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सत्य

सत्य का दिव्य संदेश

सत्य.... क्या है? यह एक कठिन प्रश्न है, लेकिन अपने लिए मैंने इसे यह कहकर सुलझा लिया है कि जो तुम्हारे अंतःकरण की आवाज कहे, वह सत्य है। आप पूछते हैं कि यदि ऐसा है तो भिन्न-भिन्न लोगों के सत्य परस्पर भिन्न और विरोधी क्यों होते हैं? चूंकि मानव मन असंख्य माध्यमों के जरिए काम करता है और सभी लोगों के मन का विकास एक-सा नहीं होता इसलिए जो एक व्यक्ति के लिए सत्य होगा, वह दूसरे के लिए असत्य हो सकता है। अतः जिन्होंने ये प्रयोग किए हैं, वे इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि इन प्रयोगों को करते समय कुछ शर्तों का पालन करना जरूरी है।

ऐसा इसलिए है कि आजकल हर आदमी किसी तरह की कोई साधना किए बगैर अंतःकरण के अधिकार का दावा कर रहा है, और हैरान दुनिया को जाने कितना असत्य थमाया जा रहा है। मैं सच्ची विनम्रता के साथ तुमसे कहना चाहता हूं कि जिस व्यक्ति में विनम्रता कूट-कूट न भरी हो, उसे सत्य नहीं मिल सकता। यदि तुम्हें सत्य के सागर में तैरना है, तो तुम्हें अपनी हस्ती को पूरी तरह मिटा देना होगा ।

यंग, 31-12-1931, पृ. 428


केवल सत्य और प्रेम-अहिंसा-ही महत्वपूर्ण है। जहां ये हैं, वहां अंततः सब कुछ ठीक हो जाएगा। इस नियम का कोई अपवाद नहीं है।

यंग, 18-8-1927, पृ. 265

सर्वोच्च सिद्धांत

मेरे लिए सत्य सर्वोच्च सिद्धांत है, जिसमें अन्य अनेक सिंद्धांत समाविष्ट हैं। यह सत्य केवल वाणी का सत्य नहीं है अपितु विचार का भी है, और हमारी धारणा का सापेक्ष सत्य ही नहीं अपितु निरपेक्ष सत्य, सनातन सिद्धांत, अर्थात ईश्वर है। ईश्वर की असंख्य परिभाषाएं हैं, क्योंकि वह असंख्य रूपों में प्रकट होता है। ये असंख्य रूप देखकर मैं आश्चर्य और भय से अभिभूत हो जाता हूं और एक क्षण के लिए तो स्तंभित रह जाता हूं।

पर मैं ईश्वर को केवल सत्य के रूप में पूजता हूं। मैं अभी उसे प्राप्त नहीं कर सका हूं, पर निरंतर उसकी खोज में हूं। इस खोज में हूं। इस खोज में मैं अपनी सर्वाधिक प्रिय वस्तुओं का त्याग करने के लिए तैयार हूं। यदि मुझे इसके लिए अपने जीवन का भी उत्सर्ग करना पड़े तो मुझे आशा है कि मैं उसके लिए तैयार रहूंगा। लेकिन जब तक मुझे इस निरपेक्ष सत्य की प्राप्ति नहीं होती तब तक मुझे अपनी धारणा के सापेक्ष सत्य पर ही अवलंबित रहना होगा। तब तक यह सापेक्ष सत्य ही मेरा प्रकाशस्तंभ, मेरी ढाल और मेरी फरी है। यद्यपि सत्य की खोज का मार्ग कठिन और संकरा तथा तलवार की धार की तरह तेज है, पर मेरे लिए यह द्रqततम और सरलतम है। इस मार्ग पर दृढतापूर्वक चलते जाने के कारण, अपनी भयंकर भूलें भी मुझे नगण्य प्रतीत हुई है। इस मार्ग ने मुझे संताप से बचाया है और मैं अपनी प्रकाश-किरण का अनुगमन करते हुए आगे बढ़त गया हूं। मार्ग में चलते-चलते मुझे प्रायः निरपेक्ष सत्य-ईश्वर-की हल्की-सी झलक दिखाई दी है, और मेरा यह विश्वास दिनोंदिन दृढ़तर होता जाता है कि केवल ईश्वर ही वास्तविक है और शेष सब अवास्तविक।

सत्य की खोज

एक बात और मेरे मन में पक्की होती जा रही है कि जो कुछ मेरे लिए संभव है, वह एक बच्चे के लिए भी संभव है। यह बात मैं ठोस कारणों के आधार पर कह रहा हूं। सत्य की खोज के साधन जितने कठिन हैं, उतने ही आसान भी हैं। अहंकारी व्यक्ति को वे काफी कठिन लग सकते हैं और अबोध शिशु को पर्याप्त सरल।

सत्य के खोजी को धूलि के कण से भी अधिक विनम्र होना चाहिए। धूलि के कणों को तो दुनिया अपने पैरों तले रौंदती है, लेकिन सत्य का खोजी इतना विनम्र होना चाहिए कि उसे धूलिकण भी रौंद सकें। तभी, और केवल तभी, उसे सत्य के दर्शन सम्भव होंगे।

ए, पृ. गअ


सत्य एक विशाल वृक्ष की तरह है। आप जितना उसका पोषण करेंगे, उतने ही ज्यादा फल यह देगा। सत्य की खान को जितना ही गहरा खोदेंगे, सेवा के नये-से-नये मार्गों के रूप में, यह उतने ही अधिक हीरे-जवाहरात देगा। वही, पृ. 159


मेरे विचार में, इस संसार में निश्चिंतताओं की आशा करना गलत है-यहां ईश्वर अर्थात सत्य के अलावा और सब कुछ अनिश्चित है। जो कुछ हमारे चारों ओर दिखाई देता है अथवा घटित हो रहा है, सब अनिश्चित है, अनित्य है। बस, एक ही सर्वोच्च सत्ता यहां है जो गोपन है किंतु निश्चित है, और वह व्यक्ति भाग्यशाली है जो इस निश्चित तत्व की एक झलक पाकर उसके साथ अपनी जीवन नैया को बांध देता है। इस सत्य की खोज ही जीवन का परमार्थ है।

वही, पृ. 184


सत्य की खोज में क्रोध, स्वार्थ, घृणा आदि विकार स्वभावतः छूटते जाते हैं अन्यथा सत्य की प्राप्ति असंभव ही हो जाए। जो व्यक्ति वासनाओं के वश में है, उसकी नीयत साफ होने पर भी वह कभी सत्य की प्राप्ति नहीं कर सकेगा। सत्य की खोज में सफलता प्राप्त होने पर मनुष्य प्रेम और घृणा, सुख और दुख आदि के द्वंद्वों से पूर्णतः मुक्त हो जाता है।

