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4. मंज़िल की ओर पहला कदम

11 मार्च 1930 को सायंकाल की प्रार्थना सभा में 10,000 लोग उपस्थित थे। गाँधीजी को लगा कि यह सुनहरा अवसर है कि आन्दोलन का आरम्भ करने की घोषणा की जाये। वह बोले, 'मुझे अपने उद्देश्य और अपने साधनों की पवित्रता में तथा उनके सही होने में पूरा विश्वास है - जब साधन न्यायपूर्ण और सही होते हैं तो, वहां भगवान अपना आशीर्वाद देने के लिए उपस्थित होते हैं। भगवान आप सबका भला करें और कल से शुरू होने वाले आन्दोलन के रास्ते से सब बाधायें दूर करें। यही हमारी प्रार्थना है।"

उन्होंने अन्त में कहा, 'शायद यह मेरा अन्तिम भाषण हो। यदि सरकार मुझे कल यात्रा करने भी देती है तो भी साबरमती के पावन तट पर यह मेरा अन्तिम भाषण होगा। और शायद यहां पर मेरे जीवने के ये अन्तिम शब्द हों।"

जब यह बात फैली कि गाँधीजी अपनी यात्रा कल सुबह आरम्भ करने वाले हैं तो उस रात ऐसा लगा मानो पूरा अहमदाबाद खाली हो गया है। करीब-करीब वहां की सारी जनता और हजारों अन्य लोग जो पूरे देश एवं विदेश से इस शहर में आये थे वे सब साबरमती आश्रम में यात्रा का आरम्भ देखने जा पहुंचे। सत्याग्रहियों को जिस मार्ग से जाना था उसके दोनों ओर लाखों लोग उनके स्वागत के लिये खड़े थे।

जैसे ही गाँधीजी की दुबली-पतली और जरा झुकी हुई आकृति लम्बे डंडे का सहारा लिये दिखी तो लोगों में उत्तेजना की लहर फैल गई। उनके शरीर के अनुपात में उनका सिर बड़ा लगता था। उनका ऊपरी ओंठ मूंछों से ढका हुआ था, जिसके बाल सफेद होने लगे थे और उनके कई दांत गिर चुके थे। लेकिन उनके सौम्य चेहरे में एक विचित्र प्रकार की सुन्दरता थी। उस पर आंतरिक आत्मशक्ति और चारित्रिक दृढ़ता की छाप स्पष्ट दिखाई दे रही थी।

वह सदा की तरह मोटे खद्दर की धोती पहने थे। उन्होंने लोहे के फ्रेम का चश्मा लगा रखा था और एक सस्ती घड़ी उनकी कमर से लटक रही थी। उन्होंने बहुत पहले ही यह निश्चय कर लिया था कि वह एक मिनट भी व्यर्थ नहीं जाने देंगे क्योंकि वह जानते थे कि उनके लिये समय बहुत महत्वपूर्ण है।

अठहत्तर सत्याग्रहियों में भारत के सब प्रांतों के व्यक्ति थे, यहां तक कि नेपाल के लोग मी शामिल थे, यद्यपि सबसे अधिक व्यक्ति गुजरात के ही थे। दो मुसलमान और एक ईसाई भी सत्याग्रह में सम्मिलित हुए। सत्याग्रहियों में से कुछ धनी थे और कुछ गरीब। कुछ शिक्षित थे तो कुछ अनपढ़, लेकिन उद्देश्य सबका एक ही था - वे भारत को स्वतंत्र देखना चाहते थे। सत्याग्रहियों में गाँधी परिवार की तीन पीढ़ियां भी शामिल थे - गाँधीजी, उनका बेटा मणिलाल और पोता कान्तिलाल।

इस यात्रा में सबसे बड़े गाँधीजी थे जिनकी उम्र इस समय 61 वर्ष की थी और सबसे छोटा सत्याग्रही अठारह वर्ष का था। सत्याग्रहियों की सूची में एक नाम अब्बास था। बड़ोदा हाई कोर्ट के अवकाश प्राप्त जज अब्बास तैयबजी, जिनकी उम्र इस समय 75 वर्ष से अधिक है, स्मरण करते हैं कि वह यह जान कर बहुत खुश हुए थे कि वह सत्याग्रह के लिये चुने गये हैं। क्योंकि तब तक वह यही समझ रहे थे कि उनकी उपेक्षा की जा रही है। वह भाग कर गाँधीजी से मिलने पहुंचे। महात्मा हंस कर बोले, 'मेरे दोस्त, यह आप नहीं, आश्रम में रहने वाला अब्बास है, जो मेरे साथ जायेगा।

