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10. सर्वधर्म-समभाव-1

ता. 23-9-30

मंगल प्रभात

हमारे व्रतोंमें जो व्रत सहिष्णुता यानी बरदाश्तके नामसे पहचाना जाता था, उसे यह नया नाम दिया गया है। सहिष्णुता शब्द अंग्रेजी शब्द 'टॉलरेशन' का अनुवाद है। यह मुझे पसंद नहीं था, लेकिन दूसरा नाम सूझता नहीं था। काकासाहबको भी वह पसंद नहीं था। उन्होंने सर्वधर्म-समादर शब्द सुझाया। मुझे वह भी पसंद नहीं आया। दूसरे धर्मेंको बरदाश्त करनेमें उनकी (धर्मोंकी) कमी मान ली जाती है। आदरमें मेहरबानीका भाव आता है। अहिंसा हमें दूसरे धर्मोंके लिए समभाव, बराबरीका भाव सिखाती है। आदर और सहिष्णुता अहिंसाकी नज़रसे क़ाफी नहीं है। दूसरे धर्मोंके लिए समभाव रखनेके मूलमें अपने धर्मकी अपूर्णताका स्वीकार1 आ ही जाता है। और सत्य की आराधना, अहिंसाकी कसौटी यही सिखाती है। संपूर्ण2 सत्यको अगर हमने देखा होता, तो फिर सत्यका आग्रह किसलिए रहता? तब तो हम परमेश्वर हो जाते; क्योंकि सत्य ही परमेश्वर है, ऐसी हमारी भावना है। हम पूरे सत्यको पहचानते नहीं है, इसलिए पुरुषार्थ3 के लिए जगह है। इसमें हमारी अपूर्णताका स्वीकार आ जाता है। अगर हम अपूर्ण हैं तो हमारी कल्पनाका धर्म भी अपूर्ण है। स्वतंत्र धर्म संपूर्ण है। उसे हमने देखा नहीं है, जैसे ईश्वरको हमने देखा नहीं है। हमारा माना हुआ धर्म अपूर्ण है और उसमें हमेशा हेरफेर हुआ करते हैं, होते रहेंगे। ऐसा हो तभी हम ऊपर उठ सकते हैं; सत्यकी ओर, ईश्वरकी ओर रोज़-रोज़ आगे बढ़ सकते हैं। और अगर आदमीके माने हुए सब धर्मेंको हम अपूर्ण मानें, तो फिर किसीको ऊंचा या नीचा माननेकी बात ही नहीं रहती। सब धर्म सच्चे हैं, लेकिन सब अपूर्ण हैं, इसलिए उनमें दोष4 हो सकते हैं। समभाव होने पर भी हम उनमें (सब धर्मोंमें) दोष देख सकते हैं। अपने धर्ममें भी हम दोष देखें। इन दोषोंके कारण उसे (अपने धर्मको) हम छोड़ न दें, लेकिन उसके दोषोंको मिटायें। अगर इस तरह हम समभाव रखें, तो दूसरे धर्मोंमें से जो कुछ लेने लायक़ हो उसे अपने धर्ममें जगह देनेमें हमें हिचकिचाहट नहीं होगी; इतना ही नहीं बल्कि ऐसा करना हमारा फ़र्ज हो जायेगा।

सब धर्म ईश्वरके दिये हुए हैं, लेकिन वे मनुष्यकी कल्पनाके धर्म है। और मनुष्य उनका प्रचार करता है, इसलिए वे अपूर्ण हैं। ईश्वरका दिया हुआ धर्म पहुंचके परे-अगम्य है। मनुष्य उसे (अपनी) भाषामें रखता है, उसका अर्थ भी मनुष्य करता है। किसका अर्थ सच्चा है? सब अपनी अपनी दृष्टिसे, जब तक उस दृष्टिके मुताबिक़ चलते हैं तब तक, सच्चे हैं। लेकिन सबका ग़लत होना भी नामुमकिन नहीं। इसीलिए हम सब धर्मोंकी ओर समभाव रखें। इससे अपने धर्मके लिए हममें उदासीनत नहीं आती, लेकिन अपने धर्मके लिए हमारा जो प्रेम है वह अंधा न होकर ज्ञानवाला (ज्ञानमय) बनता है और इसलिए वह ज़्यादा सात्विक, ज़्यादा निर्मल बनता है। सब धर्मोंकी ओर समभाव हो तभी हमारे दिव्य चक्षु खुलेंगे। धर्मांधत3 में और दिव्य दर्शनमें उत्तर-दक्षिणका अंतर है। धर्मका ज्ञान होने पर अड़चने दूर होती हैं और समभाव पैदा होता है। यह समभाव मनमें बढ़ाकर हम अपने धर्म को ज़्यादा पहचानेंगे।

यहां धर्म-अधर्मका भेद नहीं मिटता। यहां तो जिन धर्मों पर मुहर लगी हुई हम जानते हैं उनकी बात है। इन सब धर्मोंमें मूल सिद्धान्त-बुनियादी उसूल - तो एक ही हैं। इन सब धर्मोंमें संत स्त्री-पुरुष हो गये हैं, आज भी मौजूद है। इसलिए धर्मोंके लिए समभावमें और धर्मियों - मनुष्यों - के लिए समभावमें कुछ फ़र्क़ है। सारे मनुष्योंके लिए - दुषट1 और श्रेष्ठ के लिए, धर्मी और अधर्मीके लिए समभाव की ज़रूरत है, लेकिन अधर्मके लिए कभी नहीं।

तब सवाल यह उठता है कि बहुतसे धर्म किसलिए? धर्म बहुतसे हैं यह हम जानते हैं। आत्मा एक है, लेकिन मनुष्य-देह अनगिनत हैं। देहोंका यह अनगिनतपन टाले नहीं टलता। फिर भी आत्माकी एकताको हम पहचान सकते हैं। धर्मका मूल एक है, जैसे पूड़का एक है; लेकिन उसके पत्तें अनगिनत हैं।

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