वही, पृ. 254-255

सत्य का दर्शन

सत्य की सार्वभौम एवं सर्वव्यापी भावना के प्रत्यक्ष दर्शन वही कर सकता है जो क्षुद्रतम प्राणी से भी उतना ही प्रेम कर सके जितना कि स्वयं को करता है। और जो ऐसा करने का आकांक्षी हो, वह जीवन के किसी क्षेत्र से अपने को असंपृक्त नहीं रख सकता। यही कारण है कि सत्य के प्रति मेरे अनुराग ने मुझे राजनीति के क्षेत्र में ला खड़ा किया है; और मैं बिना किसी हिचक के, किंतु विनम्रतापूर्वक यह नहीं जानते कि धर्म क्या है। वही, पृ. 370-71


सतत अनुभव ने मेरा यह विश्वास दृढ़ कर दिया है कि ईश्वर सत्य के अलावा और कुछ नहीं हैं.... सत्य की जो क्षणिक झलकियां..... मैं पा सका हूं, उनसे सत्य के अवर्णनीय तेज का वर्णन करना संभव नहीं है, सत्य का तेज नित्य दिखाई देने वाले सूर्य के प्रकाश से लाखों गुना प्रखर है।
यंग, 7-2-1929, पृ. 42


वस्तुतः मैं उस अतुल प्रभा की बहुत हल्की झलक ही पा सका हूं। लेकिन अपने अनुभव के बल पर मैं यह बात भरोसे के साथ कह सकता हूं कि सत्य का सर्वांग दर्शन वही कर सकता है जिसने अहिंसा को पूरी तरह अपना लिया हो। वही


सत्य प्रत्येक मनुष्य के हृदय में वास करता है, और मनुष्य को उसे वहीं खोजना चाहिए; सत्य जिसे जैसा दिखाई दे, वह उसी से निर्देशित हो। लेकिन किसी को यह अधिकार नहीं है कि वह सत्य का जिस रूप में दर्शन करता है, उसके अनुसार चलने के लिए दूसरे लोगों पर जोर-जबर्दस्ती करे। हरि, 24-11-1933, पृ. 6

निरपेक्ष सत्य

निरपेक्ष सत्य को जानना मनुष्य के वश की बात नहीं है। उसका कर्तव्य है कि सत्य जैसा उसे दिखाई दे, उसका अनुगमन करे, और ऐसा करते समय शुद्धतम साधन अर्थात अहिंसा को अपनाए। वही


केवल ईश्वर ही निरपेक्ष सत्य को जानता है। इसीलिए मैंने प्रायः कहा है कि सत्य ही ईश्वर है। इसका अर्थ हुआ कि मनुष्य, जोकि सीमित क्षमता वाला प्राणी है, निरपेक्ष सत्य को नहीं जान सकता। हरि, 7-4-1946, पृ. 70


इस दुनिया में निरपेक्ष सत्य किसी को ज्ञात नहीं है। यह गुण केवल ईश्वर में है। हम सभी को सापेक्ष सत्य का ही ज्ञान है। इसलिए सत्य जैसा हमें दिखाई देता है, हम उसी का अनुगमन कर सकते हैं। सत्य का ऐसा अनुगमन किसी को भटका नहीं सकता। हरि, 2-6-1946, पृ. 167

सत्य और मैं

मैंने अपने जीवन में ऐसी बातें कहने की गलती कभी नहीं की है जिनका मेरा अभिप्राय न हो- मेरा स्वभाव बात की तह तक सीधे पहुंचने का है, और यदि मैं कुछ समय के लिए तह तक न पहुंच पाऊं तो भी मैं जानता हूं कि सत्य अंततः लोगों को अपनी वाणी सुनाने और महसूस कराने में सफल हो जाएगा। मेरे अनुभव में प्रायः ऐसा ही घटित हुआ है।
यंग, 20-8-1925, पृ. 285-86


मेरे जैसे सैकड़ों लोग नष्ट हो जाएं, पर सत्य की विजय हो। मेरे जैसे त्रुटिप्रवण मनुष्यों का मूल्यांकन करने के लिए सत्य के मानदंडों को लेशमात्र भी नीचा करने की आवश्यकता नहीं है।
ए, पृ. गअ


अपना मूल्यांकन करते समय मैं सत्य के समान कठोर बनने का प्रयास करूंगा और चाहता हूं कि अन्य लोग भी ऐसा ही करें। उस मानदंड से अपने को मापने पर मुझे सूरदास के सुर में मिलाकर कहना होगा...

"मो सम कौन कुटिल खल कामी।

जेहि तनु दियो ताहि बिसरायो ऐसो नमकहरामी।।"

मेरी त्रुटियां

मैं कितना ही तुच्छ होऊं, पर जब मेरे माध्यम से सत्य बोलता है तब मैं अजेय बन जाता हूं।
वही, पृ. 71


मेरा अनुराग केवल सत्य के प्रति है, और मैं सत्य के अलावा किसी और का अनुशासन नहीं मानता। हरि, 25-5-1935, पृ. 115


मैं एक ही ईश्वर का दास हूं और वह है सत्य। हरि, 15-4-1939, पृ. 87


सत्य के प्रति आग्रह से जो शक्ति प्राप्त होती है, उसके अतिरिक्त मेरे पास कोई और शक्ति नहीं है। इसी आग्रह से अहिंसा का प्रस्फुटन होता है। हरि, 7-4-1946, पृ. 70


मैं सत्य का एक साधारण-सा किंतु बड़ा उत्साही खोजकर्ता हूं। अपनी खोज में मैं अपने साथी खोजकर्ताओं को अधिकतम विश्वास में लेकर चलता हूं ताकि मैं अपनी त्रुटियों को पहचान सकूं और उन्हें सुधार सकूं। मैं मानता हूं कि अपने अनुमानों और निर्णयों में मुझसे प्रायः गलतियां हुई हैं.... और चूंकि प्रत्येक ऐसे मामले में मैंने अपनी त्रुटि को सुधार लिया है, इसलिए कोई स्थायी हानि नहीं होने पाई है। बल्कि इससे अहिंसा का मौलिक सत्य पहले की अपेक्षा कहीं अधिक उद्भासित हुआ है, तथा देश को किसी तरह की स्थायी हानि नहीं हुई है।
यंग, 21-4-1927, पृ. 128


मैं तो स्वयं ही नौसिखिया हूं, मुझे कोई स्वार्थ सिद्ध नहीं करना, और मुझे जहां भी सत्य दिखाई देता है, मैं उसका पक्ष लेकर, उसके अनुसार कार्य करने का प्रयास करता हूं।
यंग, 11-8-1927, पृ. 250


