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1. भूमिका

उन्हें चलते हुए तीन सप्ताह से अधिक हो गये थे। प्रतिदिन वे सूखे सपाट ग्रामीण इलाके से गुजरते थे। गर्मी की तेज़ धूप ने यहां की हरियाली को ललछौंहा और धूलभरा बना दिया था। और अब वे डांडी गांव में समुद्र  के किनारे खड़े थे। अरब सागर की लहरें उमड़ती हरहराती आते और तट को छू कर पीछे हट जाते।

ये कानून तोड़ने वाले लोग थे और उस कानून को तोड़ने आये थे जो उन्हें नमक बनाने और समुद्रद्वारा छोड़े नमक को उठाने तक से रोकता था।

मोहनदास करमचन्द गाँधी उनके नेता थे। पूरा भारत उन्हें गाँधीजी या महात्मा गाँधी के नाम से जानता था। दडांडी मार्च उसी आन्दोलन का भाग था जिसे गाँधीजी सत्याग्रह अथवा सत्य की खोज कहते थे।

चौबीस वर्ष पहले जब वह दक्षिण अफ्रीका में रह रहे थे, उनके सत्याग्रह ने सरकार को वह कानून रद्द करने पर विवश कर दिया था जिसके अधीन ट्रान्सवाल में रहने वाले सारे भारतीय पुरुष, स्त्राh और बच्चों को अपने नाम की रजिस्ट्री करवानी पड़ती थी और हर व्यक्ति को प्रमाणपत्र लेकर चलना पड़ता था जिसमें उसका नाम लिखा होता था और अंगूठे व उंगलियों के निशान रहते थे। ऐसा प्रमाण पत्र उन्हें हर समय अपने पास यह प्रमाणित करने के लिये रखना पड़ता था कि वे इस देश में रहने के अधिकारी हैं।

भारत में भी वह उसी रास्ते पर चल रहे थे। उन्होंने बिलकुल शान्त और अहिंसात्मक तरीके से विदेशी गोरी सरकार की सत्ता को चुनौती दी थी और वह सरकार के साथ असहयोग की नीति अपना रहे थे।

ब्रिटिश लोग भारत में 330 वर्ष पहले आये थे। वे सूरत बन्दरगाह पर उतरे थे जो डांडी से करीब 50 किलोमीटर दूर है, जहां पर आज अर्थात, पांच अप्रैल सन् 1930 को गाँधीजी एवं उनके अनुयायी अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ करने के लिये खड़े थे।

अंग्रेज व्यापार के लिये आये थे और फिर शासन करने के लिये रुक गये। लन्दन में सन् 1599 में ईस्ट इंडिया कम्पनी का गठन पूर्व से व्यापार करने के लिए किया गया था। सन् 1600 में कप्तान हाकिन्स की कप्तानी में एक छोटा सा जहाज भेजा गया जिसने सूरत में लंगर डाला। वहां से कुछ वर्ष बाद अंग्रेज मुगल सम्राट जहांगीर के दरबार में आगरा उपस्थित हुए। सम्राट ने हाकिन्स का स्वागत किया और ईस्ट इंडिया कम्पनी को भारत में व्यापार करने की अनुमति दे दी और यह अधिकार भी दिया कि वे बम्बई के उत्तर में अपने डिपो भी बना सकते हैं।

व्यापार में बहुत लाभ हुआ और कम्पनी खूब पनपी। अठारहवे शताब्दी में जब मुगल साम्राज्य कमज़ोर होकर टूटने लगा तो कम्पनी ने स्थानीय राजनीति में हस्तक्षेप शुरू कर दिया और जल्दी ही बहुत शक्तिशाली हो गई। उन्नीसवी शताब्दी का आरम्भ होते-होते अंग्रेज भारत के एक बड़े भाग पर शासन कर रहे थे। आरम्भ से ही भारतवासी उनके शासन का विरोध करने लगे थे। सन् 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध एक सशस्त्र क्रांति हुई जिसे बड़ी निष्ठुरता से दबा दिया गया। तब ब्रिटिश सरकार ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को विघटित करके भारत के शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ली।
यद्यपि भारत निवासी विदेशी शासन नहीं चाहते थे लेकिन प्रथम महायुद्ध के समय गाँधीजी और अन्य नेता अंग्रेजों के प्रति वफादार रहे। उनका विचार था कि युद्ध के उपरान्त अंग्रेज सरकार उनकी स्वतंत्रता की मांग को सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से देखेगी। उसके विपरीत जब प्रथम महायुद्ध समाप्त हो गया, तो अंग्रेजों ने स्वतंत्रता आन्दोलन को दबाने का भरसक प्रयत्न किया। इसके विरोध में गाँधीजी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने देश भर में 6 अप्रैल 1919 को हड़ताल करवाने का निश्चय किया। सारे भारत में दुकानें बन्द रहे, लोग काम पर नहीं गये, कारखाने बन्द रहे एवं स्कूलों में कक्षाएं तक खाली रहे।

