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हिन्दी साहित्य में गाँधीवाद

के. जी. बालकृष्ण पिल्लै

महात्मा गाँधी ने आत्म-विकास और समाज-विकास को लक्ष्य करके श्रीमद्भगवद् गीता, बाइबिल, क़ुरान इत्यादि धार्मिक ग्रंथों से और पश्चिमी और पूर्वी विचारकों से अच्छे-अच्छे आदर्श ग्रहण करके निजी वैयक्तिक और पारिवारिक जीवन में और दक्षिण अ़फ्रीका तथा भारत के अपने सामाजिक-राजनीतिक जीवन में उनको व्यावहारिक रूप देने के जो प्रयोग किये, उन्हीं के निकष को शायद गाँधीवाद कहा जाता है। इसके मुख्य सैद्धान्तिक आधार हैं सत्य और अहिंसा। अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह भी, जो कि अष्टांग योग के प्रथम चरण यम के अन्य तीन अंग हैं, गाँधीवाद के अन्य आधार हैं। अपने आश्रम के निवासियों के लिए उन्होंने जो एकादश व्रत निर्धारित किये, उनमें कुछ अन्य सिद्धान्त भी जोड़े-यथा-

अहिंसा, सत्यं, अस्तेयं,

ब्रह्मचर्यं, असंग्रहं,

शरीर श्रमं, अस्वाद,

सर्वत्र भय वर्जनं,

सर्वधर्म समानत्वं,

स्वदेशी, स्पर्श भावना।

इन सिद्धान्तों को व्यावहारिक रूप दिये गये तो कुछ मुद्दे उभरकर आये, जिनमें प्रमुख हैं - वर्ग-सहयोग, विकेन्द्राrकरण, द्रस्टीशिप, हृदय-परिवर्तन व सत्याग्रह। रचनात्मक कार्यक्रम इनके स्थूल रूप हैं, जिनके अंग हैं - सांप्रदायिक एकता, अस्पृश्यता-निवारण, मद्यनिषेध, खादी-प्रचार, ग्रामोद्योग, सफ़ाई की शिक्षा, बुनियादी तालीम, हिन्दी-प्रचार, अन्य भारतीय भाषाओं का विकास, स्त्रियों की उन्नति, स्वास्थ्य-शिक्षा, प्रौढ़-शिक्षा, आर्थिक समानता, कृषक-संगठन, श्रमिक-संगठन, विद्यार्थी-संगठन और स्वतंत्रता के लिए तथा स्वराज के लिए निरंतर संघर्ष। अन्याय और शोषण के विरुद्ध निर्भीकता से संघर्ष करते हुए आत्मबलि देना ही शायद गाँधीवाद की मुख्य पहचान है, जिसे सूली का मार्ग भी कहा जाता है।

साहित्य तो समाज का दर्पण कहा जाता है। समाज में जो अच्छाइयाँ और बुराइयाँ दिखती हैं, उनका प्रतिबिंब साहित्य में पड़ना स्वाभाविक ही है। साहित्यकार व्यक्ति- स्तर पर और समाज-स्तर पर जो भिन्न प्रवृत्तियाँ देखता है, उनका सूक्ष्म निरीक्षण करता है, अध्ययन करता है, विश्लेषण करता है और उनको इस ढंग से प्रस्तुत करता है कि पाठक के हृदय में अच्छाई के प्रति, सुन्दर के प्रति आकर्षण हो और बुराई के प्रति, असुंदर के प्रति विकर्षण। महात्मा गाँधी के जीवन में, उनके व्यक्तिगत और समाजगत प्रयोगों में जो कर्म-सौन्दर्य प्रकट हुआ है, विशेषकर असत्य का सत्य से और हिंसा को अहिंसा से जीतने के प्रयोगों में मानवता का जो निखार आया है, उसके प्रभाव से विश्व का कोई भी साहित्य नहीं बच सकता। गाँधीजी यद्यपि विश्व नागरिक थे, यद्यपि उनके जीवन का एक बहुत बड़ा भाग इंग्लैंड और दक्षिण अ़फ्रीका में बीता, तो भी वे मुख्यत भारतीय नेता थे। उनके जीवन का उत्तरार्द्ध मुख्यत भारत को विदेशी शासन से विमुक्त करने के संघर्ष का नेतृत्व करते हुए व्यतीत हुआ था। उस संघर्ष से पूरे भारत की जनता जुड़ गयी थी। अत सारी भाषाओं के साहित्यों में गाँधीवाद का प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था। चूँकि भारत के एक बड़े भू-भाग में बोली जानेवाली भाषा हिन्दी रही, इसलिए हिन्दी पर गाँधीवाद का सर्वाधिक प्रभाव पड़ना भी स्वाभाविक ही था।

