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राष्ट्रपिता गाँधी का साहित्यकार रूप

डॉ. सुशीला गुप्ता

यह बात सर्वविदित है कि महात्मा गाँधी पर जितना साहित्य लिखा गया, उतना शायद ही किसी अन्य मनीषी, चिन्तक, विचारक या साहित्यकार पर लिखा गया है। गाँधी पर सबसे पहले किसने पुस्तक लिखी, इसके बारे में कुछ कहना तो कठिन है, लेकिन हाल ही में प्रकाशित पुस्तकों में से एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक है नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नयी दिल्ली द्वारा प्रकाशित 'आस्था पुरुष', जिसके लेखक हैं त्रिपुरा के पूर्व राज्यपाल प्रोअ सिद्धेश्वर प्रसाद।

इस लेख का प्रयोजन गाँधी-साहित्य पर विमर्श का नहीं, बल्कि महात्मा गाँधी द्वारा लिखित साहित्य के अवलोकन का है। वस्तुत महात्मा गाँधी ऐसे साहित्यकार थे, जिन्होंने सत्य के अपने प्रयोग के बारे में अनवरत लिखा। संसार का शायद ही ऐसा कोई जीवनोपयोगी विषय होगा, जिस पर गाँधीजी ने प्रयोग नहीं किया हो और शायद ही उनका कोई प्रयोग हो, जिस पर उन्होंने लेखनी नहीं उठायी हो। प्रोअ सिद्धेश्वर प्रसाद ने लिखा है, ''मानव जीवन की शायद ही कोई प्रवृत्ति हो, जिसे उन्होंने अपने कार्यक्रम में शामिल न किया हो और जीवन के किसी भी पक्ष की, छोटी-से-छोटी, शायद ही कोई बात हो, जिस पर उन्होंने क़लम न चलायी हो। इस रूप में वे मानव-इतिहास के सबसे बड़े प्रबंधक और प्रवृत्ति-प्रवर्त्तक के साथ-साथ संप्रेषक थे। किसके जीवन को, किस कार्य को, किस प्रवृत्ति को उन्होंने अपना स्नेह-सिंचन नहीं दिया? हर व्यक्ति में छिपे देवत्व को उन्होंने जगाने की कोशिश की, हर पतित को उन्होंने उठाने की कोशिश की। 'जे पीड़ पराई जाने रे' उनके लिए भजन नहीं, बल्कि कण-कण में व्याप्त ईश्वर की प़ीड़ा का जीवित अनुभव था।''

महात्मा गाँधी द्वारा लिखित पुस्तकों की संख्या कुल मिलाकर चालीस के आसपास है, जिनका प्रकाशन सर्व सेवा संघ, सस्ता साहित्य मण्डल, नवजीवन और सर्वोदय मण्डल आदि ने किया है। उनकी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पुस्तकें हैं-'सत्य के प्रयोग' अथवा 'आत्मकथा', 'अनासिक्त योग', 'सर्वोदय', 'मेरे सपनों का भारत', 'विद्यार्थियों को संदेश', 'महिलाओं से', 'पंचरत्न' आदि। ये सारी पुस्तकें गुजराती भाषा में हैं, जिनके हिन्दी अनुवाद उपलब्ध हैं।

महात्मा गाँधी की पुस्तकों को पढ़ने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे आवश्यकता पड़ने पर अपने पुराने विचारों को त्याग कर नये विचार बड़ी तत्परता से अपना लेते थे। उन्होंने एक जगह लिखा है, ''जब किसी को मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगे, तब अगर मेरी समझदारी में विश्वास हो तो वह एक ही विषय के दो लेखों में से मेरे बाद के लेख को प्रमाणभूत माने।'' हमें गाँधीजी के इस विचार से सहमत होना पड़ेगा कि नित नये प्रयोग के कारण विचारों में नवीनता का आना स्वाभाविक है।