13 अप्रैल, 1919 को जलसे-जलूसों पर प्रतिबन्ध लगा होने के बावजूद जलियांवाला बाग, अम-तसर, में सभा हुई। उसमें काफी भीड़ थी। स्थिति पर नियंत्रण के लिये सेना बुलाई गई और जनरल डायर ने भीड़ को सबक सिखाने के लिये फायरिंग का आदेश दिया। सैकड़ों निर्दोष लोग मारे गये और घायल हुए।

पूरा देश इस अत्याचार से उबल पड़ा। गाँधीजी ने देशभर में असहयोग और सविनय अवज्ञा आन्दोलन का आरम्भ किया। उन्होंने सरकारी संस्थाओं और विदेशी कपड़े का बहिष्कार करने का निश्चय किया। उन्होंने लोगों से चर्खे से कते सूत की बनी मोटी खादी पहनने को कहा।

इससे न सिर्फ ब्रिटेन की आर्थिक व्यवस्था की जड़ें हिल जाते - क्योंकि ब्रिटेन में बने कपड़े के लिये भारत एक बड़ी मंडी था जिससे उन्हें बड़ा लाभ होता था - बल्कि देहात के बहुत से गरीब लोगों को रोजगार भी मिलता।

गाँधीजी ने भारत भर के गांवों, कस्बों और बड़े शहरों की यात्रा की। प्रत्येक स्थान पर उनके दर्शनों के लिये व उन्हें सुनने के लिये भीड़ इकट्ठी हो जाती। उनकी सादगी, त्याग और सन्त जैसा जीवन ऐसा था कि लोग उनको प्यार करने लगे, एवं प्रशंसा और सम्मान की दृष्टि से देखने लगे थे।

उन्होंने लोगों से कहा कि यदि भारत को स्वराज्य लेना है तो उन्हें विदेशी कपड़े का बहिष्कार करना होगा। हर सभा में गाँधीजी लोगों से विदेशी कपड़े से बनी चीज़ें उतारने को कहते और जब उनका ढेर लग जाता तो उनकी होली जलाई जाती। बहुत से लोग उनका आदेश मानकर अपनी कमीजें, पतलून, टाई इत्यादि उतार के उनके चरणों में फेंक देते और फिर उस ढेर को आग लगा देते।

बहुत ही उत्तेजना के दिन थे वे। सारे भारत में विदेशी कपड़ों की होली जलाई जा रही थी और लोगों ने खादी पहनने की सौगन्ध खाई थी। हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया। जुलूस और सभाओं को बल प्रयोग से भंग किया गया। लेकिन सभी सत्याग्रहियों ने तो अहिंसक सविनय अवज्ञा और असहयोग का पाठ पढ़ा नहीं था, इसलिये कई स्थानों पर हिंसा भी फूट पड़ी। गाँधी जी ने तत्काल आन्दोलन रोक दिया क्योंकि उनके लिये अहिंसा सबसे महत्वपूर्ण थी।

इसके तुरन्त बाद ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 6 वर्ष की साधारण कैद हुई। लेकिन कैद का समय समाप्त होने से पहले ही गाँधीजी को खराब स्वास्थ्य के कारण छोड़ दिया गया। जेल में गाँधीजी को समय मिला कि वह भविष्य का कार्यक्रम बना सकें। उन्होंने अनुभव किया कि स्वतंत्रता का लाभ देश को तभी हो सकता है जब दरिौता और सामाजिक बुराइयों को जड़ से मिटा दिया जाए।

उन्होंने ऐसा कार्यक्रम बनाया जिससे गांवों की अर्थ व्यवस्था का पुनर्निर्माण किया जा सके। और सबको रोजगार मिल जाये। इसके लिये उन्होंने आवश्यक समझा कि गांवों में हाथ से कताई और बुनाई का चलन हो। वह छुआछूत और जातिवाद को समाप्त करना चाहते थे। वह यह भी चाहते थे कि महिलाओं की असमर्थताओं को दूर किया जाये। बाल-विवाह जैसी सामाजिक कुरीतियों को खत्म किया जाये एवं अस्वास्थ्यकर स्थितियों को सुधारा जाए।

उन्होंने यह भी अनुभव किया कि अंग्रेज धर्म के नाम पर भारतवासियों को एक दूसरे से अलग करने की कुचालें चल रहे हैं। इसलिये उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया और उसके लिये काम करने का निश्चय किया।

गाँधीजी इन सुधारों में व्यस्त हो गये थे, दूसरी ओर जवाहर लाल नेहरू जैसे युवा नेताओं को स्वाधीनता की ओर ले जानी वाली प्रगति बहुत धीमी लग रही थी। गाँधीजी भी उनसे सहमत थे और बोले, "अगर भारत को 31 दिसम्बर, 1929 तक उपनिवेश का दर्जा नहीं मिल जाता तो मैं घोषणा कर दूंगा कि मैं स्वाधीनता का पक्षधर हूं"।

