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7. अत्याचार का दौर

आन्दोलन के फैलने पर और अधिक लोग गिरफ्तार हुए। कुछ ही दिनों में करीब एक लाख लोग जेलों में ठूंस दिये गये।

सरकार अब निष्ठुरता बरतने लगी थी। यह बात आम हो गई कि चारगपांच सिपाही अकेले सत्याग्रही पर झपट पड़ते और उसकी कलाई या अंगूठा मरोड़ देते, उसे नीचे गिरा कर तब तक रौंदते, ठोकरें मारते जब तक वह लहूलुहान न हो जाता और अपने पास का नमक न दे देता।

एक प्रत्यक्षदर्शी ने उड़ीसा के बालासोर जिले में नमक सत्याग्रह का विवरण यूं दिया है - जब स्वयंसेवक नमक वाली मिट्टी को नमक बनाने के लिये ला रहे थे तो सिपाहियों ने उन पर हमला किया। उन्हें पीटने व पैरों से ठोकरें मारने लगे। सिपाहियों की क्रूरता झेल रहे स्वयंसेवकों का धीरज देख, दर्शकों की आंखों में भी आंसू आ गये। आखिर मारने और ठुकराने से उकता कर सिपाही वहप स्वयंसेवकों के पास खड़े रहे। स्वयंसेवक नमक वाली मिट्टी के ढेर बनाते, सिपाही ढेरों को फैला कर सपाट कर देते। इन सबके बावजूद स्वयंसेवक सुबह से दोपहर तक और दोपहर में तीन से शाम छह बजे तक अपना काम करते रहे। बहुत से लोग नमक की मिट्टी अपने शिविर में ले जाने में सफल हुए और उन्होंने उससे नमक बनाया। यह नमक खुले आम बालासोर शहर में बेचा गया।

पुलिस ने यह प्रयास किया कि स्वयंसेवक नमक वाली मिट्टी एकत्र न कर सकें। वे उनके हाथ पकड़ लेते। लेकिन वे सत्याग्रहियों को रोकने में असफल रहे। नमक बना और बालासोर में फिर बिका।

इस दौरान निकट के गांवों के लोगों ने भी नमक बनाना आरम्भ कर दिया। अधिकारी जानते थे मगर कुछ विशेष नहीं कर सके क्योंकि हजारों लोग एक साथ इस कानून का उल्लंघन कर रहे थे। किसगकिस को पकड़ते। अब उन्होंने यह नीति अपनाई कि नेता लगने वाले व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लो लेकिन इससे वे लोगों को रोक नहीं पाये।

गांववालों ने इसका प्रतिकार सरकारी सेवकों का बहिष्कार करके किया। कोई अधिकारी कोई भी चीज़ गांव में नहीं खरीद सकता था। सब कुछ बालासोर से लाना पड़ता।

सरकारी कर्मचारियों का ऐसा सामाजिक बहिष्कार सारे भारत में हुआ। इससे इन अफसरों को बहुत परेशानी हुई। सब जगहों से सिपाहियों की क्रूरता की सूचनायें मिल रही थे। दिल्ली से रिपोर्ट मिली थी कि दस सत्याग्रही घायल हुए थे। उनमें से पांच की दशा गम्भीर थी। पुलिस ने उनके हाथ से नमक की एक बाल्टी छीननी चाही थी।

बिहार से डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने, जो बाद में स्वाधीन भारत के प्रथम राष्ट्रपति बने, यह रिपोर्ट दी, हमारी योजना के अनुसार पांच स्वयंसेवकों का पहला जत्था सुबह सड़क पर चल रहा था जब कुछ घुड़सवार सिपाही, जिनका नेतृत्व एक यूरोपियन अफसर कर रहा था, उन पर झपटे। तीन स्वयंसेवकों को यूरोपियन द्वारा बड़ी निष्ठुरता से पीटा गया और फिर नाले में फेंक दिया गया, जहां से हमारे स्ट्रेचर वालों ने उन्हें उठाया।