यह सुन कर अब्बास तैयबजी उदास हो गये। लेकिन गाँधीजी ने कहा, 'निराश मत हो कि तुम सत्याग्रहियों के पहले दल में शामिल नहीं हो। तुम्हारे लिये एक और बड़े सम्मान की बात है। यदि मुझे गिरफ्तार कर लिया गया तो तुम डांडी यात्रा का नेतृत्व करोगे।

अब्बास तैयबजी यह सुन कर बड़े खुश हुए। बाद में उन्होंने धरसना साल्ट वर्क्स पर जाने वाले सत्याग्रहियों का नेतृत्व किया और गिरफ्तार हुए।

रत्नाजी जो अभी भी साबरमती आश्रम में रहते हैं, यह कहानी सुनाते हैं। गाँधीजी जानते थे कि सब आश्रमवासी उनके साथ डांडी मार्च पर जाने के लिये उत्सुक थे, लेकिन जब वह सत्याग्रहियों का चुनाव कर रहे थे तो उनके मन में उन सबके परिवारों की स्थिति आदि का विचार भी था। रत्नाजी एक जुलाहे थे, उनके ससुर रामजीभाई और साले हरखजी चुने गए लोगों में से थे। लेकिन जब इनका दूसरा साला भी सत्याग्रहियों में शामिल होने चला तो गाँधीजी ने कहा, 'नहीं, मैं तुम्हें नहीं ले सकता। परिवार के सब आदमियों का जाना ठीक नहीं है। तुम पीछे ठहर कर महिलाओं, बच्चों और वृद्धों की देखभाल करो।"

प्रार्थना के उपरान्त गाँधीजी और सत्याग्रहियों के दल ने भोर होते ही आश्रम छोड़ दिया। पहला रात्रि पड़ाव वहां से 20 किलोमीटर दूर था। सड़क के दोनों तरफ पूरी दूरी तक लोगों की भीड़ जमा थी। कई तो महात्मा के दर्शन करने के लिये वहां घंटों से खड़े थे।

पुलिस के सिपाही भी बड़ी संख्या में चारों ओर फैले हुए थे। लेकिन भीड़ और सत्याग्रहियों का अनुशासन ऐसा था कि गड़बड़ी का कोई खतरा ही नहीं था। गाँधीजी ने कहा, 'हम भगवान के नाम पर यह मार्च कर रहे हैं।" असलाली में उन्होंने लोगों से कहा, 'मार्च शुरू होते ही सत्याग्रहियों के पहले जत्थे ने तो अपने लौटने का रास्ता बंद कर दिया है। उन्होंने सौगंध खाई कि जब तक नमक कानून रद्द नहीं कर दिया जाता और स्वराज नहीं मिल जाता वह साबरमती आश्रम में वापस नहीं आयेंगे। उन्होंने ब्रिटिश सरकार को चुनौती दी कि उन्हें गिरफ्तार करे।"

निकट ही के एक गांव में गाँधीजी को वहां कोई चर्खा न देखकर बहुत खेद हुआ और उन्होंने लोगों से कहा, 'यदि स्वतंत्रता लेनी है तो नपद छोड़कर उठ खड़े हों। यदि तुम नहीं उठोगे तो अंग्रेज या अन्य लोग तुम्हें लूट लेंगे।"

उस 400 किलोमीटर के मार्ग पर जिसके द्वारा सत्याग्रहियों को डांडी जाना था, .श्य एक जैसा ही था। सड़क के दोनों ओर उत्तेजित पर अनुशासित भीड़ जो प्रत्येक गांव पर सत्याग्रहियों का स्वागत करने के लिये उनकी घंटों प्रतीक्षा करती रही थी। उन सबके लिये गाँधीजी का एक ही सन्देश था - 'विचार, शब्द एवं कार्य पवित्र होने चाहिये। चर्खा कातो और खादी पहनो। शराब छोड़ दो। सामाजिक कुरीतियों को खत्म करो। संगठित हो जाओ, शान्त रहो और अहिंसा का पालन करो एवं नमक कानून तोड़ने के लिये तैयार रहो।" यह सीधा सादा सन्देश था जो वैसी ही सरल भाषा में दिया गया था। लेकिन इसका प्रभाव जबरदस्त और विस्मयकारी था।