उपनिवेश स्थिति का अर्थ होता भारत को आस्ट्रेलिया और कनाडा की तरह स्वायत्त शासन मिलना और ब्रिटेन से भी उसके संबंध बने रहना।

यद्यपि भारत की स्वाधीनता के लिये लड़ रही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में गाँधीजी किसी पद पर नहीं थे, फिर भी पार्टी के नेता उनसे परामर्श किये बिना कोई कदम नहीं उठाते थे।

31 दिसम्बर, 1929 को कांग्रेस ने घोषणा की कि उपनिवेश का दर्जा ही काफी नहीं है उन्हें तो पूर्ण स्वराज्य चाहिये। उन्होंने तय किया कि 26 जनवरी का दिन 'पूर्ण स्वराज दिवसू के रूप में मनाया जायेगा।

26 जनवरी, 1930 को सारे देश में बड़ी-बड़ी जनसभायें हुइ और उनमें गाँधीजी का प्रस्ताव पढ़ा गया। उसमें कहा गया थाः 'हम मानते हैं कि अन्य सबकी तरह भारतवासियों का भी अधिकार है कि वे स्वतंत्र हों और अपने परिश्रम के फल का आनन्द लें और जीवन की आवश्यक वस्तुं उन्हें मिलें। हम यह मानते हैं कि स्वतंत्रता पाने का सबसे अधिक सार्थक साधन हिंसा नहीं है। इसलिये उसकी तैयारी के लिये हम ब्रिटिश सरकार से सब संबंध तोड़ देंगे और सविनय अवज्ञा व असहयोग आन्दोलन करेंगे। जिसमें कर न देना भी शामिल होगा। हमें पूर्ण विश्वास है कि यदि हम सरकार को अपनी स्वैच्छिक सहायता और कर देना बन्द कर दें और भड़काने के बावजूद भी हिंसा का मार्ग न अपनायें तो इस अमानुषिक शासन का अन्त निश्चित है।

गाँधीजी अहमदाबाद के निकट साबरमती नदी के किनारे स्थित अपने आश्रम में रहने लगे और भारत को स्वाधीन कराने के अभियान का आयोजन करने लगे। वह समझते थे और हर कोई जानता था कि सविनय अवज्ञा और असहयोग आन्दोलन की अगुआई वही करेंगे। वह चाहते थे कि लोग सरकार के विरुद्ध उठ खड़े हों लेकिन अहिंसक रह कर। यह सरल नहीं था। लोग अंग्रेज सरकार से तंग आ चुके थे और वातावरण में हिंसा की चिनगारियां छिटक रही थप। एक क्रान्तिकारी ने उस रेलगाड़ी के नीचे बम फोड़ दिया जिसमें वाइसराय लार्ड अर्विन दिल्ली लौट रहे थे। वाइसराय को चोट तो नहीं लगी मगर इससे स्पष्ट हो गया कि लोग किस मूड में हैं। गाँधीजी ने इस आक्रमण की निन्दा की और लोगों से कहा कि अहिंसा के मार्ग पर चलें और उनके रचनात्मक कार्यक्रम का अनुगमन करें।

विश्व कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर साबरमती आश्रम में गाँधीजी से मिले। उन्होंने गाँधीजी से पूछा कि वह देश के लिये क्या योजना बना रहे हैं ? गाँधीजे ने केवल इतना कहा, "मैं दिन रात सोच रहा हूं लेकिन गहन अन्धकार में प्रकाश की कोई किरण फूटती नहीं दिखाई दे रही।"

उन्हें किसी ऐसे मुद्दे की खोज थी जिससे इस विदेशी सरकार की बुराइयां और अन्याय स्पष्ट हो जायें और पूरा देश जाग उठे।

वह छः सप्ताह तक सोचते रहे। तब उन्हें अपनी अन्तरात्मा की आवाज़ सुनाई दी जिसने उनको नमक कानून तोड़ने के लिये कहा।

यह एक विलक्षण योजना थी। गाँधीजी ने कुछ वर्ष पहले नमक खाना छोड़ दिया था। इसलिये यह चीज़ उनके स्वयं के लिये कोई महत्व नहीं रखती थी। लेकिन इसे स्वतंत्रता संग्राम का आधार बना कर उन्होंने केवल अपने देशवासियों के लिये ही नहीं बल्कि अन्य सभी देशों के लोगों के सामने स्पष्ट कर दिया कि उनका उद्देश्य कितना न्यायसंगत था और ब्रिटिश शासन कितना अन्यायी था।

लेकिन वाइसराय ने 'चुटकी भर नमक से सरकार का तख्ता पलटने की मिस्टर गांधी की पागल योजना' का मज़ाक उड़ाया।

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