"स्वयंसेवकों का दूसरा दल भेजा गया लेकिन उन्हें भी पीटा गया। शाम को पांच स्वयंसेवकों का एक और दल भेजा गया। पुलिस ने उन्हें ललकारा और उनके हाथों से झंडों को छीनने का प्रयास किया। दो यूरोपियन अफसरों ने नेताओं पर अपने बेतों से प्रहार किया। लेकिन लोगों ने इसका कोई प्रतिकार नहीं किया और न ही लड़े।"

जब हजारों लोग पटना से उस स्थान की ओर चले जहां नमक बन सकता था, तो पुलिस ने उनका रास्ता रोक लिया। लोगों का समूह सड़क और आसपास के खेतों में चालीस घंटे तक पड़ा रहा।

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने, जो दल का नेतृत्व कर रहे थे, भीड़ को तितरगबितर होने के लिये कहने से मना कर दिया, तो घुड़सवार पुलिस को यह काम सौंपा गया। जैसे ही भागते हुए घोड़े आगे आये, पुरुष और औरतें जमीन पर लेट गये। घोड़ों ने अपने अगले पांव ऊपर उठा दिये और रुक गये। घोड़े आदमियों को रौंदना नहीं चाहते थे। तब सिपाहियों ने उन लोगों को उठाया, जो ज़मीन पर लेटे थे, और जेल में डाल दिया। लेकिन अन्य सत्याग्रहियों ने उनका स्थान ले लिया।

लुधियाना, पंजाब में पचास आदमी पुलिस लाठी-चार्ज से घायल हुए।

पेशावर में, जो उत्तर पश्चिम सीमा प्रदेश का शहर है और अब पाकिस्तान का हिस्सा, सिपाहियों से भरी दो बख्तरबन्द गाड़ियां सभा से वापस जा रही भीड़ पर चढ़ा दी गई। कम से कम तीन लोगों की तत्काल मृत्यु हो गई और कई घायल हुए। इस उत्तेजना के विपरीत लोग शान्त रहे। जब लोग अपने घायलों और मृतकों को उठा रहे थे तब मोटर साइकिल पर सवार एक अंग्रेज अफसर भीड़ में घुस गया और बख्तरबन्द गाड़ी से जा टकराया। उसकी मृत्यु हो गई।

तब तक और अंग्रेज सिपाही उस स्थान पर पहुंच गये और उन्होंने बिना चेतावनी दिये भीड़ पर गोलियां बरसानी आरम्भ कर दी। भीड़ में महिला और बच्चे भी थे।

लोगों ने अहिंसा का जो पाठ पढ़ा था, उसका अच्छा प्रमाण दिया। जब अगली पंक्ति के लोग गिर पड़े तो पिछले लोग गोलियों का सामना करने आगे आ गए। जल्दी ही वहां लाशों और घायलों का ढेर लग गया। सुबह ग्यारह बजे से लेकर शाम पांच बजे तक गोलियां बरसती रहप। कोई भी पंक्ति तोड़ कर नहीं भागा। जब लाशें इकट्ठी की गई तो देखा गया कि किसी भी सत्याग्रही की पीठ पर गोली नहीं लगी थी। किसी ने भी बदला लेने का प्रयास नहीं किया था। पुलिस ने भी स्वीकार किया कि भीड़ बिलकुल शान्त रही थी। किसी भी लड़ाई में इससे अधिक साहस नहीं देखा गया। गाँधीजी ने अभूतपूर्व प्रेरणा दी थी। इस आन्दोलन की एक और ध्यान देने योग्य बात थी जिस तरीके से महिलाओं ने इसमें भाग लिया था। गाँधीजी सदा महिलाओं को बराबर का भागीदार समझते थे और उनकी असमर्थताओं को दूर हटाना चाहते थे। अब वे सत्याग्रह में भाग लेने के लिए आगे आइ थे और उन दुकानों पर धरना देने लगप जो विदेशी कपड़ा और शराब बेचती थे। इससे सरकार स्तब्ध रह गई।

गाँधीजी द्वारा आरम्भ किया हुआ आन्दोलन सफल हुआ था। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखा, "ऐसा लगता है मानों किसी ने सिप्गं को एकाएक मुक्त कर दिया हो। हमें इस आदमी की दक्षता पर आश्चर्य हुआ जो जनता को इस तरह प्रभावित कर रहा था कि वे बिलकुल संगठित तरीके से व्यवहार करें।"

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