हिन्दी साहित्य पर गाँधीवाद का इतना गहरा प्रभाव पड़ा है कि स्वयं इसी विषय पर कई शोध-लेख लिखे गये हैं, कुछ शोध-प्रबंध भी निकले हैं। कितना अच्छा होता, यदि ये सारी सामग्रियाँ इंटरनेट पर उपलब्ध हो जातीं। मेरे हाथ जो दो शोध-ग्रंथ लगे, वे हैं - डॉअ अरुणा चतुर्वेदी द्वारा रचित 'गाँधीवादी विचारधारा और हिन्दी उपन्यास' तथा रेखा शर्मा द्वारा रचित 'गाँधीवादी विचारधारा और हिन्दी कहानी।' हिन्दुस्तानी प्रचार सभा, मुंबई द्वारा संचालित महात्मा गाँधी मेमोरियल रिसर्च सेन्टर, मुंबई की शोध पत्रिका 'हिन्दुस्तान ज़बान' के अक्टूबर-दिसंबर 2000 के अंक में डॉअ सुशीला गुप्ता द्वारा संपादित और हिन्दुस्तानी प्रचार सभा द्वारा प्रकाशित एक और ग्रंथ की समीक्षा श्रीमती कमलेश बख्शी ने लिखी है। ग्रंथ का शीर्षक है-'हिन्दी साहित्य में गाँधीवादी चेतना'। हिन्दी साहित्य के कई इतिहास-ग्रंथों में भी हिन्दी की विविध विधाओं पर गाँधीवाद की जो छाप पड़ी है, उसका विश्लेषण मिलता है।

मेरे सीमित अध्ययन के आधार पर कुछ तो माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, सियाराम शरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', सुभद्रा कुमारी चौहान, सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला', सुमित्रानंदन पंत आदि की कविताओं में तथा प्रेमचन्द, जैनेन्द्र कुमार, विष्णु प्रभाकर आदि के उपन्यासों, कहानियों और नाटकों में गाँधीवाद की सर्वाधिक छाप मिलती है।

माखनलाल चतुर्वेदी की कविता 'पुष्प की अभिलाषा' तो केरल के स्कूली पाठ्यक्रम में स्थान पाती रही है। पुष्प साधारणतया यही चाहेगा कि वह सुरबाला के गहनों में गूँथा जाये, प्रेमी की माला में बिंधकर प्यारी को ललचाये, या देवों के सिर पर चढ़कर इठलाये। यहाँ तो पुष्प भगवान से यही प्रार्थना करता है - 'मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने' की इस अभिलाषा में गाँधीवाद की ही अनुगूँज मिलती है न? माखनलाल चतुर्वेदी ऐसे कवि थे, जिन्हें अपनी राजनीतिक सक्रियता के कारण कई बार कारावास भोगना पड़ा था।

सियाराम शरण गुप्त की ये पंक्तियाँ तो खादी प्रचार का ही काम करती हैं -

'खादी के धागे - धागे में

अपनेपन का अभिमान भरा।'

यह पंक्ति भी उन्हीं की है -

'काम गाँधी ने किया जो

काम आँधी कर न सकती।'

हिन्दी साहित्य के बहुचर्चित छायावाद को कुछ आलोचक गाँधी-युग की ही देन मानते हैं। डॉअ आलोक कुमार रस्तोगी ने अपने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' शीर्षक ग्रंथ के द्वितीय खण्ड में लिखा है -

''महात्मा गाँधी ने विश्व-बंधुत्व, लोक-मंगल की विचारधारा को अपनाकर साम्य भाव को महत्त्व दिया। छायावादी रचनाओं में गाँधी जी के इस साम्य भाव और मानव-कल्याण की भावनाओं को भरपूर स्थान मिला। यदि छायावाद को गाँधीयुग की देन मान लें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।'' डॉअ नगेन्द्र के अनुसार ''गाँधी की अहिंसा उस युग की चेतना की प्रतीक थी, अतएव छायावाद में वैयक्तिक चेतना के आस्तिक अधिमानसिक रूप का ही विकास हुआ। पन्त, महादेवी जैसे सुकुमार भावनाओं के कवियों ने तो उसे आत्मसात कर लिया। प्रसाद और निराला जैसे उद्दाम कवियों ने भी उन मूल्यों को ही स्वीकार किया।''

हिन्दी के उपन्यास-सम्राट माने जानेवाले प्रेमचन्द गाँधी जी से इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी त्याग दी थी और जन-जागरण के कार्य में लग गये थे। उनकी कई कहानियों में गाँधीवादी पात्र जीवित हैं। 'होली का उपहार' शीर्षक कहानी की सुखदा इसका अच्छा उदाहरण है। उसे होली के अवसर पर उपहार देने के लिए अमरकांत एक क़ीमती विदेशी साड़ी खरीदता है। चूंकि विदेशी वस्त्रों की दूकानों पर स्वयंसेवकों द्वारा पिकेटिंग हो रही थी, इसलिए उसे स्वयंसेवकों की नज़र से बचने के लिए दूकान के पिछवाड़े के द्वार से दूकान में घुसना पड़ा था। पर बाहर निकलते ही स्वयंसेवकों ने उसे पकड़ लिया। साड़ी हड़प ली। सुखदा, जो उनका नेतृत्व कर रही थी, उसे वापस दिला देती है। पर सुखदा के व्यक्तित्व का इतना प्रभाव अमरकान्त पर प़ड़ता है कि वह विदेशी साड़ी जला देता है और दूसरे दिन के पिकटिंग में वह भी भाग लेता है और गर्व के साथ जेल जाता है।

