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11. सर्वधर्म-समभाव - 2

ता. 30.9.30

मंगल प्रभात

यह विषय3 ऐसा अहम है कि यहां मैं इसे जरा बढ़ाना चाहता हूं। अपना कुछ तजरबा मैं बताऊं तो समभावका अर्थ शायद ज़्यादा स्पष्ट होगा। जैसे यहां प्रार्थना रोज़ होती है वैसे ही फिनिक्समें भी रोज़ प्रार्थना हुआ करती थी। उसमें हिन्दू, मुसलमान और ईसाई थे। मरहूम रुस्तमजी सेठ और उनके बच्चे अनेक बार उसमें शामिल होते थे। रुस्तमजी सेठको 'मने बहालुं दादा रामजीनुं नाम' भजन बहुत पसंद था। जहां तक मुझे याद है, एक बार मगनलाल (गांधी) या काशी (बहन) वह भजन हम सबको गवा रही थी। रुस्तमजी सेठ हर्षमें बोल उठे : 'दादा रामजी' के बदले 'दादा होरमज़्द' गाओ न। गवानेवालोंने और गानेवालोंने यह विचार बिलकुल सहज भावसे अपना लिया और तबसे जब रुस्तमजी सेठ हाज़िर हों तब अचूक रूपमें और वे न हों तब कभी कभी हम वह भजन 'दादा होरमज़्द' के नामसे गाते थे। मरहूम दाऊद सेठका बेटा मरहूम हुसेन तो आश्रममें बहुत बार रहता था। वह प्रार्थनामें उत्साहसे शामिल होता था। वह खुद बहुत मीठे सुरमें 'ऑर्गन' के साथ 'ये बहारे बाग़ दुनिया चंद रोज' गाता था। यह भजन हम सबको उसने सिखा दिया था तथा प्रार्थनामें बहुत दफ़ा गाया जाता था। हमारे यहांकी प्रार्थनामालामें उसे जो स्थान मिला है वह सत्यप्रिय हुसेनकी यादगारमें मिला है। उससे ज़्यादा चुस्तीसे सत्यका पालन करनेवाले नौजवान मैंने देखे नहीं हैं। ज़ोसेफ रॉयपेन आश्रममें अनेक बार आते-जाते थे। वे ईसाई थे। उन्हें 'वैष्णव जन' भजन बहुत पसन्द था। वे संगीत बहुत अच्छा जानते थे। उन्होंने 'वैष्णव जन' की जगह एक दिन 'क्रिश्चियन जन तो तेने कहीए' अलापा। सबने तुरन्त उसे उठा लिया। ज़ोसेफके हर्ष1 का पार न रहा।

अपने संतोषके लिए जब में जुदा जुदा धर्मोंकी पुस्तकें देख रहा था तब ईसाई धर्म, इस्लाम, जरथुस्ती, यहुदी और हिन्दू - इतने धर्मोंकी पुस्तकेंकी मैंने अपने संतोषके लिए जानकारी प्राप्त की। यह करते हुए इन सब धर्मोंकी ओर मेरे मनमें समभाव था, ऐसा मैं कह सकता हूं। उस समय मुझे यह ज्ञान था ऐसा मैं नहीं कहता। 'समभाव' शब्दकी भी पूरी जानकारी उस वक़्त मुझे नहीं होगी। लेकिन उस समयके अपने स्मरण ताज़े करता हूं, तो मुझे इन धर्मोंकी टीका-टिप्पणी1 करनेकी इच्छा भी कभी हुई हो ऐसा याद नहीं आता। बल्कि उनकी पुस्तकोंको धर्मकी पुस्तकें समझ कर मैं आदरसे पढ़ता था और सबमें मूल नीतिके उसूल एकसे ही देखता था। कुछ बातें मेरी समझमें आती थीं। ऐसा ही हिन्दू धर्म-पुस्तकेंका था। ऐसी तो कितनी ही बातें हैं, जो आज भी मेरी समझमें नहीं आतीं। लेकिन अनुभवसे मैं देखता हूं कि जिसे हम समझ न सकें वह ग़लत ही है, ऐसा माननेकी जल्दबाजी करना भूल है। जो कुछ पहले मेरी समझमें नहीं आता था, वह आज दीयेके जैसा साफ़ मालूम होता है। अपने भीतर समभाव बढ़ानेसे बहुतसी गुत्थियां अपने-आप सुलझ जाती हैं; और जहां हमें दोष ही दिखाई दे वहां उसे दिखानेमें भी जो नम्रता और विनय हममें होता है, उसके कारण किसीको दुख नहीं होता।

एक उलझन शायद रहती है। पहले मैंने कहा है कि धर्म-अधर्मका भेद रहता है, और अधर्मके लिए समभाव रखनेका यह उद्देश्य नहीं है। अगर ऐसा ही हो तो क्या धर्म-अधर्मका निर्णय1 करनेमें ही समभावकी सांकल टूट नहीं जाती? - ऐसा सवाल उठेंगा; और ऐसा (धर्म-अधर्मका) निर्णय करनेवाला ग़लती करे यह भी मुमकिन है। लेकिन अगर हममें सच्ची अहिंसा हो, तो हम बैर-भावसे बच जाते हैं; क्योंकि अधर्मको देखते हुए भी अधर्म आचरनेवाले, बरतनेवालेके लिए तो हमारे मनमें प्रेमभाव ही होगा। और इसलिए या तो वह हमारी दृष्टी को अपनायेगा या हमारी ग़लती हमें दिखायेगा; या हम दोनों एक-दूसरेके मतभेद को बरदाश्त करेंगे। आखिर, सामनेवाला आदमी अगर अहिंसक नहीं होगा, तो वह सख्ती करेगा; लेकिन अगर हम अहिंसाके सच्चे पुजारी होंगे, तो हमारी नरमी उसकी सख्तीको दूर करेगी ही इसमें शक नहीं। दूसरोंकी ग़लतीके खातिर भी हमें उन्हें दुख नहीं देना है, खुद ही दुख उठाना है - यह सुनहला नियम जो पालता है, वह सब संकटोंसे उबर जाता है।

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