महात्मा गाँधी के जीवन, सिद्धान्त और कार्यपद्धति की पूरी झाँकी उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा' में मिलती है। अपने प्रति इतनी ईमानदारी और अन्तर्मन के विचारों का ऐसा बेबाक उद्घाटन विश्व के शायद ही किसी ग्रंथ में मिलेगा। यह विशेषता लेखक के पारदर्शी व्यक्तित्व के कारण है। इस पुस्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा है, ''यदि मुझे केवल सिद्धातों का अर्थात् तत्त्वों का ही वर्णन करना हो, तब तो यह आत्मकथा मुझे लिखनी ही नहीं चाहिए। लेकिन मुझे तो उन पर रचे गये कार्यों का इतिहास देना है और इसीलिए मैंने इन प्रयत्नों को 'सत्य के प्रयोग' जैसा पहला नाम दिया है।...यह सत्य स्थूल वाचिक सत्य नहीं हैं। यह तो वाणी की तरह विचारों का भी सत्य है। यह सत्य केवल हमारा कल्पित सत्य नहीं है, बल्कि स्वतत्र चिरस्थायी सत्य है।''

श्री कमल किशोर गोयनका का विश्वास है कि ''आदर्श पुरुषों में एक बड़ी सिफ़त यह होती है कि अपनी ग़लती तस्लीम करने में वे ज़रा भी आगा-पीछा नहीं करते।'' महात्मा गाँधी की इसी सिफ़त ने उन्हें इतना महान बना दिया कि सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टाइन को उनके बारे में यह कहना पड़ा कि आनेवाली पीढ़ियाँ मुश्किल से यह विश्वास कर सकेंगी कि हमारे बीच हाड़-मांस का ऐसा चलता-फिरता आदमी पैदा हुआ था।'' गाँधीजी मौखिक रूप से ही नहीं, लिखित रूप से अपनी ग़लतियाँ स्वीकार करते थे, ग़लतियों से सब़क सीखते थे, जो सब़क सीखते थे, वह अपने ऊपर लागू करते थे और दूसरों को स्वयं पर लागू करने के लिए प्रेरित करते थे। वे ही सब़क उनके सिद्धान्त थे - गाँधी-सिद्धान्त थे। उनकी आत्मा-कथा में इन्हीं सब बातों का वर्णन है बिना किसी लाग-लपेट के, बिना किसी दुराव-छिपाव के। चाहे विषयासक्ति की बात हो, चाहे एक सामान्य विद्यार्थी होने की हो, चाहे चोरों की तरह छिपकर मांसाहार करने की हो, चाहे जूठी बीड़ी चुराकर पीने की लत हो, चाहे गोरे अधिकारियों द्वारा बार-बार अपमानित किये जाने की हो - सब-कुछ उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है। ऐसी घटनाएँ आत्म-निरीक्षण के लिए प्रेरित करती हैं और आत्म-निरीक्षण आत्म-परिष्कार का मार्ग प्रशस्त करता है तथा आत्म-परिष्कार अपने साथ-साथ दूसरों का भी परिष्कार करता है। इन्हीं सब प्रक्रियाओं की अभिव्यक्ति का नाम है 'सत्य के प्रयोग अर्थात् आत्मकथा'।

आत्म-परिष्कार ने ही महात्मा गाँधी को आत्मशुद्धि का मार्ग दिखाया, सत्य की अनुभूति करायी और दिखाया अहिंसा का मार्ग। अपनी आत्मकथा के अन्त में उन्होंने ये उद्गार प्रगट किये हैं, ''मन के विकारों को जीतना, संसार को शस्त्र-युद्ध से जीतने की अपेक्षा भी मुझे कठिन मालूम होता है। हिन्दुस्तान आने के बाद भी मैं अपने अन्दर छिपे हुए विकारों को देख सका हूँ, शर्मिन्दा हूँ, किन्तु हारा नहीं। सत्य के प्रयोग करते हुए मैंने रस लूटा है, आज भी लूट रहा हूँ। लेकिन मैं जानता हूँ कि अभी मुझे विकट मार्ग पूरा करना है। इसके लिए मुझे शून्यवत बनना है। जब तक मनुष्य स्वेच्छा से अपने को सबसे नीचे नहीं रखता, तब तक उसे मुक्ति नहीं मिलती। अहिंसा नम्रता की पराकाष्ठा है। और यह अनुभव-सिद्ध बात है कि इस नम्रता के बिना मुक्ति कभी मिलती नहीं।''

