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9. जात-मेहनत

ता.16-9-30

जात-मेहनत तमाम मनुष्योंके लिए लाजिमी है, यह बात पहले-पहल टॉलस्टॉयका एक निबन्ध पढ़कर मेरे मनमें बैठ गई। यह बात इतनी साफ जाननेके पहले भी इस पर अमल तो मैं रस्किनका 'अन्टु दिस लास्ट' (सर्वोदय) पढ़कर तुरन्त करने लग गया था। जात-मेहनत अंग्रेजी शब्द 'ब्रेड लेबर' का अनुवाद है। 'ब्रेड लेबर' का शब्दके मुताबिक अनुवाद है रोटी (के लिए) मजदूरी। रोटीके लिए हरएक मनुष्यको मजदूरी करनी चाहिये, शरीरको (कमरको) झुकाना चाहिये, यह ईश्वरका कानून है। यह मूल खोज टॉल्स्टॉयकी नहीं है, लेकिन उनसे बहुत कम मशहूर रशियन लेखक बोन्दरेव्ह (टी. एम. बोन्दरेव्ह) की है। टॉल्स्टॉयने उसे रोशन किया और अपनाया। इसकी झांकी मेरी आंखे भगवद्गीताके तीसरे अध्याय1 में करती हैं। यज्ञ किये बिना जो खाता है वह चोरीका अन्न खाता है, ऐसा कठोर शाप2 यज्ञ नहीं करनेवालेको दिया गया है। यहां यज्ञका अर्थ जात-मेहनत या रोटी-मजदूरी ही शोभता3 है और मेरी रायमें यही हो सकता है। जो भी हो, हमारे इस व्रतका जन्म इस तरह हुआ है। बुद्धि भी उस चीजकी ओर हमें ले जाती है। जो मजदूरी नहीं करता उसे खानेका क्या हक है?  बाइबल कहती है : अपनी रोटी तू अपना पसीना बहाकर कमा और खा।ृ करोड़पति भी अगर अपने पलंग पर लोटता रहे और उसके मुंहमें कोई खाना डाले तब खाये, तो वह ज्यादा समय तक खा नहीं सकेगा; इसमें उसे मजा भी नहीं आयेगा। इसलिए वह कसरत वगैरा करके भूख पैदा करता है और खाता तो है अपने ही हाथ-मुं हिलाकर। अगर यों किसी न किसी रुपमें अंगोकी कसरत राय-रंक सबको करनी ही पड़ती है, तो रोटी पैदा करनेकी कसरत ही सब क्यों न करें? यह सवाल कुदरती तौर पर उठता है। किसानको हवाखोरी या कसरत करनेके लिए कोई कहता नहीं है और दुनियाके 90 फीसदीसे भी ज्यादा लोगोंका गुजारा खेती पर होता है। बाकीके दस फीसदी लोग अगर इनकी नकल करें, तो जगतमें कितना सुख, कितनी शांति और कितनी तंदुरुस्ती फैल जाये? और अगर खेतीके साथ बुद्धि भी मिल जाय, तो खेतीसे सम्बन्ध रखनेवाली बहुतसी मुसीबतें आसानीसे दूर हो जायेंगी। फिर, अगर इस जात-मेहनतके निरपवाद 3 कानूनको सब लोग मानें, तो ऊंच-नीचका भेद मिट जाय। आज तो जहां ऊंच-नीचकी गंध भी नहीं थी वहां यानी वर्ण-वयवस्थामें भी वह घुस गई है। मालिक-मजदूरका भेद आम और कायम हो गया है और गरीब आदमी धनवानसे जलता है। अगर सब लोग रोटीके लिए मजदूरी करें, तो ऊच-नीचका भेद न रहे; और फिर भी धनिक वर्ग रहेगा तो वह खुदको मालिक नहीं बल्कि उस धनका रखवाला या ट्रस्टी मानेगा और और उसका ज्यादातर उपयोग सिर्फ लोगोंकी सेवाके लिए करेगा। जिसे अहिंसाका पालन करना है, सत्यकी भक्ति करनी है, ब्रह्मचर्यको कुदरती बनाना है, उसके लिए तो जात-मेहनत रामबाण-सी हो जाती है। यह मेहनत सचमुच तो खेतीमें ही होती है। लेकिन सब लोग खेती नहीं कर सकते, ऐसी हालत आज तो है ही। इसलिए खेतीके आदर्श4 को खयालमें रखकर खेतीके बदलेमे आदमी भले दूसरी मजदूरी करे - जैसे कताई, बुनाई, बढ़ईगिरी, लुहारी वगैरा वगैरा।

सबको खुदका भंगी तो बन ही जाना चाहिये। जो खाता है वह टट्टी फिरेगा ही। जो आदमी टट्टी फिरता है वही अपनी टट्टीको जमीनमें गाड़ दे, यह उत्तम रिवाज है। अगर यह नहीं ही हो सके, तो प्रत्येक कुटुम्ब अपना यह फ़र्ज अदा करे। जिस समाजमें भंगीका अलग पेशा माना गया है, वहां कोई बड़ा दोष पैठ गया है, ऐसा मुझे तो बरसोंसे लगता है। इस ज़रूरी और तंदुरुस्ती बढ़ानेवाले (आरोग्य-पोषक) कामको सबसे नीच काम पहले-पहल किसने माना, इसका इतिहास हमारे पास नहीं है। जिसने माना उसने हम पर उपकार1 तो नहीं ही किया। हमस ब भंगी हैं, यह भावना हमारे मनमें बचपनसे ही जम जानी चाहिये; और उसका सबसे आसान तरीक़ा यह है कि जो लोग समझ गये हैं, वे जात-मेहनतका आरंभ पाख़ाना-सफ़ाईसे करें। जो समझ-बूझकर, ज्ञानपूर्वक यह करेगा, वह उसी क्षणसे धर्मको निराले ढंगसे और सही तरीक़ेसे समझने लगेगा।

बालक, बूढ़े और बीमारीसे अपंग3 बने हुए लोग अगर मज़दूरी न करें, तो उसे कोई अपवाद न समझे। बालक अपनी मांमें समा जाता है। अगर कुदरतके क़ानूनका भंग न किया जाय, तो बूढ़े अपंग नहीं बनेंगे; और उन्हें बीमारी तो होगी ही क्यों?

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