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12. नम्रता

ता. 7.10.30

मंगल प्रभात

इसका व्रतोंमें अलग स्थान नहीं है और न हो सकता है। अहिंसाका यह एक अर्थ है, या यों कहें कि अहिंसाके अंदर नम्रता आ जाती है। लेकिन नम्रता कोशिश करके लानेसे नहीं आती। वह तो स्वभावमें ही हो आ जानी चाहिये। जब पहले-पहले आश्रमकी नियमावलि बनाई गई, तो उसका मसविदा मित्रवर्गकों भेजा गया था। सर गुरुदास बैनरजीने नम्रतको व्रतोंमें स्थान देनेकी सूचना की थी; और उस वक़्त भी उसे व्रतोंमें शामिल करनेका मैंने वही कारण बताया था, जो मैं यहां लिख रहा हूं। लेकिन अगर उसे व्रतोंमें स्थान नहीं है, फिर भी वह व्रतोंसे शायद ज्यादा ज़रूरी है; ज़रूरी तो है ही। लेकिन किसीने नम्रता मश्कसे - अभ्याससे पाई हो, ऐसा जाननेमें नहीं आया। सत्यकी आदत डाली जा सकती है, दयाकी आदत डाली जा सकती है, (लेकिन) नम्रताकी आदत डालना दंभको आदत डालने जैसा कहा जा सकता है। यहां नम्रता वह चीज़ नहीं है, जो बड़े लोगोंमें एक-दूसरेके सम्मानके लिए दिखाई जाती है, या जिसकी तालीम दी जाती है। कोई किसीको धरती पर लंबा होकर प्रणाम करता हो, लेकिन मनमें तो उसके बारेमें नफ़रत हो भरी हो, तो यह नम्रता नहीं है - चालाकी है। कोई रामनाम रटा करे, माला फेरता रहे, मुनि जैसा बनकर समाजमें बैठे, पर उसके भीतर अगर स्वार्थ1 भरा हो, तो वह नम्र नहीं बल्कि ढोंगी है। नम्र मनुष्य खुद नहीं जानता कि कब वह नम्र होता है। सत्य वैग़राका माप हम अपने पास रख सकते हैं, लेकिन नम्रताका कोई माप नहीं होता। कुदरती नम्रता छिपी नहीं रहती। फिर भी नम्र मनुष्य खुद उसे देख नहीं सकता। वसिष्ठ और विश्वामित्रकी मिसाल तो हम आश्रममें बहुत बार समझ चुके हैं। हमारी नम्रता शून्यताकी हद तक जानी चाहिये। हम कुछ हैं ऐसा भूत मनमैं पैठा कि नम्रता ग़ायब हो गई और हमारे सब व्रत मिट्टीमें मिल गये। व्रतका पालन करनेवाला अगर मनमें अपने व्रत-पालनका घमंड रखे, तो व्रतोंकी क़ीमत खो बैठे और समाजमें जहर सरीखा हो जाय। उसके व्रतकी क़ीमत न तो समाज करेगा, न वह खुद उसका फल भोग सकेगा। नम्रताके मानी हैं 'मैं` का बिलकुल क्षय यानी मिट जाना। सोचनेसे मालूम हो जाता है कि इस जगतमें सारे जीव एक रजकण - ज़र्रेके बराबर भी नहीं हैं। शरीरके रूपमें हम क्षणजीवी हैं। कालके अनंत चक्रमें सौ सालका प्रमाण निकाला हो नहीं जा सकता। लेकिन अगर उस चक्करमें से हम निकल जायं - यानी 'कुछ नहीं` बन जायं, तो सब-कुछ हो जायं। 'कुछ` होना यानी ईश्वरसे - परमात्मासे - सत्यसे अलग होना। 'कुछ` का मिट जाना यानी परमात्मामें मिल जाना। समुद्रमें रही हुई बूंद समुद्रकी बड़ाई1 को भोगती है, लेकिन इसका उसे ज्ञान नहीं होता। ज्यों ही वह समुद्रसे अलग हुई और अपनेपन2 का दावा करने लगी उसी दम वह सूख गई। इस जीवनको पानीके बुलबुलेकी जो उपमा दी गई है, उसमें मैं जरा भी अतिशयोक्ति3 नहीं देखता। ऐसी नम्रता-शून्यता-आदत डालनेसे कैसे आ सकती है? लेकिन व्रतोंको सही ढंगसे समझने नम्रता अपने-आप आने लगती है। सत्यका पालन करनेकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य अहंकारी1 कैसे हो सकता है? दूसरेके लिए प्राण न्योछावर करनेवाला आदमी अपनी जगह बनाने कहां जाय? उसने तो जब प्राण न्योछावर करनेका तय किया तभी अपनी देहको फेंक दिया था।

ऐसी नम्रताका मतलब पुरुषार्थका अभाव (न होना) तो नहीं है? ऐसा अर्थ हिन्दू धर्ममें कर ही डाला गया है। और इसीलिए आलसको और पाखंड2को बहुतेरे स्थानों में जगह मिल गई है। सचमुच तो नम्रताके मानी हैं तीव्रतम पुरुषार्थ, सख्तसे सख्त मेहनत। लेकिन यह सब परमार्थके लिए होना चाहिये। ईश्वर खुद चौबीसों घण्टे एक सांससे काम करता रहता है, अंगड़ाई लेने तककी फ़ुरसत नहीं लेता। उसके हम हो जायं, उसमें हम मिल जायं, तो हमारा उद्यम3 उसके जैसा ही अंतद्रित4 हो जायगा-होना चाहिये। समुद्रसे अलग हुई बूंदके लिए हम आरामकी कल्पना कर सकते हैं, लेकिन समुद्रमें रहनेवाली बूंदको आराम कैसे मिल सकता है? समुद्रको एक क्षणका, एक पलका भी आराम कहां है? उसी तरह हमारा है। ईश्वर-रूपी समुद्रमें हम मिल गये कि हमारा आराम गया, अरामकी ज़रूरत भी गई। वही सच्चा आराम है, वही महा-अशांतिमें शांति है। इसलिए सच्ची नम्रता हमसे तमाम जीवोंकी सेवाके लिए सब-कुछ न्योछावर करनेकी आशा रखती है। सब-कुछ खतम होनेके बाद हमारे पास न इतवार रहता, न शुक्रवार, न सोमवार। इस दशाका वर्णन करना मुश्किल है, लेकिन वह अनुभवसे जानी जा सकती है। जिसने सब-कुछ न्योछावर कर दिया है, उसने इसका अनुभव किया है। हम सब इसका अनुभव कर सकते हैं। सब व्रत, सब कामकाज इस दशाका अनुभव करनेके लिए हैं। यह या वह, कुछ न कुछ करते करते वह दशा किसी दिन हमारे हाथ लग जायेगी। सिर्फ़ उसीको ढूंढने जानेसे वह मिलनेवाली नहीं है।

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