एक
उस
रात अँधेरा बहुत घना था। मोहन को तो यों भी भूत-प्रेत से बड़ा डर लगता था। अँधेरे
में अकेला जाता तो यही डर लगा रहता कि कहीं किसी कोने से भूत-पिशाच न आ धमकें। फिर
उस रात को तो सचमुच हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा था। मोहन को कमरे से बाहर जाना था।
बाहर निकला तो पैर मानो जम गये। दिल धौंकनी की तरह चलने लगा। संयोग से पास ही घर की
पुरानी दाई रंभा खड़ी थी। उसने हँस कर पूछा, “क्या हुआ मोहन ?”
“मुझे तो डर लग रहा
है, दाई,” मोहन ने कहा।
“धत् पगले, डर काहे
का?”
“कितना अँधेरा है,
देखो तो। कहीं भूत-पिशाच न आ घेरें,” मोहन ने फुसफुसा कर कहा।
दाई ने प्यार
से माहन के सिर पर हाथ रख कर कहा, “ अँधेरे से भी कोई डरता है भला? बस, राम का नाम
लेते चलो। भूत-पिशाच पास नहीं फटकेंगे। तुम्हारा कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकेगा।
राम तुम्हारी रक्षा करेंगे।”
रंभा की बात से मोहन
की हिम्मत बँधी। दिल मजबूत करके, राम का नाम लेते हुए आगे बढ़ गया।
उस दिन से मोहन
के मन का डर जाता रहा। वह कभी भी अपने को अकेला महसूस नहीं करता था उसे विश्वास था
कि जब तक राम उसके साथ हैं तब तक उसे कोई नुकसान नहीं पहूँचा सकता।
तभी
से राम-नाम उसके जीने का मंत्र बन गया। यहाँ तक कि जीवन की अंतिम घड़ी में भी राम
का नाम ही उसकी जुबान पर था।
दो
मोहन
स्वभाव से बहुत ही शर्मीला था। जैसे ही पाठशाला में छुट्टी की घंटी बजती, वह बस्ता
समेट कर घर की ओर भागता। और लड़के रास्ते भर दोस्तों के साथ गपशप करते चलते। कोई
रास्ते में खेलने के लिए रुक जाता, कोई कुछ खाने-पीने के लिए। लेकिन मोहन न इधर
देखता, न उधर। उसे सदा यही डर रहता कि लड़के उसे पकड़ कर उसका मजाक बनायेंगे।
एक बार स्कूल में
इन्स्पेक्टर आये। उनका नाम था मिस्टर गाइल्स।
उन्होंने
लड़कों को अंग्रेजी के पाँच शब्द लिखने को दिये। मोहन ने और सारे शब्द तो लिख लिए,
सिर्फ ‘केटल’ लिखना नहीं आया। मास्टर ने देखा कि मोहन ने यह शब्द नहीं लिखा तो
उन्होंने, इन्स्पेक्टर की आँख बचाकर, इशारा किया कि साथ वाले लड़के के स्लेट से नकल
कर लो। लेकिन मोहन फिर भी चुपचाप बैठा रहा। सारे लड़कों ने पाँचें शब्द सही लिखे।
मोहन ने सिर्फ चार ही लिखे।
इन्स्पेक्टर चले गये
तो मास्टर मोहन पर खूब बिगड़े। उन्होंने कहा, “मैंने तो इशारा किया था कि साथ वाले
लड़के की स्लेट से नकल कर लो। नकल करना भी नहीं आता?”