मेरा विश्वास है कि पूरी नेकनीयती से काम करने पर भी यदि किसी से गलती हो जाए तो उससे वस्तुतः दुनिया की ही नहीं बल्कि किसी व्यक्ति की भी, कोई हानि नहीं होतीं अपने भीरु सेवकों की अनजाने में हुई गलतियों से ईश्वर दुनिया को कोई हानि नहीं पहुंचने देता।

मेरा अनुसरण करने के कारण जिनके गलत रास्ते पर चले जाने की आशंका है, उन्हें मेरे काम की जानकारी न भी होती तो भी वे उसी रास्ते पर जाते। कारण यह है कि मनुष्य अपने आचरण में अंततः अपनी अंतःप्रेरणा से ही परिचालित होता है, भले ही दूसरों के उदाहरण कभी-कभी उसका मार्गदर्शन करते प्रतीत होते हों। जो भी हो, मैं यह जानता हूं कि मेरी त्रुटियों के कारण दुनिया को कभी हानि नहीं उठानी पड़ी है क्योंकि ये त्रुटियां मुझसे अज्ञानवश हुई थीं। मुझे इस बात का दृढ़ विश्वास है कि मेरी जो त्रुटियां बताई जाती हैं, उनमें से एक भी त्रुटि मैंने जान-बूझकर नहीं की थी। यंग, 3-1-1929, पृ. 6


सच पूछा जाए तो, एक व्यक्ति को जो बात स्पष्टतया गलत लगती है, वह दूसरे को एकदम बुद्धिमत्तापूर्ण लग सकती है। वह विभ्रम में हो तब भी अपने को उसे करने से रोक नहीं सकता। तुलसीदास ने सच ही कहा है-

रजत सीप महुं भास जिमि जथा भानु कर बारि।

जदपि मृषा तिहुं काल सोइ भ्रम न सकइ काउ टारि।।

मेरे जैसे आदमियों के साथ, जो संभवतः महान विभ्रम से ग्रस्त हैं, यही होता रहेगा। ईश्वर निश्चित रूप से उन्हें क्षमा कर देग, पर दुनिया को ऐसे लागों को बरदाश्त करना चाहिए। अंततः सत्य की ही विजय होगी। वही


सत्य न्यायोचित ध्येय को कभी नुकसान नहीं पहुंचता। हरि, 10-11-1946, पृ. 389


जीवन एक आकांक्षा है। उसका ध्येय पूर्णता के लिए प्रयास करना है, जो आत्मसिद्धि ही है। अपनी दुर्बलताओं अथवा अपूर्णताओं के कारण ध्येय को नीचा नहीं करना चाहिए। मुझे इस बात का दुखद बोध है कि मेरे अंदर दुर्बलताएं भी हैं और अपूर्णताएं भी। मैं इन्हें दूर करने में सहायता देने के लिए प्रतिदिन सत्य के समक्ष मौन आर्तनाद करता हूं।
हरि, 22-6-1935, पृ. 145

सत्य का परित्याग नहीं

मेरा विश्वास करो, मैं अपने 60 वर्ष के व्यक्तिगत अनुभव से कहता हूं कि सत्य के मार्ग का परित्याग करना ही वास्तविक दुर्भाग्य है। यदि तुम इसे समझ सको तो ईश्वर से तुम्हारी एक ही प्रार्थना होगी कि सत्य का अनुसरण करते हुए तुम्हें कितनी भी परीक्षाओं और कठिनाइयों से गुजरना पड़े, ईश्वर तुम्हें उनसे पार पाने की सामर्थ्य दे। हरि, 28-7-1946, पृ. 243


केवल सत्य ही टिकेगा, बाकी सब कालकवलित हो जाएगा। इसलिए मुझे सभी त्याग दें तो भी मुझे सत्य का साक्षी बने रहना चाहिए। मेरी वाणी आज अरण्यरोदन हो सकती है, किंतु यदि यह सत्य की वाणी है तो शेष सभी वाणियां मूक हो जाने के  ांत मेरी वाणी ही सुनाई देगी।
हरि, 25-8-1946, पृ. 284


सारी दुनिया झूठ की चपेट में आती प्रतीत हो तो भी आस्थावान व्यक्ति सत्य का परित्याग नहीं करेगा। हरि, 22-9-1946, पृ. 322


प्रासंगिक होने पर, सत्य अवश्य कह देना चाहिए, चाहे वह कितना ही अप्रिय हो। जो अप्रासंगिक है, वह सदा असत्य है, और उसे कभी नहीं कहना चाहिए।
हरि, 21-12-1947, पृ. 473

10. सत्य ईश्वर है

ईश्वर है

एक ऐसी अपरिभाषेय रहस्यमय शक्ति है जो सर्वत्र व्याप्त है। मैं उसका अनुभव करता हूं, हालांकि वह दिखाई नहीं देती। यह अदृश्य शक्ति महसूस तो होती है लेकिन उसका कोई प्रमाण देना संभव नहीं है, क्योंकि यह इंद्रियग्राह्य वस्तुओं से सर्वथा भिन्न है। यह इंद्रियातीत है। लेकिन ईश्वर के अस्तित्व का थोड़ा-सा तर्क दिया जा सकता है।

मुझे एक क्षीण अनुभूति होती है कि जहां मेरे चारों ओर मौजूद सभी चीजें निरंतर परिवर्तनशील हैं, निरंतर नाशवान हैं, वहां इन सारे परिवर्तनों के पीछे एक ऐसी जीवंत शक्ति है जो परिवर्तनरहित है जो सबको धारण करती है, सबकी सृष्टि करती है, संहार करती है, और पुनः सृजन करती हैं सभी को अनुप्राणित करनेवाली यह शक्ति अथवा आत्मा ही ईश्वर है। और चूंकि केवल इंद्रियों से ग्राह्य अन्य कोई वस्तु अनश्वर नहीं हो सकती और न होगी, इसलिए केवल ईश्वर ही अनश्वर है।

यह शक्ति उपकारी है अथवा अपकारी? मुझे यह विशुद्ध रूप से उपकारी लगती है। कारण कि, मैं पाता हूं कि मृत्यु के बीच जीवन का सातत्य है, झूठ के बीच सत्य का सातत्य है और अंधकार के बीच प्रकाश का सातत्य है। इसलिए मैं समझता हूं कि ईश्वर जीवन है, सत्य है, प्रकाश है। वह साक्षात प्रेम है। वही सर्वोच्च शुभ है।

