलम्ब से चल रही है या भोजन स्वादिष्ट नहीं है या किसी रिश्तेदार ने अपनी सतही समृद्धि से हमारी कम सतही विपन्नता को धिक्कारा है।

जिन-जिन जगहों, भवनों तथा कमरों में गाँधीजी ज़्यादा दिन तक रहे हैं, वे किसी मंदिर से भी अधिक शांति इसलिए देते हैं कि आज मंदिरों के पंडे-पुजारी तथा उनके व्यवस्थापक भ्रष्ट हैं। कितने तो साधु के वेश में स्त्री-शोषण में भी लगे हुए हैं। कुछ तो जेल की हवा भी खाते हैं। इस तरह मंदिरों आदि में, जहाँ ईश्वर के नाम पर मूर्तियें का पत्थर है और पुजारियों की भ्रष्ट जीवन-शैली है, वहीं पोरबंदर, अहमदाबाद; मणि भवन, मुंबई आदि स्थानों पर कमरों में अतीत अपने अक्षत अस्तित्व के साथ गहराई से व्याप्त मिलता है। मौन, नीरवता, नि:शब्दता तथा साधना की सूक्ष्म तरंगें इन जगहों पर महसूस की जा सकती हैं। जब हम अपनी स्थिरता, मन की भावना से इन जगहों पर जाते हैं, तभी हमें शांति महसूस होती है। दरअसल जब हम अहंकार, पद से जड़ होकर, जाँच या यूँ ही घूमने की दृष्टि से जाते हैं, तब भी इन जगहों में थोड़ी-बहुत शांति तथा चेतना मिलती ही है। पोरबंदर की कोठरी में जाने के पहले आख़िर मैं सिगरेट तो पीता ही था। अत: ये गाँधी मंदिर प्रभाव तो डालते ही हैं।

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