लड़के
खूब हँसे।
मोहन घर चला तो दुखी
नहीं था। वह जानता था कि जो कुछ उसने किया वह ठीक ही था। अगर उसे दुःख था तो इस
बात का था कि
मास्टर जी ने खुद ही उससे नकल करने को कहा। उन्हें तो चाहिए था कि नकल करने वालों
को रोकें।
तीन
जब गाँधी जी दक्षिण
अफ्रीका में थे तो उन्होंनें वहाँ फीनिक्स में एक आश्रम खोला। आश्रम में बच्चों के
लिए भी पाठशाला खोली गयी। बापू अपने ढंग से बच्चों को शिक्षा देना चाहते थे। स्कूलों
में जिस तरीके से परीक्षाओं में नंबर दिये जाते थे वह उन्हें नापसंद था। आश्रम की
पाठशाला में उनकी कोशिश रहती कि बच्चों को सच्ची शिक्षा मिले - ऐसी शिक्षा जिससे
उनका ज्ञान बढ़े और उनमें अच्छी आदतें पडें।
परीक्षा
में नंबर देने का उनका तरीका भी निराला था। सब बच्चों से एक ही तरह के सवाल पूछे
जाते। बच्चे भी एक ही कक्षा के होते। फिर भी जो ज्यादा अच्छे उत्तर लिखते उन्हें कम
नंबर मिलते और जो कम अच्छे उत्तर देते उन्हें ज्यादा नंबर मिल जाते। नंबर देने का
उनका यह तरीका बच्चों की समझ में नहीं आता था। जब सही उत्तर लिखने वाले बच्चे कम
नंबर पाने का कारण पूछने ले तो एक दिन बापू ने उनको समझाया। बोले, “मुझे यह नहीं
बताना है कि राम से श्याम ज्यादा होशियार है। न इस हिसाब से मैं नंबर देता हूं। मुझे
तो यह देखना है कि हरेक लड़का पिछली बार जहाँ था, वहाँ से कितना आगे बढ़ा है। उसने
कितना ज्यादा सीखा है। होशियार लड़का यदि बुध्दू लड़के के साथ अपना मुकाबला करके
इतराता फिरे और सोचे कि मैं तो बड़ा तेज हूँ तो उसकी बुध्दि कुंद हो जायेगी। घमंड
के कारण वह पढ़ाई में मेहनत करने की जरूरत नहीं समझेगा। जो कोई ज्यादा लगन से और
पूरी मेहनत से काम करता है वही आगे बढ़ता है, और मैं उसी को ज्यादा नंबर भी देता
हूँ।”
वह ज्यादा नंबर पाने
वाले लड़के पर चौकस नजर रखते थे। वह ज्यादा सीख सहा है या नहीं, इसका पूरा-पूरा
ख्याल रखते थे। यदि ज्यादा नंबर मिलने से वह घमंड में फूला रहे तो उसका क्या भला हो
सकता है? इस बात को वह लडकों के मन में बिठा देते। कम होशियार लडका अगर मेहनत करता
और अगली परीक्षा में कुछ ज्यादा नंबर ले आता तो बापू
उसको
शाबाशी देते।
चार
यह
घटना तब की है जब बापू दक्षिण अफ्रीका के जोहन्सबर्ग नगर में वकालत करते थे। घर से
उनका दप्तर तीन मील दूर था। गाँधीजी के साथी श्री पोलक ने एक दिन उनके तेरह वर्षीय
पुत्र मणिलाल से एक पुस्तक दप्तर से लाने को कहा था। मणिलाल भूल गया। शाम को श्री
पोलक ने किताब माँगी, तब मणिलाल को याद आयी। बात गाँधी जी तक पहुँची। गाँधीजी ने
मणिलाल को बुलाकर बड़ें प्यार से लेकिन दृढ़ता से कहा, “बेटा मैं जानता हूँ कि रात
अँधेरी है और रास्ता सुनसान है। आना-जाना छह मील होता है। लेकिन तुमने पालक साहब की
किताब लाने का वादा किया था, इसलिए इस समय जाकर ले आओ।”
बापू
का आदेश सुनकर बा और घर के दूसरे लोग सहम गये। यह कैसी कठारे सजा थी! कहाँ तो वह जरा-सा
बच्चा और कहाँ वह अँधेरी रात और बीहड़ रास्ता ! लड़का भूल गया तो क्या हुआ? किताब
कल आ जायेगी। ऐसा विचार तो सबके मन में उठा लेकिन बोलने की हिम्मत किसी में नहीं
थी। लोग जानते थे कि बापू जो बात कह देते हैं वह पत्थर की लकीर
बन जाती है।
चुप्पी को तोड़ने की
हिम्मत की कल्याण भाई ने। उन्हेंने कहा, “मैं ला देता हूँ पुस्तक।”
बापू ने नरमी से,
लेकिन उसी दृढ़ता से कहा, “वादा तो मणिलाल ने किया था न?”
कल्याण जी ने कहा,
”अच्छी बात है, तो मणिलाल जाये। लेकिन उसके साथ मुझे जाने दीजिए।”
बापू मान गये।
मणिलाल कल्याण जी के
साथ गया और पुस्तक श्री पोलक को लाकर दे दी।
फूल
से भी कोमल और वज्र से भी कठोर बापू ने मणिलाल से वह काम करा कर ही छोड़ा जिसका वादा
उसने किया था।
पाँच
बंबई
में कांगेस की महासभा हो रही थी। गाँधी जी अभी-अभी अफ्रीका से लौटे थे। महासभा के
काम में हाथ बँटाने के लिए काका साहब कालेलकर आये हुए थे।
एक दिन गाँधीजी बहुत
ही परेशान से अपनी मेज के आसपास कुछ ढूँढ़ रहे थे। काका साहब ने उन्हे परेशान देख
कर पूछा, “क्या ढूँढ़ रहे हैं बापू?”