मैं यह स्वीकार करता हूं कि मैं.... तर्क के द्वारा.... तुमको आश्वस्त नहीं कर सकता। आस्था तर्क से ऊपर है। मैं यही परामर्श दे सकता हूं.... कि असंभव को संभव बनाने का प्रयास न करो। दुनिया में बुराई क्यों है, इसका कोई तर्कपूर्ण उत्तर मैं नहीं दे सकता। ऐसा प्रयास करना ईश्वर की बराबरी करना होगा। अतः मैं पूरी विनम्रता के साथ बुराई के अस्तित्व को मान लेता हूं, और कहता हूँ कि ईश्वर दीर्घकाल से पीड़ा भोग रहा है और धैर्य प्रदर्शित कर रहा है, क्योंकि उसने दुनिया में बुराई को चलते रहने की अनुमति दी है। मैं जानता हूं कि ईश्वर में बुराई का लेश भी नहीं है, पर फिर यदि दुनिया में बुराई है तो उसका सर्जक वही है, यद्यपि वह उसे छू नहीं सकती।

मैं यह भी जानता हूं कि यदि मैं बुराई से न लडूं और इस संघर्ष में प्राणों की बाजी न लगा दूं तो मैं कभी ईश्वर को नहीं जान पाऊंगा। मेरे साधारण और सीमित अनुभव ने मेरे इस विश्वास को और भी दृढ़ कर दिया है। मैं जितना ही शुद्ध बनने का प्रयास करता हूं, अपने को उतना ही ईश्वर के निकट अनुभव करता हूं। मेरी आस्था जब एक बहाना मात्र नहीं रह जाएगी, जैसी कि वह आज है, अपितु हिमालय की तरह अडिग और उसके शिखरों पर मंडित हिम के समान धवल तथा प्रकाशमान हो जाएगी तो मैं ईश्वर के कितने निकट पहुंच पाऊंगा।
यंग, 11-10-1928, पृ. 340-41

मेरी आस्था

संसार का परित्याग तो मेरे लिए सरल है। लेकिन मैं ईश्वर का परित्याग करूं, यह अविचारणीय है। यंग, 23-2-1922, पृ. 112


मैं जानता हूं कि मैं कुछ भी करने में समर्थ नहीं हूं। ईश्वर सर्वसमर्थ है। हे प्रभो, मुझे अपना समर्थ साधन बनाएं और जैसे चाहें, मेरा उपयोग करें। यंग, 9-10-1924, पृ. 329


मैंने ईश्वर के न तो दर्शन किए हैं और न ही उन्हें जाना है। मैंने ईश्वर के प्रति दुनिया की आस्था को अपनी आस्था बना लिया है, और चूंकि मेरी आस्था अमिट है, मैं उस आस्था को ही अनुभव मानता हूं। लेकिन यह कहा जा सकता है कि आस्था को अनुभव मानना तो सत्य के साथ छेड़छाड़ करना है; सचाई शायद यह है कि ईश्वर के प्रति अपनी आस्था का वर्णन करने के लिए मेरे पास कोई शब्द नहीं हैं। ए, पृ. 206


आप और मैं इस कमरे में बैठे हैं, इस तथ्य से भी ज्यादा पक्का भरोसा मुझे ईश्वर के अस्तित्व में है। इसलिए मैं यह भी निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि मैं वायु और जल के बिना तो जीवित रह सकता हूं, पर ईश्वर के बिना नहीं रह सकता। आप मेरी आंखें निकाल लें, पर मैं उससे मरूंगा नहीं। आप मेरी नाक काट लें, पर मैं उससे मरूंगा नहीं । पर ईश्वर के प्रति मेरी आस्था को ध्वस्त कर दें तो मैं मर जाऊंगा।

आप इसे अंधविश्वास कह सकते हैं, पर मैं स्वीकार करता हूं कि मैं इस अंधविश्वास को उसी प्रकार श्रद्धापूर्वक गले लगाए हूं, जिस प्रकार कोई खतरा या संकट आने पर मैं अपने बचपन में राम नाम का श्रद्धापूर्वक जप करने लग जाता था। इसकी सीख मुझे एक बूढ़ी परिचारिका ने दी थी।
हरि, 11-5-1938, पृ. 109


मेरा विश्वास है कि हम सभी ईश्वर के संदेशवाहक बन सकते हैं, यदि हम मनुष्य से डरना छोड़ दें और केवल ईश्वर के सत्य की शोध करें। मेरा पक्का विश्वास है कि मैं केवल ईश्वर के सत्य की शोध कर रहा हूं और मनुष्य के भय से सर्वथा मुक्त हो गया हूं।

......मुझे ईश्वरीय इच्छा का कोई प्रकाट्य नहीं हुआ है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि वह प्रत्येक व्यक्ति के सामने नित्य अपना प्रकटन करता है, लेकिन हम अपनी 'अंतर्वाणी' के लिए कान बंद कर लेते हैं। हम अपने सम्मुख दैदीप्यमान अग्निस्तंभ से आंख मींच लेते हैं। मैं उसे सर्वव्यापी पाता हूं।
यंग, 25-5-1921, पृ. 161-62


मुझे पत्र लिखने वालों में से कुछ यह समझते हैं कि मैं चमत्कार दिखा सकता हूं। सत्य के पुजारी होने के नाते मेरा कहना है कि मेरे पास ऐसी कोई सामर्थ्य नहीं है। मेरे पास जो भी शक्ति है, वह ईश्वर देता है। लेकिन वह सामने आकर काम नहीं करता। वह अपने असंख्य माध्यमों के जरिए काम करता है।
हरि, 8-10-1938, पृ. 285

ईश्वर की प्रकृति

मेरे लिए ईश्वर सत्य है और प्रेम है, ईश्वर आचारनीति है और नैतिकता है, ईश्वर अभय है। ईश्वर प्रकाश और जीवन का स्त्रोत  है और फिर भी इन सबसे ऊपर और परे है। ईश्वर अंतःकरण है। वह नास्तिक की नास्तिकता भी है, चूंकि अपने असीम प्रेमवश ईश्वर नास्तिक को भी रहने की छूट देता है। वह हृदयों का स्वयं हमसे बेहतर जानता है। वह हमारी कही हुई बातों को सच नहीं मानता, क्योंकि वह जानता है कि कई बार जान-बुझकर और कई बार अनजाने, हम जो बोलते हैं, हमारा अभिप्राय वह नहीं होता।

जिन्हें ईश्वर की व्यक्तिगत उपस्थिति की दरकार है, उनके लिए वह व्यक्तिगत ईश्वर है। जिन्हें उसका स्पर्श चाहिए, उनके लिए वह साकार है। वह विशुद्धतम तत्व है। जिन्हें आस्था है, उनके लिए तो बस वह है। वह सब मनुष्यों के लिए सब कुछ है। वह भीतर है, फिर भी हमसे ऊपर और परे है.....