महात्मा गाँधी ने सत्य के प्रयोग के लिए जिस तरह अपनी आत्मकथा लिखी, उसी ढर्रे पर गीता का अपने ढंग से अनुवाद किया। यह स्वीकार करते हुए कि उनको संस्कृत और गुजराती भाषा का अनुवाद करने लायक ज्ञान नहीं है, उन्होंने गंदे साहित्य और नकारात्मक साहित्य की बाढ़ से जन-साधारण को बचाने के लिए गीता का अनुवाद किया और उसे 'अनासक्तियोग' नाम दिया। इस कार्य में उन्हें लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के 'कर्मयोगशास्त्र' से प्रेरणा मिली। उन्होंने अपनी पुस्तक में गीता का अनुवाद करके और आवश्यकतानुसार टिप्पणी देकर जीवन के मूलभूत सिद्धान्त अनासक्तियोग का प्रतिपादन किया।

महात्मा गाँधी दावे के साथ कहते हैं कि ''गीता ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि इसमें भौतिक युद्ध के बहाने प्रत्येक मनुष्य के हृदय के भीत होते रहनेवाले द्वद्व-युद्ध का ही वर्णन है, मानुषी योद्धाओं की रचना हृदयगत युद्ध को रोचक बनाने के लिए गढ़ी हुई कल्पना है।'' उनके अनुसार ''मनुष्य का शरीर ही धर्मक्षेत्र रूपी कुरुक्षेत्र है, जिसमें अच्छी और बुरी वृत्तियों का युद्ध चलता रहता है। महाभारत के पात्र अपने मूल रूप में ऐतिहासिक भले ही हों, उनका उपयोग व्यास भगवान ने केवल धर्म का दर्शन कराने के लिए ही किया है।''

जो अनगिनत लोग अपने जीवन में काम को महत्त्व नहीं देते, बिना परिश्रम किये अपना व़क्त गुजारते हैं, गाँधीजी उनकी आँखें खोलने का प्रयत्न करते हैं। उनके अनुसार कर्म किये बिना मनुष्य का कल्याण हो ही नहीं सकता। वे कहते हैं, ''जहाँ शरीर है, वहाँ कर्म तो है ही'' - जो लोग कर्म को बन्धन मानते हैं, गाँधीजी उन्हें ढोंगी मानते हैं - ऐसे ढोंगी लोगों को अपनी चारपाई से उतरना भी गवारा नहीं, वे ढोंगी हाथ से लोटा उठाना भी कर्म-बन्धन मानते हैं - ऐसे लोग अपने कर्म को त्यागकर अपने जीवन का क्षय करते हैं। गाँधीजी के अनुसार ''कर्म-बिना किसी ने सिद्धि नहीं पायी, जनक आदि भी कर्म द्वारा ज्ञानी हुए। यदि मैं भी आलस्य-रहित होकर कर्म न करता रहूँ तो इन लोकों का नाश हो जाय।'' वे कर्म की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि ''हमारी शारीरिक और मानसिक सभी चेष्टाएँ कर्म हैं।'' गीता में जिस तरह कर्म करते हुए भी बन्धन-मुक्ति का रास्ता बताया गया है, वह अन्य किसी ग्रंथ में नहीं मिलता। कर्म को धर्म से जोड़ने का काम गाँधीजी ही के बस का था, उन्होंने कर्म की भावना को धर्म के स्तर तक लाकर धर्म को संकीर्णता के घेरे से बाहर निकाला और कर्म को निष्काम कर्म का दर्जा दिया। वे कर्म करते हुए भी बन्धन-मुक्त रहने पर ज़ोर देते हैं। उन्हीं के शब्दों में गीता का उपदेश है - ''फलासक्ति छोड़ो और कर्म करो, निष्काम होकर कर्म करो। जो कर्म छोड़ता है, वह गिरता है, कर्म करते हुए भी जो उसका फल छोड़ता है, वह चढ़ता है। फल-त्याग का मतलब यह नहीं कि परिणाम के सम्बन्ध में लापरवाह रहे, परिणाम और साधन का विचार और उसका ज्ञान अति आवश्यक है। ज्ञान होते के बाद जो मनुष्य परिणाम की इच्छा किये बिना साधन में तन्मय रहता है, वह फलत्यागी है।''

