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10. गांधी अर्विन करार

ब्रिटिश सरकार का झुकाव अब संधि-वार्ता की तरफ हो रहा था। उसने एक गोलमेज़ सम्मेलन आयोजित किया जिसका आरम्भ लन्दन में 12 नवम्बर 1930 को हुआ। लेकिन न तो उसमें महात्मा गाँधी थे और न ही कांग्रेस का कोई और नेता जिससे यह सम्मेलन अर्थहीन हो गया । सरकार ने उसे महसूस किया और ब्रिटिश प्रधान मंत्री रैमजे मैक्डोनल्ड ने आशा व्यक्त की कि कांग्रेस अपने प्रतिनिधि द्वितीय गोलमेज़ सम्मेलन के लिये भेजेगी ।

गाँधीजी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, मोतीलाल नेहरू और अन्य बीस से अधिक कांग्रेस नेताओं को 26 जनवरी 1931 को द्वितीय स्वतंत्रता दिवस पर जेल से छोड़ दिया गया। गाँधीजी ने तत्काल वाइसराय को पत्र लिखा और भेंट करने के लिये समय माँगा ।

लार्ड अर्विन इस बात से सहमत हो गये। दोनों में 17 फरवरी, 1931 को भेंट हुई। दोनों बराबरी के तौर पर मिले न कि शासक और प्रजा की तरह। यह ऐसे ही था कि एक राष्ट्र का प्रतिनिधि दूसरे राष्ट्र के प्रतिनिधि से मिल रहा हो । जब गाँधीजी वाइसराय हाऊस की सीढ़ियां चढ़े, वह समय इस देश के लिये एक ऐतिहासिक क्षण था । दुबली-पतली आकृति खादी पहने हुए राजसी ठाठ का मज़ाक उड़ा रही थी । वाइसराय इतने ऐश आराम में रहता था कि प्रिंस आफ वेल्स ने भारत की यात्रा के समय टिप्पणी की थी, "जब तक मैंने भारत के वाइसराय को नहीं देखा था मेरी समझ में नहीं आया था कि एक राजा को कैसे रहना चाहिये ।" गाँधीजी और लार्ड अर्विन की विषमता साफ थप लेकिन बातचीत बड़े सौहार्द और सद्भाव के वातावरण में हुई । इससे एक बार फिर स्पष्ट हो गया कि गाँधीजी अपने सत्याग्रह के अस्त्र से कितने सफल हुए हैं जिसमें प्रतिपक्षी से घृणा नहीं की जाती और न ही उसे कोई हानि पहुँचाई जाती है। वह तो केवल अपने विरोधी का हृदय प्रेम और अहिंसा से बदलना चाहते थे।"

एक रात, गाँधीजी ने वाइसराय के महल से अपने ठहरने के स्थान तक पैदल जाने का हठ किया। फासला करीब आठ किलोमीटर था। वाइसराय ने कहा, "गाँधीजी, शुभरात्रि, मेरी प्रार्थना आपके साथ है।"

जाने के समय एक बार गाँधीजी अपना शाल भूल गये। लार्ड अर्विन ने शाल पकड़ाते हुए कहा, "गाँधीजी, आपने इतना कुछ नहीं पहना हुआ कि आप इसे भी पीछे छोड़ जायें।"

एक मुलाकात के दौरान लार्ड अर्विन ने गाँधीजी से पूछा, कि क्या वह चाय पियेंगे। गाँधीजी ने वाइसराय को धन्यवाद करते हुए अपने शाल से काग ज़ का एक लिफाफा निकाला और हंसते-हंसते कहा, "मैं अपनी चाय में यह नमक डाल लूँगा जिससे हमें प्रसिद्ध बोस्टन की चाय पार्टी याद आ जाये।" दोनों व्यक्ति हंस पड़े।

जिसे गाँधी अर्विन पैक्ट या दिल्ली पैक्ट कहा जाता है, के अंतर्गत सविनय अवज्ञा आन्दोलन बन्द कर दिया गया। जो लोग कैद थे उन्हें छोड़ दिया गया और समुद्रतट पर नमक बनाने की अनुमति मिल गई। यह भी फैसला हुआ कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस लन्दन में हो रहे गोलमेज़ सम्मेलन में भाग लेगी।

इसमें स्वतंत्रता या स्वतंत्र उपनिवेश होने का कोई जिक्र नहीं था लेकिन गाँधीजी सन्तुष्ट थे क्योंकि इस आधार पर एक नया संबंध कायम हो रहा था। दोनों राजनीतिज्ञों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किये। ब्रिटेन और भारत के बीच बराबरी का सिद्धान्त स्थापित हो गया था।

समझौते पर हस्ताक्षर करने के पीचात गाँधीजी ने भारतीय और विदेशी पत्रकारों को सम्बोधित किया और वाइसराय की प्रशंसा करते हुए कहा, "मैं जानता हूँ कि मैंने कई बार ऐसे अवसर दिये होंगे जिससे वाइसराय नाराज़ हो जायें या चिढ़ जायें लेकिन मुझे ऐसा कोई समय याद नहीं जब उन्होंने अधीरता या गुस्सा दिखाया हो।"

गाँधीजी ने यह भी कहा, "स्वराज अभी मिला तो नहीं है मगर उसके लिये द्वार खुल गये हैं।"

उन्होंने बताया, "हमारा ध्येय पूर्ण स्वराज है। भारत इससे कम में सन्तुष्ट नहीं होगा। भारत बीमार बच्चा नहीं है कि उसे देखभाल, बाहरी मदद या बैसाखियों की आवश्यकता हो।"

अपने भाषणों और लेखों में गाँधीजी ने हिन्दु-मुसलमानों की एकता, पैक्ट की शर्त़ों का सख्ती से पालन, रचनात्मक कार्यक्रम में सक्रियता जिसमें विदेशी कपड़े का बहिष्कार और शराब की दुकानों पर पिकेटिंग भी शामिल थी, पर बल दिया।

उन्होंने समझौते की शर्त़ों को स्वीकार करने के कारण बताये।

"सत्याग्रही भय के आगे नहीं झुकता। वह दूसरे पक्ष को नीचा दिखाने का प्रयत्न भी नहीं करता। वह न्याय के रास्ते से नहीं हटता और न ही असंभव शर्त़ें रखता है। वह अपनी मांग न बहुत ऊंची और न ही नीची रखता है। मैं वर्तमान समझौते को स्वीकार करता हूँ जिसमें ये सब शर्त़ें पूरी होती हैं।"

"हम पूर्ण स्वतंत्रता के सिवाय और कुछ नहीं मांगेंगे। यह हमें मिलेगी या नहीं एक दूसरी बात है।"

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने गाँधीजी को द्वितीय गोलमेज़ सम्मेलन में जाने के लिये अपने प्रतिनिधि चुना ।

वह 29 अगस्त सन् 1931 को एस.एस. राजपूताना नामक जहाज़ द्वारा लन्दन के लिये रवाना हुए। जाने से पहले उन्होंने चेतावनी दी हो सकता है वह बिलकुल खाली हाथ लौटें। उन्होंने कहा, "जैसे हाथी चपटी की तरह नहीं सोच सकता, अच्छे इरादों के बावजूद अंग्रेज भी भारतीयों के लिये ऐसा सोचने के लिये असहाय हैं।"

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