बापू ने कहा, “मेरी
पेंसिल खो गयी है-छोटी-सी है।”
एक पेंसिल के पीछे
बापू इतना समय बर्बाद कर रहे हैं और परेशान हो रहे हैं, यह काका साहब को ठीक न लगा।
झट अपनी पेंसिल देने लगे।
“नहीं, नहीं, मुझे
तो अपनी वही छोटी-सी पेंसिल ही चाहिए।” बापू ने बच्चों की तरह जिद करके कहा।
काका साहब ने कहा,
“तो अभी तो रख लीजिए। बाद में आपकी पेंसिल मैं ढूँढ़ दूँगा। उसे ढूंढने में आपका
समय बेकार खराब हो रहा है।”
बापू ने कहा, “वह
नन्ही-सी पेंसिल मेरे लिए बहुत कीमती है। आप नहीं जानते। वह मुझे मद्रास में नटेसन
के छोटे-से लड़के ने दी थी। कितने प्यार से उसने मुझे वह पेंसिल दी थी। वह खो जाय,
यह मैं कैसे सह सकता हूं? वह उस बच्चे के प्यार की निशानी है।”
काका साहब ने आगे
कुछ नहीं कहा। वह जान गये कि कुछ भी कहना बेकार है। वह भी गाँधी जी के साथ मिल कर
उस पेंसिल को ढ़ूँढने लगे। आखिर वह मिल गयी। काका साहब ने देखा कि पेंसिल का वह
टुकड़ा दो इंच से भी कम था। गाँधी जी पेंसिल को पाकर बहुत प्रसन्न हुए। वह कोई
मामूली पेंसिल नहीं थी। वह एक नन्हे बालक के प्यार की निशानी थी,
और
बच्चों का प्रेम बापू के लिए बहुत कीमती था।
छह
बापू
जी से मिलने से बच्चे आया करते थे। एक दिन एक छोटे-से बालक ने बापू की वेश-भूषा देखी
तो उसे बड़ा दुख हुआ। इतने बड़े बापू, और शरीर पर कुरता तक नहीं! उससे रहा नहीं गया,
पूछ ही बैठा, “बापू जी, आप कुरता क्यों नहीं पहनते?”
बापू ने बालक को
प्यार करके कहा,“मेरे पास पैसे कहाँ हैं, बेटा। मैं तो बड़ा गरीब आदमी हूँ। कुरते
के लिए पैसे कहाँ से लाऊँ?”
बालक का मन पसीज गया।
उसने कहा, “मेरी माँ को सिलाई आती है। देखिए न, मेरे सब कपड़े वही बनाती हैं। मैं
अपनी माँ से कह कर आपके लिए कुरता सिलवा दूँगा। फिर तो आप पहनेंगे न?”
बापू ने पूछा,
“कितने कुरते सी देंगी, तुम्हारी माँ?”
बालक ने कहा, “आपको
कितने चाहिए? एक, दो, तीन? जितने माँगेंगे उतने ही सी देंगी।”
बापू ने सोच में
पड़कर कहा, “मैं अकेला थ़ोडा ही हूँ। अकेला कैसे पहन लूँ कुरता?”
बालक ने कहा,“लेकिन
कितने कुरतों से काम चल जायेगा आपका?
मैं माँ से उतने ही
कुरते सिलवा लाऊँगा। बोलिये न बापू, कितने कुरते चाहिए आपको?”
बालक का आग्रह देख
कर बापू ने कहा, “बेटा, मेरे तो चालीस करोड़ भाई-बहन हैं। जब तक उनमें से हर एक के
तन पर कुरता नहीं होगा, मैं कैसे पहनूँगा, भला? बोलो, तुम्हारी माँ सबके लिए सी
देंगी?” यह कह कर बापू बालक का मुँह निहारने लगे। बालक सोच में पड़ गया। चालीस करोड़
भाई-बहन ! ठीक ही तो कहते हैं बापू। जब तक इन सबके पास कुरते नहीं होंगे, वह कैसे
पहनेंगे? वह सब से बड़े जो हैं, सब के बापू जो हैं। भोले बालक को समझ में आया कि
सारा देश ही बापू का परिवार है। हर एक देशवासी उनका बंधु है। वह सब के साथी, सब के
दोस्त हैं। एक कुरते से भला उनका
काम
कहाँ चलता !