महात्मा गाँधी यह मानते थे कि ''गीताकार की भाषा के अक्षरों से यह बात भले ही निकलती हो कि सम्पूर्ण त्यागी द्वारा भौतिक युद्ध हो सकता है, किन्तु गीता की शिक्षा को पूर्ण रूप से अमल में लाने के बाद चालीस वर्षों तक सतत प्रयत्न करने पर मुझे तो नम्रतापूर्वक ऐसा जान पड़ा कि सत्य और अहिंसा का पूर्ण रूप से पालन किये बिना सम्पूर्ण कर्मफल-त्याग मनुष्य के लिए असम्भव है।''

गाँधीजी का दृढ़ मत था कि ''गीता में ज्ञान की महिमा सुरक्षित है, तथापि गीता बुद्धिगम्य नहीं है, वह हृदय-गम्य है। अत वह अश्रद्धालुओं के लिए नहीं है। वह विधि-िनषेध बतानेवाला ग्रंथ नहीं है - हाँ, निषिद्ध केवल फलासक्ति है, विहित है अनासक्ति।''

मिअ पोलाक ने महात्मा गाँधी को रस्किन की पुस्तक 'अंटु दिस लास्ट' उस समय दी, जब वे जोहानिसबर्ग से ट्रेन द्वारा नेटाल के लिए रवाना हुए। चौबीस घंटे के सफ़र में उन्होंने पूरी पुस्तक पढ़ ली। उस पुस्तक ने गाँधीजी को नयी दृष्टि दी। गुजराती में उसका अनुवाद उन्होंने 'सर्वोदय' नाम से किया, जिसका आगे चलकर हिन्दी अनुवाद हुआ। सर्वोदय के सिद्धान्तों को गाँधीजी ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है - 1) सबकी भलाई में ही हमारी भलाई है 2) वकील और नाई दोनों के काम की क़ीमत एक होनी चाहिए और 3) सादा मेहनत-मज़दूरी का, किसान का जीवन ही सच्चा जीवन है। गाँधी जी कहते थे कि सर्वोदय ने मुझे दीये की तरह दिखा दिया कि पहली चीज़ में दूसरी दोनों चीज़ें समायी हुई हैं।

'सर्वोदय' में गाँधीजी ने सत्य को पारसमणि माना है।वे कहते हैं, ''भारत एक दिन स्वर्णभूमि कहलाता था, इसलिए कि भारतवासी स्वर्ण रूप-से थे। भूमि तो वही है, पर आदमी बदल गये हैं, इसलिए यह भूमि उजाड़-सी हो गयी है। इसे पुन सुवर्ण बनानेवाला पारसमणि दो अक्षरों में अन्तर्निहित है और वह है 'सत्य'।''

