| | |

वर्तमान पंचायत राज और गांधीवादी पंचायत राज का तुलनात्मक विश्लेषण 

डॉ. रमेश चंद्र शर्मा

गांधी चिन्तन स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व एवम् पश्चात् स्वदेशी एवं विदेशी बुद्धिजीवी वर्ग की दिलचस्पी को अपनी ओर आकृष्ट करता रहा है। रोम्या रोलां ने लिखा है कि अगर भारत को समझना है तो गांधी और स्वामी विवेकानन्द को समझो वह सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि की झलक है। गांधीजी ने भारतीय परम्परा और संस्कृति का सूक्ष्मतथा विशाल दृष्टि से उसकी आन्तरिक शक्ति एवं निरन्तरता को समझा। इसी दृष्टि के निर्माण में संस्कारिक जडताओं से मुक्ति की चेष्टा प्रखरतम रूप से मौजूद है। गांधी सद्गुणी व्यक्ति एवं नैतिकता परक समाज के प्रयोजन से प्रेरित ऐसे जनतंत्र के पक्षधर थे।

4 नवम्बर 1948 को संविधान के द्वितीय प्रारूप पर विचार करने हेतु जब संविधान सभा की बैठक हुई, बैठक में इस आधार पर संविधान की आलोचना हुई कि यह संविधान न तो भारतीय है और ना ही गांधीवादी। प्रोफेसर एन.जी. रंगा ने स्पष्ट रूप से कहा था कि प्रारूप संविधान में गांधी तथा उन असंख्य शहीदों जिनके कारण संविधान सभा का गठन सम्भव हुआ, की महान सेवाओं का उल्लेख और सिद्धान्तों का समावेश नहीं किया गया है।1 शिबनलाल सक्सेना ने प्रारूप का विरोध करते हुए कहा था कि यह उन सब उद्देश्यों का प्रतिवाद है जिसके लिए गांधी ने संघर्ष किया था।2 महावीर त्यागी इस निर्मित संविधान से अत्यन्त असंतुष्ट थे। उन्होंने संविधायकों से अपील की थी कि उन्हें इस प्रारूप की परख गांधी के दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर करनी चाहिए और इस बात को सुनिश्चित करना चाहिए कि गांधी की मृत्यु के बाद इतनी जल्दी ही देश से गांधी दृष्टिकोण का विलोप न हो पाये ।3 डॉ. अम्बेडकर का कहना था कि गांव संकीर्णता, अज्ञानता, अंधविश्वास और साम्प्रदायिकता व निम्न स्वार्थ़ों की पूर्ति का अण्डा है। ग्रामीण गणतंत्र के कारण भारत का नाश हुआ है। ग्राम पंचायतों को संविधान का आधार बनाना आत्मघाती और खतरनाक सिद्ध होगा। विकेन्द्रीकरण से अन्याय, अत्याचार बढेगा, रूढिवादी कट्टर पंथी सत्ता हथिया लेंगे। गांधी-प्रारूप हरिजन और गरीब का उत्थान करने वाला नहीं है बल्कि इसका यथार्थ क्रियान्वयन भी असम्भव है।4 संविधान सभा और उसके बाहर ग्राम पंचायतों के प्रति अभिव्यक्त अगाध प्रेम, विश्वास और राज व्यवस्था का आधार बनाये जाने की वकालत संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों को आश्वस्त नहीं कर सके।

संविधायक सच्चे मन से पंचायत राज व्यवस्था सम्बन्धी गांधी विचारों को स्थापित करना नहीं चाहते थे अन्यथा संविधान निर्माण के प्रथम ड्राफ्ट, संविधान की प्रस्तावना इत्यादि में इसका उल्लेख पहले ही किया जा सकता था। यह कार्य तो गांधी समर्थकों द्वारा जीवन्त बहस का परिणाम रहा है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण कारण गांधी के सच्चे वारिस होने का दावा किया जा सके, इसलिए ऐसा किया गया अन्यथा पंचायत राज पर विस्तृत विवरण, दिशा निर्देश संविधान में निहित होते; जैसे शक्तियां, निर्वाचन, वित्तीय प्रबन्धन इत्यादि। स्वतंत्र भारत के संविधान में अध्याय चार अनु 40 स्पष्ट करता है कि राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए अग्रसर होगा तथा उसको ऐसी शक्तियां और अधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत-शासन की इकाईयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक है।

73वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992 की धारा 2 व 4 में संशोधन के साथ ही संविधान भाग 9 वप और 11वप अनुसूची को प्रतिस्थापित करता है।6 राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के अनुसरण में पहली बार सम्पूर्ण देश में पंचायती राज की संविधानिक व्यवस्था की गई है। इसके अनुसार ग्राम सभा के सदस्यों के लिए सीटों का जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण, महिलाओं के लिए कम से कम 33 प्रतिशत सीटों का आरक्षण, पंचायतों की अवधि पांच वर्ष करने व किसी पंचायत को भंग कर देने पर छः माह में चुनाव कराने की व्यवस्था की गई है। 11वप अनुसूची में पंचायतों के कार्य क्षेत्र में आने वाले विषय दिए गए हैं।

गांधी के विचारों के अनुरूप पंचायत राज में गणराज्य के सभी गुण होने चाहिए। जिसमें स्वावलम्बन, स्वशासन आवश्यकतानुसार स्वतंत्रता और विकेन्द्रीकरण तथा कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका के सभी अधिकार पंचायत के पास हों। निर्णय आम सहमति या जनहित में हो, न कि मत गिनती द्वारा। गांवों में गरीबी और बेरोजगारी निवारण जैसी सभी नीतियां निर्मित करने का दायित्व व अधिकार रखते हों। वास्तव में ग्राम का नागरिक बेरोजगार, भूखा, वस्त्रहीन न रहें ऐसे दायित्वों की पूर्ति का कार्य पंचायतें करेंगी। अर्थात् व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकता - भोजन, वस्त्र, आवास की जिम्मेदारी गांव अपने स्तर पर प्रबन्ध करेगा। लोगों में प्रतिस्पर्धा के स्थान पर सहयोग हो, अगर प्रतिस्पर्धा भी होगी तो अधिक सेवा करने की। चुनाव में शारीरिक श्रम करने वाले जनप्रतिनिधि खडे किए जाएंगे। समाज सेवी सदस्य को जनता स्वयं खडा करेगी, न कि राजनैतिक दलों द्वारा खडे किए गये व्यक्तियों में से किसी एक को वोट देना जनता की मजबूरी होगी। वास्तव में आज के प्रतिनिधियों को जन इच्छा का प्रतिनिधि कहना ही गलत है। जनता द्वारा निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की जवाबदारी सुनिश्चित होगी। कदाचार, अनैतिकता और जनहित के विपरित आचरण की स्थिति में 75 प्रतिशत जनता की इच्छा के अनुसार प्रतिनिधि को वापिस बुलाया जा सकेगा। गांधीय पंचायतराज सामूौिक वृत के अनुरूप होगा। ऊपर के स्थान पर नीचे से ऊपर की ओर सत्ता का विकेन्द्रीकरण होगा, यही गांधी के सपनों का पंचायत राज है।7

प्रश्न यह उठता है कि गांधीजी ने पंचायत राज को क्यों इतनी प्रधानता दी? वे भारत को जितनी अच्छी तरह जानते थे अन्य कोई उतना अच्छी तरह नहीं समझाता था। वे भारतीय मानस को समझने वाले व्यक्ति थे।

उन्होंने समझा कि नव जाग्रत भारत का मानव जो ग्रामों में रहता है, अपनी गरिमा और गौरव को पंचायत के पुनरुत्थान द्वारा ही प्राप्त कर सकता है। भारत गांवों में बसता है और जब तक गांवों का सामाजिक एवं आर्थिक विकास नहीं होगा तब तक भारत का विकास सम्भव नहीं है। वे लोग भारत का ही नाश करेंगे जो गांवों को कमजोर करके उनका नाश करेंगे।