गाँधीजी का सन्देश भीड़ के पास सत्याग्रहियों के पहुंचने से पहले ही पहुंच जाता था। सब जान गए थे कि गाँधीजी और सत्याग्रही क्यों नमक कानून का उल्लंघन करने जा रहे हैं। अरुण टुकड़ी पहले ही रेलगाड़ी द्वारा हर गांव में पहुंच जाती थी। संदेश देती और गाँधीजी एवं सत्याग्रहियों के रहने का प्रबन्ध करती।

यात्रा के दौरान भी आश्रम की दिनचर्या को चालू रखा गया। दिन में दो बार प्रार्थना होती। सभी को चर्खा कातना पड़ता और अपनीगअपनी डायरी लिखनी पड़ती। वे दिन में लगभग 20 किलोमीटर चलते। कई थक जाते। लेकिन गाँधीजी को, जो उन सबसे उम्र में अधिक थे, कोई कठिनाई नहीं हो रही थी। वह अपने अनुयायियों को चिढ़ाने के लिये कहते, 'आधुनिक पीढ़ी कमज़ोर है और लाड़-प्यार से बिगड़ी हुई है।" गाँधीजी के उपयोग के लिये एक घोड़ा भी साथ था मगर वह उस पर कभी नहीं चढ़े।

प्रतिदिन प्रार्थना के पीचात गाँधीजी सत्याग्रहियों को सम्बोधित करते और यदि कोई प्रश्न होता तो उसका उत्तर भी देते। रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन यात्रा ठीक प्रातः छह बजे आरम्भ हो जाती। समय महत्वपूर्ण था। गाँधीजी ने कहा, 'यह हमारी तीर्थयात्रा है। हमें अपने एकगएक पल का हिसाब रखना चाहिये।" सब लोग रात नौ बजे सो जाते। लेकिन अन्य लोगों के उठने से बहुत पहले ही गाँधीजी आमतौर पर सुबह 4 बजे ही उठ जाते जिससे लोगों के पत्रों के उत्तर देकर काम निपटा लें। एक रात तो वह चांदनी में ही लिखते रहे क्योंकि उनके लैम्प का तेल खत्म हो गया था। लेकिन उन्होंने किसी को उठाया नहीं, जिससे कोई परेशान न हो।

प्रत्येक सोमवार को गाँधीजी का मौनव्रत रहता और सत्याग्रहियों के लिये यह आराम का दिन होता। पांच वर्ष पहले गाँधीजी ने सोमवार को मौनव्रत रखने का निश्चय किया था और अपना यह नियम वह किसी के लिये नहीं तोड़ते थे। सोमवार के दिन चाहे उन्हें वाइसराय या किसी अन्य ऊंचे अधिकारी से भी मिलना होता तो भी वह उनसे लिख कर ही बातें करते। एक बार उनसे पूछा गया कि वह सोमवार को बोलते क्यों नहीं? उन्होंने हंस कर उत्तर दिया, ''मैं सप्ताह में एक दिन आराम करना चाहता हूं। बहुत से लोग मुझसे कई प्रश्न पूछते हैं और मुझे एक क्षण भी आराम नहीं मिलता। मुझे भी तो एक छुट्टी चाहिये।"

सत्याग्रही सुबह की ठंडक में चलते और दोपहर को किसी एक गांव में आराम करते। फिर शाम को चलते और रात अन्य गांव में बिताते। वे खुले में सोते और सादा भोजन करते। गांववालों से कहा गया कि वे सत्याग्रहियों के भोजन और रहने-खाने पर कोई खर्चा न करें। उन्हें धन दान देने के लिये भी मना कर दिया गया। गाँधीजी ने उनसे कहा, 'केवल धन से स्वराज नहीं मिलेगा। अगर उससे मिलता तो मैं बहुत पहले ही ले लेता। उसके लिये तुम्हें अपना खून देना होगा।" सत्याग्रहियों को हर पड़ाव पर केवल बिना पका भोजन और सोने के लिये साफ-सुथरा स्थान चाहिये होता था।