'मेरे सपनों का भारत' की भूमिका डॉअ राजेन्द्र प्रसाद ने लिखी है। अपनी भूमिका में उन्होंने पाठकों को स्मरण दिलाने की कोशिश की है कि स्वतत्रता तो हमने गाँधीजी के नेतृत्व में प्राप्त कर ली, अब आगे की ज़िम्मेदारियों को निभाना हमारा काम है। वे कहते हैं, ''यह पुस्तक पाठकों के सामने न केवल उन आधारभूत बुनियादी उसूलों को ही रखती है, बल्कि यह भी बताती है कि स्वतत्रता-प्राप्ति के बाद उपयुक्त राजनीतिक और  सामाजिक जीवन की स्थापना करके, संविधान की मदद से तथा अपार मानव-शक्ति की मदद से, जिसे यह विशाल देश बिना किसी भीतरी या बाहरी बन्धनों के अब काम में लगायेगा, हम गाँधीजी के उन उसूलों को कैसे मूर्तरूप दे सकते हैं।''

इस पुस्तक में गाँधीजी ने भारत को भोगभूमि नहीं, कर्मभूमि माना है और स्वयं का जीवन अहिंसा-धर्म के पालन द्वारा भारत की सेवा के लिए समर्पित किया है। वे देशी और विदेशी के फ़र्क से नफ़रत करते हैं और सादा जीवन तथा उच्च चिन्तन पर ज़ोर देते हैं। वे श्रम का महत्त्व समझाते हैं तथा कर्तव्य व अधिकार का तारतम्य सिखाते हैं, साध्य की प्राप्ति के लिए साधन की शुद्धता को महत्त्व देते हैं। वे साप्रदायिक एकता और धार्मिक सहिष्णुता पर बल देते हैं। सर्व-कल्याणकारी नयी जीवन-पद्धति के विकास के लिए वे उपनिषद् के 'तेन त्यत्तेन भुंजीथाः' मंत्र का उद्घोष करते हैं तथा सत्याग्रह, ग्रामोद्योग, नयी तालीम व स्त्रियों के पुनरुत्थान की बात करते हैं।

'महिलाओं से' पुस्तक के माध्यम से गाँधीजी ने महिलाओं का आत्म-सम्मान लौटाने का प्रयास किया है और यह बात साबित की है कि यदि उन्हें अवसर मिले तो वे बख़ूबी अपनी ज़िम्मेदारी उठा सकती हैं। उन्होंने स्वामी विवेकानंद और तमिल कवि सुब्रह्मण्यम भारती के उद्धरण देकर इस बात को रेखांकित किया है कि स्त्रियों का सम्मान करके ही कोई राष्ट्र उन्नति कर सकता है। स्त्रियों को आभूषणों का परित्याग करने की शिक्षा देते हुए उन्होंने कहा है, ''मैं भारत की स्त्रियों को बता देना चाहता हूँ कि शरीर को धातु और पत्थरों से लादने से सजावट नहीं होती, बल्कि हृदय को पवित्र करने और आत्मा का सौन्दर्य बढ़ाने से होती है।''

'विद्यार्थियों को सन्देश' पुस्तक में महात्मा गाँधी ने मैक्समूलर के विचारों का हवाला देकर कहा है कि हमारा धर्म ‘DUTY’ (कर्तव्य) के चार अक्षरों में समाया हुआ है, न कि ‘RIGHT’(अधिकार) के पाँच अक्षरों में। गाँधीजी का विद्यार्थियों से प्रश्न था कि वे उत्तम गुणों को बाहर लानेवाली शिक्षा पा रहे हैं या सरकारी कर्मचारी अथवा व्यापारी दप़्तरों के क्लर्क बननेवाली शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं? वे साक्षरता की अपेक्षा चरित्र-निर्माण पर अधिक बल देते थे। वे स्वदेशी भाषाओं को अपनाने पर ज़ोर देते थे और हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन करना चाहते थे। उनका दृढ़ मत था कि ''अंग्रेज़ी शिक्षा ने हमारी साहित्यिक प्रतिभा का हनन कर दिया है, हमारी बुद्धि को जकड़ दिया है...हम आज़ादी की धूप तो खाना चाहते हैं, लेकिन हमें ग़ुलाम बनानेवाली प्रणाली हमारे राष्ट्र के पुरुषत्व को नष्ट करती जा रही है।''