स्वतंत्रता के पश्चात पंचायत राज की स्थापना के लिए समय-समय पर शोध कार्य होते रहे और सुझाव सरकारों के पास आते गये। बलवन्त राय मेहता कमेटी, एल. एम. सिंघवी कमेटी जिसमें मुख्य है। संविधान का 73वां संशोधन सरकारी पंचायत राज की स्थापना में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। स्वतंत्रता से आज तक ग्राम विकास के घोषित कार्यक्रमों के पीछे वोट की राजनीति हावी रही है। गांधी दृष्टि के नाम का उपयोग करना और गांधीजी के सिद्धान्तों से दूर रहने की प्रवृति इनके पीछे व्याप्त रही है। उपरोक्त संशोधन द्वारा स्थापित निर्वाचन प्रणाली, दलबन्दी, गुटबन्दी, स्वार्थ, घृणा, द्वेष, हिंसा का विस्तार करनेवाली है, जिसकी गांधी सदैव खिलाफत करते रहे हैं। गांधी विचार के अनुसार प्रत्यक्ष जनता द्वारा स्थापित जन-प्रतिनिधि चुनाव द्वारा ही ऐसे दोषों से बचा जा सकता है। आज की व्यवस्था प्रतिनिधि व्यवस्था के एक अंग रूप में है, जो आत्मनिर्भरता के स्थान पर केन्ौ पर निर्भरता में वृद्धि ही करता है। इसमें निर्णय, नियोजन, प्रक्रिया निर्धारण का आरम्भिक बिन्दु राजधानी है, जबकि गांधी चिन्तन में गांव होना चाहिए, सत्ता पीरामिड के अनुसार ऊपर से नीचे को विकेन्द्रीत होती है। गांधी विचार सत्ता नीचे से ऊपर जानी चाहिए। सरकार द्वारा स्थापित पंचायतों का मुख्य उद्देश्य, लक्ष्य की सिद्धी है। सिद्धान्त प्रायः गौण हैं। जबकि गांधी सिद्धान्त व साधनों को प्रथम स्थान देते हैं। गांधी ग्राम पंचायत के स्थान पर स्थापित पंचायती राज प्रभावी लाभदायक एजेन्सी मात्र बनकर रह गया है। भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने सही कहा था "हम बापू के सपनों का पंचायत राज स्थापित नहीं कर सके।" वर्तमान पंचायती राज व्यवस्था में गांधी की ग्राम-स्वराज योजना को ढूंढना मृग-मरीचिका होगा।

गांधी विचार गांव के सम्बन्ध में जीवन जीने की एक समग्र योजना है। जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्रता को सर्वोच्च महत्व देने के साथ समाज की सर्वोपरिता के साथ सामंजस्य है। वांछित लक्ष्यों की पूर्ति के लिए सत्य अहिंसा के साधन अपनाने की बात कही गयी है। वर्तमान में स्थापित पंचायत योजना में गांधी चिन्तन को ढूंढना चाहें तो वह मिलना दूभर है क्योंकि दोनों संकल्पनाओं में कोई साम्य नहीं।

गांधी जहां आत्मनिर्भर गांव की कल्पना करते हैं, वहप आज हमारे गांव वैश्वीकरण के युग में अपनी अधिकतर आवश्यकताओं के लिए पराश्रित होते चले जा रहे हैं। इस योजना में गांव को आत्मनिर्भर बनाने का आधार नहीं बनाया गया।

और न ही इस दिशा में सार्थक योगदान किया गया। अतः वर्तमान पंचायत राज गांधी की अवधारणा से मेल नहीं खाता है। गांधीजी और संविधायकों की सोच में भारी अन्तर रहा है। इसी के परिणामस्वरूप पंचायत राज सरकारी कार्यक्रम बनकर रह गया।