डांडी मार्च केवल एक राजनैतिक अभियान ही नहीं था। इसका ध्येय लोगों को शिक्षा देना भी था। सादा जीवन बिताने और गांव वालों से कम से कम चीज़ों की मांग से गाँधीजी इस बात पर बल देते थे कि वह गरीबों और दलितों के साथी हैं। इसलिये उन्होंने अपने उन साथियों की आलोचना की जिन्होंने लारी द्वारा सूरत से ताज़ा दूध और सब्जियां मंगवाई। उन्हें यह भी पसन्द नहीं था कि लोग बहाना ढूंढ़ कर पास से गुजरती बैलगाड़ियों या कारों में चढ़ बैठें। एक रात जब उन्होंने देखा कि एक मजदूर सत्याग्रहियों के लिये एक भारी कैरोसिन लैम्पे लेकर चल रहा है तो उन्हें बड़ा गुस्सा आया।

वह इस बात पर ज़ोर देते थे कि यह आन्दोलन उन गरीबों और किसानों के लिये है जिनकी संख्या ही भारत में अधिक है। वह सब प्रकार के शोषण का विरोध करते थे। उन्हें इसका कोई कारण समझ नहीं आता था कि अंग्रेजों के शोषण का स्थान भारतीय शोषण क्यों ले।

उन्होंने कहा कि हम सरकार के ठाठबाट और विलासमय जीवन की आलोचना कैसे कर सकते हैं यदि हम भी वैसा ही जीवन बिताने लगें। हमें वैसे ही रहना चाहिये जैसे इस देश की आम जनता रहती है। हमें उन लोगों से, जिनके बीच हम रहते और काम करते हैं, ज्यादा अच्छा भोजन खाने का क्या अधिकार है?

'उन साधनों से अधिक साधनों का इस्तेमाल करना जो एक गरीब देश की सामर्थ्य नहीं है, चोरी के भोजन पर जीवित रहने जैसा ही है।" वह बोले, 'स्वतंत्रता की लड़ाई, चोरी का भोजन खा कर नहीं लड़ी जा सकती।"

जहां-जहां गाँधीजी ठहरते, स्थानीय नेता उनसे मिलकर सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ करने के लिये विचार-विमर्श करते रहते जिसे वे अपने-अपने क्षेत्रों में नमक कानून के उल्लंघन के बाद शुरू करने वाले थे।

गाँधीजी की ललकार के उत्तर में 300 गांवों के मुखियों ने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। गाँधीजी को अपने उत्तेजित अनुयायियों पर नियंत्रण रखना पड़ता जो उन सरकारी नौकरों का जिन्होंने इस्तीफा नहीं दिया था सामाजिक बहिष्कार करने पर तुले हुए थे। कई स्थानों पर बहिष्कार इतना सख्त था कि गांव के अधिकारी और सिपाही भोजन भी नहीं खरीद पाते थे। गाँधीजी ने लोगों से कहा कि यह हमारे धार्मिक सिद्धान्तों के विरुद्ध है कि अधिकारियों को भूखा रहने दिया जाये। उन्होंने कहा, 'यदि जनरल डायर को सांप काट ले तो मैं उसका जहर चूस लूंगा।"

यह जनरल डायर वही था जिसने ग्यारह वर्ष पहले जलियां वाला बाग में हत्याकांड करवाया था। उसे और उसके जघन्य कार्य को भुलाया नहीं जा सकता था। गाँधीजी को इस समय इसका स्मरण खड़ग बहादुर गुरखा के शब्दों से आया था, जो मार्च में शामिल होना चाहता था। वह गाँधीजी के 'न कहने से उदास हो गया। उसने कहा कि वह उन गुरखा लोगों के पापों का प्रायीश्चित करना चाहता था जिन्होंने जनरल डायर का आदेश मान कर शान्त और अहिंसक भीड़ पर गोलियां बरसाइऔ थे।

इस तरह साबरमती आश्रम से चलने वाले अठहत्तर सत्याग्रहियों में एक और शामिल हो गया।

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