उसके नाम पर घृणित दुराचार या अमानवीय क्रूरताएं की जाती हैं, पर इनसे उसका अस्तित्व समाप्त नहीं हो सकता। वह दीर्घकाल से पीड़ा भोग रहा है। वह धैर्यवान है, पर भयंकर भी है। वह इस दुनिया और आने वाली दुनिया की सबसे कठोर हस्ती है। जैसा व्यवहार हम अपने पड़ौसियों-मनुष्यों और पशुओं-के साथ करते हैं, वैसा ही ईश्वर हमारे साथ करता है।

वह अज्ञानता को क्षमा नहीं करता। इसके बावजूद नित्य क्षमाशील है, क्योंकि वह हमें सदा पश्चाताप करने का अवसर देता है।

संसार में उस जैसा लोकतांत्रिक दूसरा नहीं है, क्योंकि वह हमको अच्छाई और बुराई में से चुनाव करने के लिए 'स्वतंत्र' छोड़ देता है। उस जैसा अत्याचारी भी आज तक नहीं हुआ जो प्रायः हमारे होठों से प्याला छीन लेता है और स्वेच्छा के नाम पर, हमें हाथ-पैर फेंकने के लिए अत्यंत संकुचित क्षेत्र देकर फिर हमारी विवशता पर हंसता है।

इसीलिए हिंदू धर्म में कहा गया है कि यह सब उसका खेल अर्थात उसकी 'लीला' है, अथवा भ्रम यानी माया है। हम नहीं हैं, मात्र वही है। यदि हम हैं तो हमें निरंतर उसका स्तुतिगान करना है और उसकी इच्छानुसार कार्य करना है। हम उसकी बंसी की धुन पर नाचें तो सब कुछ ठीक हो जाएगा। यंग, 5-3-1925, पृ. 81


जहां तक मैं समझता हूं, ईश्वर दुनिया का सबसे कठोर अधिकारी है; वह तुम्हारी जमकर परीक्षा लेता है। और जब तुम्हें लगता है कि तुम्हारी आस्था डिग रही है या तुम्हारा शरीर जवाब दे रहा है और तुम डूब रहे हो, वह किसी-न-किसी प्रकार तुम्हारी सहायता के लिए आ पहुंचता है और यह सिद्ध कर देता है कि तुम्हें अपनी आस्था नहीं छोड़नी चाहिए। वह सदा तुम्हारे इशारे पर दौड़ा चला आएगा, लेकिन अपनी शर्तों पर, तुम्हारी शर्तों पर नहीं। मैंने तो उसे ऐसा ही पाया है। मुझे एक भी उदाहरण ऐसा याद नहीं आता जब ऐन मौंके पर उसने मेरा साथ छोड़ दिया हो। स्पीरा, पृ. 1069


शैशवकाल में मुझे विष्णुसहत्रनाम का पाठ करना सिखाया गया था। लेकिन भगवान के ये हजार नाम ही नहीं हैं। हिंदुंओं का विश्वास है-और मैं समझता हूं कि यह सत्य है-कि संसार में जितने प्राणी हैं, उतने ही भगवान के नाम हैं। इसीलिए हम यह भी कहते हैं कि भगवान अनाम है, और चूंकि भगवान के अनेक रूप हैं इसलिए हम उसे निराकार मानते हैं कि वह अवाक है, इत्यादि। जब मैंने इस्लाम का अध्ययन किया तो मैंने पाया कि इस्लाम में भी खुदा के बहुत से नाम हैं।

जो कहते हैं कि ईश्वर प्रेम है, उनके साथ स्वर मिलाकर मैं भी कहूंगा कि ईश्वर प्रेम है। लेकिन अपने अंतरतम में मेरा मानना है कि यद्यपि ईश्वर प्रेम है, पर सर्वोपरि ईश्वर सत्य है। यदि मनुष्य की वाणी के लिए ईश्वर का पूरा-पूरा वर्णन करना संभव हो तो मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि, जहां तक मेरा संबंध है, ईश्वर सत्य है।

लेकिन दो वर्ष पहले मैंने एक कदम और आगे बढ़कर कहा कि सत्य ईश्वर है। इन दो कथनों-ईश्वर सत्य है और सत्य ईश्वर है- के सूक्ष्म भेद को आप समझें। मैं इस निष्कर्ष पर लगभग पचास वर्ष तक सत्य की निरंतर खोज करते रहने के बाद पहुंचा हूं।

मैंने तब पाया कि सत्य तक पहुंचने का सबसे छोटा रास्ता प्रेम के माध्यम से है। लेकिन मैंने देखा कि कम-से-कम अंग्रेजी भाषा में, प्रेम के अनेक अर्थ हैं और वासना के अर्थ में मानव प्रेम पतनकारी प्रवृत्ति भी हो सकता है। मैंने यह भी देखा कि 'अहिंसा' के अर्थ में, प्रेम को मानने वाले लोग, इस दुनिया में बहुत कम हैं। लेकिन सत्य के कभी दो अर्थ मैंने नहीं देखें और नास्तिक भी सत्य की आवश्यकता अथवा शक्ति के विषय में आपत्ति नहीं करते।

लेकिन सत्य की खोज करने के उत्साह में, नास्तिकों ने ईश्वर के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है जो उनकी दृष्टि से सही है। इस तर्क के कारण ही मुझे लगा कि 'ईश्वर सत्य है' के स्थान पर मुझे 'सत्य ईश्वर है' कहना चाहिए। यंग, 31-12-1931, पृ. 427-28


ईश्वर सत्य है, पर वह और भी बहुत कुछ है। इसीलिए मैं कहता हूं कि सत्य ईश्वर है... केवल यह स्मरण रखें कि सत्य ईश्वर के अनेक गुणों में से एक गुण नहीं है। सत्य तो ईश्वर का जीवंत स्वरूप है, यही जीवन है, मैं सत्य को ही परिपूर्ण जीवन मानता हूं। इस प्रकार यह एक मूर्त वस्तु है, क्योंकि संपूर्ण सृष्टि, संपूर्ण सत्ता ही ईश्वर है और जो कुछ विद्यमान है- अर्थात सत्य- उसकी सेवा ईश्वर की सेवा है। हरि, 25-5-1935, पृ. 115


पूर्णता ईश्वर का गुण है, पर qिर भी वह कितना लोकतांत्रिक है। वह हमारी कितनी बुराइयों और छल-कपट को बरदाश्त करता है। वह यहां तक बरदाश्त करता हैं कि हम, जो उसी की अकिंचन सृष्टि हैं, उसके अस्तित्व पर ही शंका करें, यद्यपि वह हमारें चारों ओर और हमारे भीतर प्रत्येक अणु में विद्यमान है। लेकिन यह अधिकार उसने अपने पास सुरक्षित रखा है कि वह जिसे चाहता है, उसे अपना साक्षात कराता है। उसके न हाथ हैं, न पैर हैं, और न और कोई अंग हैं लेकिन वह जिसे अपना साक्षात कराना चाहे, वह उसका दर्शन कर सकता है।
हरि, 14-11-1936, पृ. 314