73वें संविधान संशोधन के बाद पंचायत राज लोकतंत्र की एक ईकाई के रूप में प्रकट हुआ है। अधिकांश पंचायत की योजनाएं केन्ौ से निर्मित होती हैं। ऐसे में इसे गांधी का पंचायत राज कैसे कहा जा सकता है ? जनता को सत्ता वापसी की सिद्धान्त बात यह संशोधन करता है, लेकिन मौजूदा व्यवस्था में ऐसा पंचायती राज असम्भव है। आज सरकार व जनता में साफ बात कहने की हिम्मत नहीं है। यह क्यों नहीं कहा जाता कि हमें पंचायत राज नहीं बल्कि गांवों को आधुनिक विकास का साधन और गांवों का `वैश्वीकरणवादी` बाजारीकरण करने के लिए एक एजेन्सी की आवश्यकता है क्योंकि इसी दिशा में हम बढ रहे हैं। वास्तव में पंचायती राज की वर्तमान व्यवस्था आम जनता को लोकशाही की प्रक्रिया में अपना प्रत्यक्ष योगदान करने से वंचित रखने का माध्यम बन गयी है, जबकि गांव ही ऐसा स्तर है, जहां स्वशासन में जनता का प्रत्यक्ष योगदान हो सकता है। पंचायत राज संशोधन कानून का मुख्य प्रावधान केवल चुनावों से संबंधित है। जनता के हाथ में सत्ता वास्तव में तभी आएगी जब हर गांव की अपनी पंचायत होगी। आज की तरह दो-चार-पांच गांवों को मिलाकर नहीं आ सकती है। पंचायतों में राजनैतिक फायदा उठाने की दृष्टि से चुनावों में उनके लिए अलग-अलग तरीकों से आरक्षण का प्रावधान किया गया है जो धार्मिक तथा जातिगत भेदभाव को ही प्रोत्साहन देता है, ये सब बातें गांधी ग्राम स्वराज्य के लिए घातक है।

राजनीति विश्लेषक रजनी कोठारी अपनी पुस्तक 'भारत में राजनीति' में लिखते हैं कि पंचायत राज में बालिग मताधिकार, राजनैतिक दलों की स्पर्धा और आर्थिक योजनाओं तथा जनता की भलाई के कार्य़ों के चालू होने से जातियों के मुखियाओं का महत्व बढ गया है। राजनैतिक नेताओं को इनसे व्यवहार करना पडता है। इस प्रकार गांवों के सामाजिक ढांचे का राजनीतिकरण हो रहा है। शासन तथा राजनीतिक दलों का नीचे की ओर फैलाव हो रहा है। जिससे भारतीय समाज के शक्ति के ढांचे में परिवर्तन आ गया है लेकिन शक्ति के इस फैलाव से गांधी की कल्पना के स्वावलम्बी ग्राम समाज की स्थापना नहीं हुई है। राजनीतिक संगठन या शासन की इकाई के रूप में गांव का महत्व घटा है। ग्राम सुधार या सामुदायिक शिक्षा, प्रचार, यातायात, जातीय संगठनों आदि के द्वारा गांव ऊपर के स्तर से प्रभावित होते हैं।

संविधान निर्माताओं ने चाहे दबाव में ही सही, पंचायतराज व्यवस्था का समावेश संविधान में आधे-अधूरे मन से किया हो परन्तु इसका दूरगामी प्रभाव पडा है। इससे भारतीय राज व्यवस्था का विकेन्द्रीकरण हो रहा है और देश में एक सी स्थानीय संस्थाओं के निर्माण से उसकी एकता भी बढ रही है। संभव है इस कदम का दूरगामी महत्व नेताओं ने उस समय न समझा हो, प्रशासनिक और बौद्धिक क्षेत्रों में इसकी सफलता में उन्हें संदेह था और इसका मजाक उडाया गया था। परन्तु आज इसके महत्व एवम् सफलता के कार्य़ों को विस्मृत नहीं किया जा सकता। यह गांधी विचारों की दूरदर्शिता की श्रेष्ठता को स्वमेव प्रमाणित कर देता है।