सात
एक
दिन यरवडा जेल में बापू ने बातों ही बातों में सरदार वल्लभ भाई पटेल से कहा, “सहेज
कर रखा हुआ मरा साँप भी कभी न कभी काम आता है।” अपनी बात की सच्चाई सिध्द करने के
लिए उन्होंने एक कहानी सुनायी।
एक बुढ़िया के घर
में एक बार साँप निकला। बुढ़िया ने हो-हल्ला मचाया तो आस-पड़ोस के लोग आ गये। सब ने
मिल कर साँप को मार डाला और अपने-अपने घर लौट गये। बुढ़िया ने साँप को कहीं दूर
फेंक देने की बजाय झोपड़ी की छत पर फेंक दिया।
संयोग की बात, आसमान
में उड़ती एक चील ने मरे साँप को देखा। चील के मुँह में मोतियों की माला थी जो वह
कहीं से उठा लायी थी। उसने हार को गिरा दिया और मरे साँप को लेकर उड़ गयी। बुढ़िया
ने सफेद-सी चीज छत पर चमकती देखी तो बाँस के सहारे उसे सरका कर उतारा। जब उसने देखा
कि मोतियों का हार है तो खुशी से नाचने लगी।
बापू ने अपनी कहानी
खत्म की तो वल्लभ भाई ने एक कहानी सुनायी। एक बनिये के घर में साँप निकला । उसे
मारने वाला कोई नहीं मिला। बनिये की इतनी हिम्मत नहीं पड़ी कि वह साँप को मारे। इसके
अलावा जीव-हत्या करने की उसकी इच्छा भी नहीं हुई। उसने साँप को एक बर्तन के नीचे ढक
दिया। संयोग की बात, उसी रात बनिये के घर चोर घुसे। उन्होंने बर्तन को देखा तो सोचा
कि उसके नीचे जरूर कोई बढ़िया चीज ढकी रखी होगी। उन्होंने ज्यों ही बर्तन को
उठाया,
साँप ने लपक कर डस लिया। आये थे चोरी करने, अपनी जान के ही लाले पड़ गये।
आठ
चरखा संघ के लिए
रुपया संग्रह करने गाँधी जी शहर-शहर, गाँव-गाँव की यात्रा करते थे। उन दिनों वह
उड़ीसा का भ्रमण कर रहे थे।
एक
सभा में गांधी जी बैठे प्रवचन कर रहे थे। प्रवचन हो चुका तो एक बहुत बूढ़ी गरीब
स्त्री सभा से उठ कर आयी। उसके बाल सन जैसे सफेद थे। कमर झुक गयी थी। बिलकुल फटेहाल
थी। स्वंयसेवकों ने उसे गाँधी जी के पास जाने से रोका । लेकिन वह लड़-झगड़ कर बापू
के सामने पहुँच ही गयी।
“दर्शन करने हैं,”
कहकर उसने बापू का चरण स्पर्श किया और टेंट से एक अधेला निकाल कर उनके चरणों के पास
रख कर चली गयी।
गाँधी जी ने अधेला
उठा कर अपने पास रख लिया।
चरखा संघ का सारा
हिसाब-किताब सेठ जमनालाल बजाज रखते थे। उन्होंने अधेला माँगा कि हिसाब में जमा कर
दिया जाय। लेकिन बापू ने देने से इंकार कर दिया।
जमनालाल जी ने हँसकर
कहा, “ चरखा संघ के हजारों रुपयों के चेक मैं लेता हूँ। इस अधेले के लिए आपको मेरे
ऊपर विश्वास नहीं है?”