सेवा के द्वारा ईश्वर

यदि मैं अपने अंदर ईश्वर की उपस्थिति अनुभव न करता तो प्रतिदिन इतनी कंगाली और निराशा देखत-देखते प्रलापी पागल हो गया हात या हुगलनी में छलांग लगा लेता।
यंग, 6-8-1925, पृ. 275


यदि मुझे भारत के सबसे हीन, बल्कि विश्व के सबसे हीन, व्यक्तियों के दुख के साथ अपना तादात्म्य करना है तो मुझे अपनी देखरेख में रहने वाले साधारण व्यक्तियों के पापों के साथ तादात्म्य करना चाहिए। और, मुझे आशा है कि पूर्ण विनम्रता के साथ ऐसा करते-करते मैं किसी दिन ईश्वर-सत्य-का साक्षात कर सकूंगा। यंग, 3-12-1925, पृ. 422


मैं ईश्वर को मानवता की सेवा के जरिए पाने का प्रयास कर रहा हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि ईश्वर न स्वर्ग में है, न पाताल में, बल्कि हम सब में है। यंग, 4-8-1927, पृ. 247-48


मैं समष्टि का एक अंग हूं, और ईश्वर को श्sाष मानवता से पृथक ढूंढ नहीं सकता। मेरे देशवासी मेरे सबसे निकटस्थ पड़ोसी हैं। वे इतने असहाय, साधनहीन और जड़ हो गए हैं कि मुझे अपना पूरा ध्यान उनकी सेवा पर लगा देना चाहिए। यदि मैं अपने को यह विश्वास दिला सकता कि ईश्वर हिमालय की गुफा में मिलेगा तो मैं तत्काल वहां के लिए प्रस्थान कर देता। लेकिन मैं जानता हूं कि मानवता से दूर वह नहीं ढूंढा जा सकता। हरि, 29-8-1936, पृ. 226


मैं अपने लाखों-करोड़ों देशवासियों को जानता हूं। मै। दिन के चौबीसों घंटे उनके साथ रहता हूं। उनकी सेवा करना मेरा प्रथम और अंतिम कर्तव्य है, क्योंकि करोड़ों मूक लोगों के हृदयों के अलावा कहीं और ईश्वर की उपस्थिति मैं स्वीकार नहीं करता। इन मूक व्यक्तियों को ईश्वर की उपस्थिति का आभस नहीं होता, मुझे होता है। और, मै। इन लाखों-करोड़ों लोगों की सेवा के जरिए ईश्वर जो सत्य है अथवा सत्य जो ईश्वर है, उसकी पूजा करता हूं।
हरि, 11-3-1939, पृ. 44

पथप्रदर्शक और संरक्षक

मुझे आगे बढ़ना होगा... ईश्वर को अपना एकमात्र पथप्रदर्शक मानते हुए। वह बड़ा ईर्ष्यालु स्वामी है। अपने प्राधिकार में किसी की भागीदारी नहीं होने देगा। इसलिए उसके सम्मुख अपनी सभी दुर्बलताओं के साथ, खाली हाथ और पूर्ण समर्पण के भाव से उपस्थित होना होगा। और तब वह तुम्हें पूरी दुनिया का सामना करने की शक्ति देगा और सभी खतरोंसे तुम्हारी रक्षा करेगा।
यंग, 3-9-1931, पृ. 247


मैंने एक सबक सीखा है कि जो काम मनुष्य के लिए असंभव है, वह ईश्वर के लिए बच्चों का खेल है, और यदि हमें उस ईश्वर पर विश्वास है जो अपनी निकृष्टतम सृष्टि का भी भाग्यविधाता है तो मुझे इसमें कोई संदेह नहीं कि सब कुछ संभव है; मैं इसी अंतिम आशा में जीता और अपना समय व्यतीत करता हूं तथा ईश्वर की इच्छा का पालन करने का प्रयास करता हूं।
यंग, 19-11-1931, पृ. 361


घोर निराशा में भी जब सारी दुनिया में न कोई सहायक दिखाई देता है, न सांत्वना देने वाला, तब उसी का नाम शक्ति प्रदान करके हममें प्रेरणा जगाता है और सभी शंकाएं तथा निराशाएं दूर भगा देता है। आज आकाश मेघाच्छन्न हो सकता है, पर ईश्वर से की गई भक्तियुक्त प्रार्थना उन्हें अवश्य छांट देगी। यह प्रार्थना का ही प्रभाव है कि मुझे कभी निराशा का मुंह नहीं देखना पड़ा है।

.....मैं कभी निराश नहीं हुआ हूं। तब तुम क्यों निराश होते हो? हम प्रार्थना करें कि यह हमारे हृदयों से क्षुद्रता, नीचता और छल को समाप्त करके उन्हें निर्मल कर दे; वह हमारी प्रार्थना अवश्य सुनेगा। मैं ऐसे अनेक लोगों को जानता हूं जिन्होंने शक्ति के इस अमोघ स्त्रोत  का सहारा लिया है। हरि, 1-6-1935, पृ. 123


मैंने देखा है, और मेरा विश्वास है, कि ईश्वर शरीर नहीं बल्कि कार्यरूप में प्रकट होता है और इसी से आपको घोर विपत्तियों से छुटकारा मिलता है। हरि, 10-12-1938, पृ. 373


व्यक्तिगत आराधना का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। यह निरंतर और यहां तक कि अचेतन रूप से, चलती रहती है। एक क्षण भी ऐसा नहीं जाता जब मैं उस साक्षी की उपस्थिति का अनुभव न करूं जिसकी आंख से कोई चीज चूक नहीं सकती; मैं इसी साक्षी के अनुरूप चलने का प्रयास करता हूं।

मैंने कभी उसे बेखबर नहीं पाया। जेलों में कठिन परीक्षाओं के दौरान जब मेरी स्थिति ठीक नहीं थी और क्षितिज घोर अंधकारमय दिखाई देता था तब मैंने उसे अपने निकट खड़ा पाया। मुझे अपने जीवन का एक क्षण भी ऐसा याद नहीं हैं जब मुझे लगा हो कि ईश्वर ने मेरा साथ छोड़ दिया है। हरि, 24-12-1938, पृ. 395

आत्मसाक्षात्कार

मेरा विश्वास है कि प्रत्येक मनुष्य के लिए उस धन्य, अवर्णनीय एवं पापमुक्त स्थिति का प्राप्त करना संभव है जिसमें वह अपने अंतःकरण में ईश्वर-मात्र ईश्वर-की उपस्थिति का अनुभव करता है।
हरि, 17-11-1921, पृ. 368