73वां संशोधन अधिनियम स्थानीय सरकार को मात्र संवैधानिक दर्जा देता है। सत्ता के विकेन्द्रीकरण के लिए स्थानीय सरकार को स्वतंत्र इकाई का दर्जा देना आज भी बाकी है। इस अर्थ में सत्ता के विकेन्द्रीकरण और स्वतंत्र निकाय वाली पंचायत ग्रामीण गणतंत्र का गांधी-सपना सपना ही रहेगा।

देश के अन्दर विकेन्द्रीकरण की जब एक पृष्ठभूमि है, कानून निर्मित हो चुके हैं, परन्तु जिन सही अर्थ़ों में यह डिसेंट्रलाइजेशन होना चाहिए था, यह उन अर्थ़ों में नहीं हुआ है। संविधान में "यूनिट ऑफ सेल्फ गवर्नमेन्ट" लिखा है जब कि गांधीजी ने "सेल्फ सफिश्येंट विलेज रिपब्लिक" कहा था। यह जो बनाये हुए ढांचे हैं, वह खोखले रह गये हैं। पंचायतों को अधिकार, जिम्मेदारियां वा साधन विशेषतः प्रदान नहीं किए गए हैं, न ही नौकरशाही कार्य़ों के क्रियान्वयन हेतु प्रदान की गई। जो नौकरशाही वहां है, वह तो वहां `मालिकशाही` बन चुकी है।

यह संशोधन निर्धारित समय में निर्वाचन कराने की व्यवस्था करता है परन्तु निर्धारित समय पर निर्वाचन नहीं कराने पर राज्य सरकारों के विरुद्ध क्या कार्यवाही की जा सकती है और कैसे, इस पर संविधान में कुछ नहीं लिखा है। इस प्रकार की जो भी टेक्निकल कमियां हैं उन्हें दूर करना होगा।

निष्कर्ष के रूप में इतना ही कहना है कि गांधी के पंचायत राज और वर्तमान सरकारी पंचायतों का कहना भ्रम उत्पन्न करना है। दोनों का तुलनात्मक विश्लेषण यह स्पष्ट करता है कि गांधी का पंचायत राज चाहे काल्पनिक कहा जाए, परन्तु वह श्रेष्ठ है। अगर गांधी का पंचायत राज लागू करना है तो सम्पूर्ण व्यवस्था में बदलाव लाना होगा, नागरिकों को निर्भीकता, सीमित आवश्यकता, परोपकार और पारदर्शीभावना, नैतिक चरित्र की श्रेष्ठता से कार्य करना होगा। सरकारों की तरफ मुखापेक्षा तक छोडनी होगी तभी हम गांधी पंचायत राज की ओर बढ सकते हैं।


संदर्भ ग्रंथ

1. प्रो. एन.जी. रंगा, सभावाद वादविवाद, खण्ड 11, भारत सरकार प्रकाशन 1966, पृ. 349

2. शिब्बन लाल सक्सेना, संविधान सभावाद वाद विवाद, खण्ड 11, भारत सरकार प्रकाशन 1966, पृ. 1209

3. महावीर त्यागी, संविधान सभावाद वाद विवाद, खण्ड 11, भारत सरकार प्रकाशन 1966, पृ. 360

4. डॉ. अम्बेडकर, संविधान सभावाद वाद विवाद, खण्ड 7, भारत सरकार प्रकाशन 1967, पृ. 39,257 से 259

5. भारतीय संविधान, भारत सरकार, 1991, पृ. 141

6. जयनारायण पाड्ये, भारत का संविधान, 1966, इलाहाबाद, पृ. 422-426

7. महात्मा गांधी, मेरे सपनों का भारत, 1969, वाराणसी सर्व सेवा संघ, पृ. 62

8. ठाकुर दास बंग, असली स्वराज्य, 1995, वाराणसी, सर्व सेवा संघ, पृ. 32

9. रजनी कोठारी, भारत में राजनीति, लोंगमेन, पृ. 93

| | |