'पंचरत्न' पुस्तक में महात्मा गाँधी ने मुस्तफ़ा कमाल पाशा के देश-प्रेम का बड़ा सजीव वर्णन किया है, ''मेरे प्यारे देश! मेरा प्यार, मेरा रक्त, मेरा श्वास, मेरी बुद्धि, मेरा वक्तत्व, मेरा विचार और मेरा दिल मेरा सभी कुछ मैं तुझे सौंपता हूँ। तू ही मेरा जीवन है।'' जिनमें स्वदेश-प्रेम की भावना नहीं, उनके प्रति कमाल पाशा के उद्गार हैं, ''जो मनुष्य दूसरे का स्वदेशाभिमान देखकर अपने देश को नहीं चाहता है, उसे हम क्या कहें? पत्थर के समान दिलवाले दूसरों की देश-भक्ति से यदि उत्तेजित नहीं होते हैं तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? जिनमें स्वदेश-प्रेम का जोश नहीं है, वे दया के पात्र हैं।''

'नीतिधर्म अथवा धर्मनीति' में गाँधीजी ने नीति की स्पष्ट व्याख्या की है। उन्होंने समझाया है कि मशीन की तरह कार्य करने और विवेकबुद्धि के आधार पर कार्य करने में अन्तर होता है। नीतिधर्म का पालन करनेवाला कौन है, इस प्रश्न के उत्तर में गाँधीजी का कथन है कि जो मनुष्य स्वयं शुद्ध है, किसी से द्वेष नहीं करता, किसी के द्वारा अनुचित लाभ नहीं उठाता और सदा मन को पवित्र रखकर आचरण करता है, वही मनुष्य धर्मात्मा है, वही सुखी है, वही धनवान है।...जिस दियासलाई में आग न हो, वह दूसरी लकड़ियों को कैसे सुलगा सकती है? जो मनुष्य स्वयं नीति का पालन नहीं करता, वह दूसरों को क्या सिखा सकता है? जो स्वयं डूब रहा है, दूसरे को कैसे बचा सकता है?

महात्मा गाँधी गद्य-लेखक ही नहीं, पद्य-लेखक भी थे। अपनी सुप्रसिद्ध कविता 'सेवक की प्रार्थना' में वे ईश्वर से यही वरदान माँगते हैं -

हे नम्रता के सम्राट

दीन भंगी की हीन कुटिया के निवासी

हमें वरदान दे कि सेवक और मित्र के नाते

जिस जनता की हम सेवा करना चाहते हैं

उससे कभी अलग न पड़ जायें।

हमें त्याग, भक्ति और नम्रता की मूर्ति बना

ताकि देश को हम ज़्यादा समझें

और ज़्यादा चाहें।

महात्मा गाँधी का जीवन ही स्वयं में साहित्य है। उनके जीवन का अनुकरण-अनुसरण करने के साथ-साथ जो उनकी कृतियों का अध्ययन करते हैं, उन्हें अपने जीवन में बहुत कुछ हासिल हो सकता है - शर्त यह है कि पाठक उनके साहित्य का अध्ययन अपने चेहरे से मुखौटे उतारकर करें। जिनके जीवन में कहीं बनावटीपन नहीं था, जो धर्मनिष्ठ ईमानदार राजनीतिज्ञ थे, जो पारदर्शी व्यक्तित्व व चरित्र के धनी थे, जो जनता के सच्चे सेवक थे, जो साहित्यकारों के साहित्यकार थे, उनके साहित्य का अवगाहन मुखौटे उतारकर ही किया जा सकता है। तभी ऋता शुकल के शब्दों में पाठकों द्वारा नयी सदी की आकांक्षा पूरी की जा सकती है -

अनय नहीं, सुख - शांति

मिटे सकल भय क्रांति

मानव हो सर्वोपरि

चाह रही नयी सदी।

स्वर्णिम उत्कर्ष हो

कण - कण विजयिनी हो

गा रही नयी सदी।

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