मैं जो प्राप्त करना चाहता हूं- जिसके लिए प्रयासरत और लालायित हूं.... वह है आत्मसाक्षात्कार अर्थात ईश्वर का साक्षात, मोक्ष की प्राप्ती। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मैं जीता तथा चलता-फिरता हूं और अपना सत्व बनाए हुए हूं। मेरे सभी भाषण, समस्त लेखन और राजनीतिक क्षेत्र के सभी कार्य उसी लक्ष्य की और अभिमुख हैं। ए, पृ. गपअ


यह विचार मुझे निरंतर यंत्रणा देता रहता है कि जिसका मेरे जीवन की हर श्वास पर अधिकार है और जिसकी मैं संतान हूं, उससे अभी तक कितनी दूर हूं। मैं जानता हूं कि अपने अंदर की दुष्ट वासनाओं के कारण ही मैं उससे इतनी दूर हूं और फिर भी, मैं उन वासनाओं से अपने का मुक्त नहीं कर पाता। वही, पृ. गअप


ईश्वर में यह विश्वास आस्था पर आधारित होना चाहिए जो तर्कातीत है। वस्तुतः तथाकथित सिद्धि के मूल में भी आस्था का तत्व होता है जिसके अभाव में वह टिक नहीं सकती। ऐसा होना अनिवार्य है। अपने सत्व की सीमाओं का अतिक्रमण कौन कर सकता है?

मेरी धारणा है कि इस पार्थिव जीवन में पूर्ण सिद्धि प्राप्त करना असंभव है। यह आवश्यक भी नहीं है। मनुष्य जिस पूर्ण आध्यात्मिक ऊंचाई तक पहुंच सकता है, उसे प्राप्त करने के लिए केवल एक जीती-जागती अटूट आस्था की आवश्यकता है। ईश्वर हमारी इस नश्वर देह से बाहर नहीं है। इसलिए, आवश्यकता हो तो भी, बाह्य प्रमाण का कोई विशेष लाभ नहीं है।

हम इंद्रियों के माध्यम से ईश्वर का अनुभव नहीं कर सकते, क्योंकि वह इंद्रियातीत है। हम चाहें तो इंद्रियों से अपने को मुक्त करके, ईश्वर का अनुभव कर सकते हैं। हम सबके भीतर अनहद नाद हो रहा है, लेकिन हमारी इंद्रियों का कोलाहल उस कोमल संगीत को दबा देता है- यह वह संगीत है जो हमारी इंद्रियों के लिए ग्राह्य अथवा श्रव्य किसी भी संगीत से भिन्न एवं अत्यधिक श्रेष्ठ है।

हरि, 13-6-1936, पृ. 140-41

11. सत्य और सौंदर्य

कला की आंतरिकता

वस्तुओं के दो पक्ष होते है। ...बाह्य और आंतरिक... बाह्य का मूल्य केवल यह है कि वह आंतरिक की सहायता करे। इस प्रकार प्रत्येक सच्ची कला आत्मा की अभिव्यक्ति होती है। बाहय रूपों का मूल्य यही है कि वे मनुष्य की आंतरिक भावना की अभिव्यक्ति हैं।
यंग, 13-11-1924, पृ. 377


मैं जानता हूं कि बहुत-से व्यक्ति अपने को कलाकार कहते हैं, और उन्हें इस रूप में मान्यता भी प्राप्त है, लेकिन उनकी कृतियों में आत्मा के उदग्र आवेग और आकुलता का लेश भी नहीं होता। वही


प्रत्येक सच्ची कला आत्मा के आंतरिक स्वरूप की सिद्धि में सहायक होनी चाहिए। जहां तक मेरा ताल्लुक है, मुझे अपनी आत्मसिद्धि में बाहय रूपों की सहायता की कतई जरूरत नहीं है। इसलिए मैं कोई कलाकृतियां प्रस्तुत नहीं कर सकता।

हो सकता है कि मेरे कमरे की दीवारें नंगी हों; मुझे तो शायद सिर पर छत की भी जरूरत नहीं है, क्योंकि तब मैं असीम विस्तार वाले तारों भरे आकाश को निहार सकता हूं। जब मैं चमकते तारों से भरे आकाश हो निहारता हूं तो मेरे सामने ऐसा अद्भुत परिदृश्य होता है जिसकी बराबरी मनुष्य की स्वकृत कला कभी नहीं कर सकती।

इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मैं सामान्यतः मानी गईZ कला-वस्तुओं के मूल्य को स्वीकार करने से इंकार करता हूं बल्कि सिर्फ यह है कि मैं व्यक्तिगत रूप से यह अनुभव करता हूं कि ये प्राकृतिक सौंदर्य के शाश्वत प्रतीकों की तुलना में कितनी अपूर्ण है। मानवकृत इन कला-वस्तुओं का मूल्य वहीं तक है जहां तक कि वे आत्मा को सिद्धि की दिशा में अग्रसर होने में सहायक होती है। वही

पहले सत्य

सत्य की शोध पहली चीज है, सौंदर्य और शुभत्व उसमें अपने आप जुड़ जाएंगे। मैं समझता हूं कि ईसा मसीह सर्वोत्कृष्ट कलाकार थे, चूंकि उन्होंने सत्य के दर्शन किए थे और उसे अभिव्यक्त किया था; ऐसे ही मोहम्मद भी थे जिनकी कुरान संपूर्ण अरबी साहित्य की सबसे श्रेष्ठ कृति है-कम-से-कम विद्वानों का मत यही है। कारण यह है कि दोनों ने पहले सत्य को पाने का प्रयास किया था, इसलिए उनकी वाणी में अभिव्यक्ति का सौंदर्य सहज ही आ गया, हालांकि उन्होंने कोई कला-रचना नहीं की थी। मुझे इसी सत्य और सौंदर्य की चाह है, मैं इसी के लिए जीऊंगा और इसी के लिए मरूंगा। यंग,220-11-1924, पृ. 386

करोड़ों के लिए कला

अन्य सभी बातों की तरह इसमें भी मैं करोड़ो जनता के संदर्भ में सोचता हूं। करोड़ो लोगों को अपने में ऐसा सौंदर्य-बोध पैदा करने का प्रशिक्षण नहीं दिया जा सकता कि वे सौंदर्य में सत्य के दर्शन कर सकें। इसलिए पहले उन्हें सत्य के दर्शन कराओ, सौंदर्य के दर्शन वे बाद में कर लेंगे.....इन करोड़ों लोगों के लिए जो भी उपयोगी हो सकता है, मेरी दृष्टि में वही सुंदर है। पहले उन्हें जीवन के लिए अनिवार्य वस्तुं दो, शोभा और अलंकरण की वस्तुं बाद में आ जाएंगी। वही


मैं उस कला और साहित्य का पक्षधर हूं जो जनता से जुड़ा हो। हरि, 14-11-1936, पृ. 315


