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भूमिका

रचनात्मक कार्यक्रम को दूसरे शब्दों में अधिक और उचित रीति से सत्य और अहिंसात्मक साधनों द्वारा पूर्ण स्वराज्य की यानी पूरी-पूरी आजादी की रचना कहा जा सकता है।

स्वतंत्रता के नाम से पहचानी जानेवाली चीज को हिंसा के जरिये और इसलिए खासकर असत्यमय साधनों की सहायता से निर्माण करने की कोशिशें कितनी अधिक दुखदायी होती हैं, सो हम भलीभांति जानते हैं। आजकल जो लड़ाई चल रही है, उसमें हर रोज कितनी दौलत बरबाद हो रही है, कितने लोग मर रहे हैं, और सत्य का कितना खून हो रहा है।

सत्य और अहिंसा के जरिये संपूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति का मतलब है, जात-पात, वर्ण या धर्म के भेद से रहित राष्ट्र के प्रत्येक घटक की और उसमें भी उसके गरीब-से-गरीब व्यक्ति की स्वतंत्रता की सिद्धि। इस स्वतंत्रता से किसी को भी दूर या अलग नहीं रखा जा सकता। इसलिए अपने राष्ट्र से बाहर के दूसरे राष्ट्रों के साथ और राष्ट्र की जनता के भीतर उसके अलग-अलग वर्ग़ों के परस्परावलम्बन के साथ इस स्वतंत्रता का पूरा-पूरा मेल रहेगा। अलबत्ता, जिस तरह हमारी खपची हुई कोई भी लकीर यूक्लिड की शास्त्राhय व्याख्या की लकीर की तुलना में अधूरी रहेगी, उसी तरह तात्त्विक सिद्धान्त की अपेक्षा उसका व्यावहारिक अमल अधूरा रहता है। इसलिए जिस हद तक हम सत्य और अहिंसा का अपने रोजमर्रा के जीवन में अमल करेंगे, उसी हद तक हमारी हासिल की हुई संपूर्ण स्वतंत्रता भी पूर्ण होगी।

पाठक समूचे रचनात्मक कार्यक्रम का एक नक्शा अपने मन में खपचकर देखेंगे, तो उन्हें मेरी यह बात माननी होगी कि अगर इस कार्यक्रम को कामयाबी के साथ पूरा किया जाय, तो इसका नतीजा वह आजादी या स्वतंत्रता ही होगी, जिसकी हमें जरूरत है। क्या खुद मि. एमेरी ने यह नहीं कहा है कि हिन्दुस्तान के मुख्य दल आपस में जो समझौता करेंगे, वह मान लिया जायेगा ? मि. एमेरी की बात को मैं अपनी भाषा में यों कहूंगा कि कौमी एकता की, जो रचनात्मक कार्यक्रम के कई अंगों में से सिर्फ एक अंग है, सिद्धि के बाद सब दलों के बीच जो समझौता होगा, उसे ब्रिटिश सरकार मंजूर कर लेगी। मि. एमेरी ने यह बात सच्चे दिल से कही है या नहीं, इस पर तर्कगवितर्क करने की कोई जरूरत नहीं रहती; क्योंकि अगर इस तरह की एकता प्रामाणिकता के साथ यानी अहिंसा के जरिये हासिल हो जाती है, तो उसके बाद होनेवाले समझौते की अपनी असली ताकत ही ऐसी होगी कि सब दलों की उस मिली-जुली मांग को मंजूर करने के सिवा और कोई चारा किसी के पास रह नहीं जायेगा।

इसके खिलाफ हिंसा के जरिये हासिल होनेवाली स्वतंत्रता की काल्पनिक तो क्या, संपूर्ण कही जा सकनेवाली भी कोई व्याख्या नहीं। क्योंकि इस तरह की स्वतंत्रता में यह बात सहज ही आ जाती है कि राष्ट्र का जो दल हिंसा के साधनों का सबसे ज्यादा पुरअसर इस्तेमाल कर सकेगा, देश में उसी का डंका बजेगा। इस तरह के पूर्ण स्वराज्य में क्या आर्थिक और क्या दूसरी, किसी भी तरह की संपूर्ण समानता का तो विचार तक नहीं किया जा सकता।

लेकिन इस वक्त तो मैं अपने पाठकों को यही जंचाना चाहता हूं कि स्वराज्य की स्थापना के लिए जिस अहिंसक पुरुषार्थ की जरूरत है, उसके लिए यह जरूरी है कि रचनात्मक कार्यक्रम का अमल समझ-बुझकर किया जाय; लेकिन पाठकों के लिए मेरी यह दलील मानना आवश्यक नहीं कि पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति के लिए हिंसा का साधन जरा भी उपयोगी नहीं। अगर पाठक यह मानना चाहें कि हिंसा की किसी योजना में देश के गरीब-से-गरीब व्यक्ति की स्वतंत्रता का समावेश हो सकता है तो खुशी-खुशी मानें; लेकिन अगर इसके साथ वे यह मान सकें कि राष्ट्र द्वारा रचनात्मक कार्यक्रम का ठीक-ठीक अमल होने पर उसमें से इस प्रकार की स्वतंत्रता निश्चय ही प्राप्त होगी, तो उनकी उक्त धारणा के लिए मुझे आज उनसे कुछ नहीं कहना है।

अब हम एक-एक करके रचनात्मक कार्यक्रम के अंगों का विचार करें।


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