गाँधी जी ने कहा,
“यह अधेला तो उन हजारों से कहीं ज्यादा कीमती है। किसी आदमी के पास लाखों हों और वह
उनमें से हजार, दो हजार दे दे तो कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन उस बुढ़िया की तो
शायद यह अधेला ही सारी पूँजी थी। उसने तो अपना सर्वस्व दे दिया। कितना उदार, कितना
बड़ा दिल है उसका ! इसी कारण मेरे दिल में इस अधेले की कीमत
करोडों
से अधिक है।”
नौ
नोआखली की घटना है।
हिंदू-मुस्लिम दंगो के बाद लोगों के दिलों में जो आग भड़क रही थी, उसे बुझाने के
लिए, गाँधी जी पैदल यात्रा कर रहे थे। सुबह-सुबह एक गाँव से निकलते और सात बजते-बजते
दूसरे गाँव में पहुँच जाते। वहाँ पहुँच कर पहले तो लिखने-लिखाने का काम पूरा करते,
उसके बाद स्नान करते। स्नान करते समय पैर साफ करने के लिए वह एक खुरदरे पत्थर का
उपयोग करते थे। वह पत्थर बरसों पहले मीरा बहन ने उन्हें दिया था। तब से बापू ने उसे
बहुत संभाल कर रखा था। वह जहाँ भी जाते, वह पत्थर उनके साथ जरूर जाता।
एक
गाँव में गाँधी जी पहुँचे। उनके स्नान की व्यवस्था करते समय मनु बहन ने देखा कि
पत्थर तो वहाँ है नहीं। बहुत ढूँढ़ा, लेकिन नहीं मिला। उसने बापू को पत्थर के खो
जाने की बात बतायी और कहा, “कल हम लोग जिस जुलाहे के घर ठहरे थे, वहीं रह गया होगा।
अब क्या करूँ?” बापू ने कुछ देर तक सोच कर कहा, “तुम खुद वहाँ जाओ और पत्थर को
ढूँढ़ कर ले आओ। अकेली ही जाओ। एक बार परेशानी उठाओगी तो दूसरी बार नहीं भूलोगी।”
मनु बहन ने पूछा,
“किसी स्वयंसेवक को साथ ले लूँ? ”
बापू ने कहा,
“क्यों? ”
मनु चुप रह गयी। यह
नहीं कह सकी कि अकेले जाते डर लगता है। बात यह थी कि नोआखली में नारियल और सुपारी
के जंगल थे। कोई भी रास्ता भूल सकता था। इसके अलावा मनु तब 15-16 साल की ही तो थी।
अकेली कभी कहीं गयी नहीं थी। लेकिन बापू के “क्यों” का जवाब उससे देते नहीं बना।
जिस रास्ते से वे
लोग आये थे उसी रास्ते पर वह चल पड़ी। पैरों के निशानों को देखती-खोजती, वह किसी न
किसी तरह अगले गाँव में पहुँच ही गयी। जुलाहे का घर भी मिल गया। उस घर में एक
बुढ़िया रहती थी। उसने मनु को देखते ही पहचान लिया कि वही लड़की जो बापू के साथ कल
उस घर में ठहरी थी। उसने बड़े स्नेह से मनु का स्वागत किया। एक तो बापू पर खीझ,
दूसरे इतना लंबा पैदल सफर। मनु का बुरा हाल था। उसने बुढ़िया को अपने आने का कारण
बताया। बुढ़िया बेचारी को क्या पता कि पत्थर का यह टुकड़ा इतना अनमोल है। उसने तो
उसे कूडे के साथ कहीं फेंक दिया था।
दोनों
मिल कर ढूँढने लगीं। भाग्य की बात, पत्थर मिल गया। मनु की खुशी को ठिकाना न रहा।
सुबह
साढ़े सात बजे मनु घर से निकली थी। लौटी तो एक बज चुका था। पंद्रह मील चलना पड़ा
था। थक कर चूर हो गयी थी। भूख भी बड़े जोरों से लगी थी। बेहद खीझी हुई थी। वह सीधे
बापू के पास पहुँची और उनकी गोद में वह पत्थर डालकर रो पड़ी।
बापू ने प्यार से
कहा, “इस पत्थर के बहाने आज तेरी खूब परीक्षा हुई। जानती है, यह पत्थर पच्चीस साल
से मेरा साथी है। जेल में रहूँ या महल में, यह सदा मेरे साथ रहता है। ऐसे पत्थर और
मिल सकते हैं, लेकिन लापरवाही उचित नहीं है। मैं तुझे यही सिखाना चाहता था।” मनु
ने कहा, “बापू अगर मैंने कभी भगवान का नाम सच्चे दिल से लिया तो आज।”
बापू ने कहा, “मैं
स्त्रियों को निडर बनाना चाहता हूँ। केवल तुम नहीं, आज मैं भी कसौटी पर कसा गया।”
मनु ने कुछ कहा तो नहीं, लेकिन मन ही मन जरूर कबूल किया होगा कि सीख देने का बापू
का ढँग बिलकुल अनोखा था। |