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' भारत छोड़ो आंदोलन '

गांधीजी ने 'राजनीति' से संन्यास ले लिया था। लेकिन वास्तव में वे भारतीय जनजीवन की समस्याओं से गहराई से जुड़े थे। द्वितीय विश्व युद्ध ने उन्हें राजनीतिक अखाड़े में फिर लाकर खड़ा कर दिया। भारतीयों से पूछे बिना ब्रिटिश सरकार ने भारत को भी युद्ध में झेंक दिया। बोअर युद्ध में गांधीजी की भूमिका से अंग्रेज परिचित थे। वाइसराय लॉर्ड लिनलिथगो ने युद्ध की घोषणा के अगले दिन गांधीजी को सिमला बुलाया। युद्ध के विनाश की दुखी मन से चर्चा करते हुए गांधीजी ने इंग्लैंड के प्रति सहानुभूति जताई। वे बिना शर्त इंग्लैंड का समर्थन देने को तैयार थे। वे नहीं चाहते थे कि इंग्लैंड की मजबूरी का फायदा उठाया जाये, यह उनके सिद्धांत के खिलाफ था। दूसरी ओर कांग्रेस चाहती थी कि शर्त विशेष पर ही इंग्लैंड को समर्थन दिया जाये।

14 सितंबर 1939 को कांग्रेसी नेताओं ने घोषणापत्र जारी कर दिया, जिसमें हिटलर के हमले की निंदा की गई और कहा गया कि 'एक स्वतंत्र भारत' अन्य स्वतंत्र राष्ट्रों का समर्थन करेगा। इस घोषणा पत्र में गांधीजी के दृष्टिकोण का समावेश नहीं था। कांग्रेस को 'नहीं' में उत्तर दे दिया गया, साथ ही कहा गया कि ब्रिटेन ऐसी भारतीय सरकार को सत्ता नहीं सौंप सकता, जिस पर भारतीय जनता के बड़े हिस्से को आपत्ति हो। संकेत गैर-कांग्रेसी और कांग्रेस विरोधी मुस्लिमों की ओर था, जिनकी कमान मोहम्मद अली जिन्ना के हाथ में थी।

गांधीजी को यह कहते हुए बीस बरस से भी ज्यादा समय हो गया था कि हिंदु-मुस्लिम एकता के बिना भारत को स्वतंत्रता नहीं मिल सकती। लेकिन सांप्रदायिकता का रंग बार-बार चढ़ता रहा। अंत में गांधीजी ने 'भारत छोड़ो' का नारा बुलंद किया। 'भारत छोड़ो' आंदोलन एक साथ दो खतरों का हल था - पहला जापानी आक्रमण से देश की रक्षा और आपसी फूट को मिटाकर एकता स्थापित करना। एक बार फिर गांधीजी ने 'सत्याग्रह' शुरू किया। लोगों को तैयार करने लगे गांधीजी। इस आंदोलन ने देश के वातावरण को गरम कर दिया था। 7 अगस्त 1942 को बंबई में एक ऐतिहासिक बैठक हुई। बैठक में फैसला लिया गया कि, ूयदि ब्रिटिश राज्य को भारत से तुंत हटाया नहीं गया तो गांधीजी के नेतृत्व में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया जायेगा।ृ

गांधीजी किसी भी योजना पर कार्य करने से पहले एक बार वाइसराय से मिलना चाहते थे। उसने गांधीजी से वार्ता करना उचित नहीं समझा। उसने कड़े हाथ से काम लेने का फैसला लिया। 9 अगस्त की सुबह कांग्रेस के सभी वरिष्ठ नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। इन गिरफ्तारीयों की खबर में पूरा देश जलने लगा। बंगाल, बिहार, बंबई आदि स्थलों पर जनता ने थाने, डाकघर, अदालतें, रेलवे स्टेशन आदि जला डाले। खूब उपद्रव हुआ। इन उपद्रवों की जिम्मेदारी के संबंध में पूना स्थित आगा खाँ काफी लंबा पत्र-व्यवहार हुआ। लॉर्ड लिनलिथगो ने जब अहिंसा में गांधीजी की आस्था और ईमानदारी में ही संदेह प्रकट कर दिया तो महात्माजी का हृदय फट सा गया। इस आत्मिक कष्ट से शांति पाने के लिए उन्होंने 10 फरवरी 1943 से इक्कीस दिन का उपवास आरंभ कर दिया। कैद में गुजारे ये वक़्त गांधीजी के लिए बड़े दुखदायी साबित हुए। गिरफ्तारी के छः दिन बाद उनके 24 वर्ष से सहयोगी रहे तथा सेक्रेटरी की भूमिका निभा रहे महादेव देसाई हार्ट फेल होने से चल बसे। इसी दौरान उनकी पत्नी कस्तूरबा गंभीर रूप से बीमार पड़ीं। उन्होंने भी इस दुनिया को अलविदा कह दिया। मानो गांधीजी पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा हो।

गांधीजी की मानसिक स्थिति स्वाभाविक रूप से श्रेष्ठ नहीं थी। कस्तूरबा की मृत्यु के 6 सप्ताह बाद मलेरिया ने गांधीजी को भी अपनी चपेट में ले लिय। तेज बुखार रहने लगा। सरकार के लिए उनकी रिहाई उनके जेल में मर जाने से कम परेशानी का कारण होती। उन्हें बिना शर्त के 6 मई को जेल से रिहा कर दिया गया। वे काफी कमजोर हो चुके थे। कुछ समय तो उनही स्थिति बेहद खराब हुई, लेकिन धीरे-धीरे देश कामों में ध्यान देने लायक शक्ति उनमें आ गई थी। उन्होंने देश की दशा देखी। गांधीजी की इच्छा थी कि वे वाइसराय लॉर्ड वॉवेल से मिलें, लेकिन वॉवेल ने बातचीत करने से साफ मना कर दिया। गांधीजी जानते थे कि ब्रिटिश मुस्लिमों की माँगों को प्रोत्साहित कर रही है ताकि हिंदुओं के साथ मतभेद के अवसर बने रहें। वे उनकी 'फूट डालो और राज्य करो' की नीति से पूरी तरह परिचित थे। गांधीजी हिंदु-मुस्लिम एकता के पक्ष में थे। दोनों समुदायों को एकता की कड़ी में पिरोने के लिए उन्होंने उपवास भी रखा। उन्होंने काफी प्रयास किया किंतु मुस्लिमों के नेता जिन्ना 'मुस्लिमों के लिए अलग राज्य' से कुछ कम पाकर समझौता करने को बिलकुल तैयार न थे। जिन्ना ने मुसलमानों के लिए अलग राज्य की माँग रखी।

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