वही कला कला है जो सुखकर हो। यंग, 27-5-1926, पृ. 196


आखिर, कला बड़े पैमाने पर उत्पादन करनेवाली निर्जीव विद्युतचालित मशीनों के जरिए तो प्रकट की नहीं जा सकती, उसके लिए तो पुरुषों और त्रियों के हाथों का कोमल सजीव स्पर्श चाहिए। यंग, 14-3-1929, पृ. 86

आंतरिक शुचिता

सच्ची कला केवल आकार पर नहीं बल्कि उसकी पृष्ठीभूमि में जो है, उस पर भी ध्यान केंौित करती है। एक कला वह है जो मारती है और एक कला वह है जो जीवन देती है..... सच्ची कला अपने रचनाकार की सुख-शांति, संतोष और शुचिता का प्रमाण होनी चाहिए।
यंग,
11-8-1921, पृ. 253


आखिर, सच्चा सौंदर्य हृदय की शुचिता में ही तो निहित है। ए, पृ. 228


मैं संगीत और अन्य सभी कलाओं का प्रेमी हूं, लेकिन मैं उनको उतना महत्व नहीं देता जितना कि आम तौर पर दिया जाता है। मिसाल के तौर पर, मैं उन कार्यकलापों के महत्व को स्वीकार नहीं कर सकता जिन्हें समझने के लिए तकनीकी ज्ञान की जरूरत होती है।

जीवन सब कलाओं से बढ़ कर है। मैं तो यहां तक कहूंगा कि जिसने जीवन में प्रायः पूर्णता को प्राप्त कर लिया है, वह सबसे बड़ा कलाकार है, कारण कि उदात्त जीवन के निश्चित आधार और संरचना के बिना कला है भी क्या? एग्रे, पृ. 65-66


हमने किसी तरह यह विश्वास पाल लिया है कि कला व्यक्तिगत जीवन की शुचिता से स्वतंत्र है। मैं अपने संपूर्ण अनुभव के बल पर कह सकता हूं कि इससे ज्यादा झूठी बात और कोई नहीं हो सकती। अब जबकि मैं अपने ऐहिक जीवन की अंतिम अवस्था में हूं, मेरा कहना है कि जीवन की शुचिता सबसे ऊंची ओर सबसे सच्ची कला है। आवाज का परिष्कार करके अच्छा संगीत उत्पन्न करने की कला बहुत-से लोग अर्जित कर सकते हैं, लेकिन शुचितापूर्ण जीवन के सामंजस्य से वैसा संगीत पैदा करने की कला बिरले ही लोगों में आ सकती है।
हरि,
19-2-1938, पृ. 10

सत्य में सौंदर्य

मैं सत्य में अथवा सत्य के द्वारा सौंदर्य को खोजता और पाता हूं। सत्य के सभी रूप-केवल सच्चे विचार ही नहीं बल्कि सच्ची तस्वीरें या गीत भी-अत्यंत सुंदर होते हैं। लोग प्रायः सत्य में सौंदर्य के दर्शन नहीं कर पाते, आम आदमी उससे दूर भागता है और उसमें सौंदर्य के दर्शन की क्षमता ही खो बैठता है। जब लोग सत्य में सौंदर्य के दर्शन करने लगेंगे तब सच्ची कला का उदय होगा। यंग, 13-11-1924, पृ. 377


सच्चे कलाकार की दृष्टि में वही मुख सुंदर है जो अपने बाहय रूप से भिन्न, आत्मा के भीतर प्रतिष्ठित सत्य के आलोकित है। सत्य से भिन्न कोई सौंदर्य.... नहीं है। इसके विपरीत, सत्य अपने आपको ऐसे रूपों में प्रकट कर सकता है जो बाहर से तनिक भी सुंदर न हों। कहा जाता है कि सुकरात अपने जमाने का सबसे सत्यनिष्ठ व्यक्ति था लेकिन, कहते हैं कि, उसकी मुखाकृति ग्रीस में सबसे कुरूप थी। मेरी दृष्टि में, सुकरात सुंदर था क्योंकि उसने आजीवन सत्य के लिए संघर्ष किया, और आपकी याद होगा कि सुकरात की बाह्याकृति के कारण फिडिएस को उसके अंदर के सत्य की सुंदरता को सराहने में कोई बाधा नहीं आई, हालांकि कलाकार के नाते वह बाह्याकृतियों में भी सौंदर्य के दर्शन का अभ्यस्त था। वही


सत्य और असत्य प्रायः साथ-साथ मौजूद रहते हैं, उसी तरह अच्छाई और बुराई का भी साथ है। कलाकार में भी अनेक बार वस्तुओं की सच्ची और झूठी धारणाओं का सह-अस्तित्व रहता है। सच्ची सुंदर कृति तब जन्म लेती है जब कलाकार सच्ची धारणा से प्रेरित होता है। यदि इसके उदाहरण जीवन में विरल हैं तो कला के क्षेत्र में भी विरल ही हैं। वही


ये सुंदर दृश्य (सूर्यास्त अथवा तारों भरी रात में जगमगता अर्धचंद्र') सत्यमय हैं, क्योंकि इन्हें देखकर मेरा ध्यान इनके सर्जक की ओर आकर्षित होता है। इनकी सृष्टि के केंद्र में सत्य है, इसीलिए तो ये सुंदर हैं। जब मैं सूर्यास्त के अद्भुत दृश्य अथवा चंद्रमा के सौंदर्य की सराहना करता हूं तो मेरी आत्मा विकसित होकर इनके सर्जक की आराधना में तल्लीन हो जाती है। मैं इन सभी दृश्यों में ईश्वर और उनकी अनुकंपाओं के दर्शन करता हूं। लेकिन ये सूर्यास्त और सूर्योदय भी यदि मुझे ईश्वर के स्मरण में सहायक न हों तो मात्र अवरोध ही सिद्ध होंगे। आत्मा की उड़ान में अवरोध पैदा करने वाली हर चीज एक भ्रम है और पाश है; देह भी ऐसी ही चीज है जो प्रायः मुक्ति के पथ में अवरोध पैदा करती है।
हरि,
13-11-1924, पृ. 378


तुम सब्जियों के रंग में सुंदरता क्यों नहीं देख पाते? और निरभ्र आकाश भी तो सुंदर है। लेकिन नहीं, तुम तो इंद्रधनुष्य के रंगों से आकर्षित होते हो, जो केवल एक दृष्टिभ्रम है। हमें यह मानने की शिक्षा दी गई है कि जो सुंदर है, उसका उपयोगी होना आवश्यक नहीं है और जो उपयोगी है, वह सुंदर नहीं हो सकता। मैं यह दिखाना चाहता हूं कि जो उपयोगी है, वह सुंदर भी हो सकता है। हरि, 7-4-1946, पृ. 67

(स्त्रोत  : महात्मा गांधी के विचार)


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