प्रेमचन्द के कई उपन्यासों में गाँधीवाद की स्पष्ट झलक मिलती है। विशेषकर 'निर्मला', 'प्रेमाश्रम', 'ग़बन', 'कर्मभूमि' और 'रंगभूमि' में। 'गोदान' में भी गाँधीवादी चेतना मुखर है, यद्यपि बच्चन सिंह ने कहा है कि 'गोदान' में प्रेमचंद गाँधीवाद से मुक्त हैं। 'निर्मला' के एक पात्र को यों प्रस्तुत किया गया है - 'खद्दर के बड़े प्रेमी हैं, पीठ पर खादी लाद कर देहातों में बेचने जाया करते हैं और व्याख्यान देने में भी चतुर हैं।' 'प्रेमाश्रम' में एक पात्र से कहलवाया है - ''इसके लिए हमें विदेशी वस्तुओं पर कर लगाना पड़ेगा। यूरोपवाले दूसरे देशों से कच्चा माल ले जाते हैं, जहाज़ का किराया दे देते हैं, उन्हें मज़दूरों को कड़ी मज़दूरी देनी पड़ती है, उस पर हिस्सेदारों को नफ़ा भी ख़ूब चाहिए। हमारा घरेलू शिल्प इन समस्त बाधाओं से मुक्त रहेगा।''

'ग़बन' में प्रेमचन्द स्वातंत्र्योत्तर भारत के नेताओं, बाबुओं और बुद्धिजीवियों की स्वार्थपरता पर अपनी दूरदर्शिता की दूरबीन से दृष्टिपात करते हुए देवीदीन के मुख से प्रश्न कराते हैं - ''तो सुराज मिलने पर दस-दस पाँच-पाँच हज़ार के अफ़सर नहीं रहेंगे? वकीलों की लूट नहीं रहेगी? पुलिस की लूट बंद हो जाएगी?'' स्वतंत्रता-प्राप्ति पर सुविधाभोगिता की वृत्ति पनपेगी, इसका भी अनुमान करते हुए देवीदीन से पुछवाते हैं - ''साहब, सच बताओ, जब तुम सुराज का नाम लेते हो, उसका कौन-सा रूप तुम्हारी आँखों के सामने आता है? तुम भी बड़ी-बड़ी तलब लोगे? तुम भी अंग्रेज़ की तरह बंगले में रहोगे? पहाड़ों की हवा खाओगे? अंग्रेज़ी ठाठ बनाये घूमोगे? इस सुराज से देश का क्या कल्याण होगा? तुम्हारी और तुम्हारे भाई-बन्दों की ज़िन्दगी भले ठाठ और आराम से गुज़रे, पर देश का कोई भला न होगा।'' 'रंगभूमि' में युवकों का जो समूह-गीत सोफ़िया का ध्यान का आकृष्ट करता है, उसमें गाँधीवाद की ही तो धुन है। जैसे -

शांति समर में कभी भूलकर धैर्य नहीं खोना होगा

वज्र प्रहार भले सिर पर हो, नहीं किन्तु रोना होगा

अरि से बदला लेने का मन - बीज नहीं बोना होगा

देश - दाग को रुधिर वारि से हर्षित हो धोना होगा।

होगी निश्चय जीत धर्म की यही भाव भरना होगा

मातृभूमि के लिए जगत में जीना औ' मरना होगा।

वर्तमान हिन्दी साहित्यकारों का गाँधी-संबंधी दृष्टिकोण विष्णु प्रभाकर की इस उक्ति में स्पष्टत झलकता है - 'गाँधी जी ने दूसरों के लिए जीवन जीने की सीख भी दी थी। मेरे अंतरतम का विश्वास है कि यदि लोग इस पर चल सकें तो बहुत-सी समस्याएँ अपने आप सुलझ जायेंगी। इससे बेहतर मनुष्य और बेहतर नागरिक बनेंगे। फिर गाँधीवाद को, सामाजिक संगठन या शासन की विधि के रूप में, मेरा विचार है, अभी तक नहीं लाया गया। सफलता-असफलता का तो तभी पता चलेगा, जब इसे प्रयोग में लाया जाये। मेरा विश्वास है कि हमारे जैसे विकासशील देश के लिए गाँधीजी का ग्राम-स्वराज्य का तऱीका ही अधिक उपयुक्त होगा। चीन ने उनसे लेकर नहीं, बल्कि अपने अनुभव से इस दिशा में बहुत कुछ किया है। जापान में भी नयी तालीम सफल हुई है, जो गाँधीवादी नयी तालीम से मिलती-जुलती है।

आशा करें, वर्तमान भारतीय समाज को अपनी तमाम विसंगतियों से मुक्ति दिलाने में हिन्दी साहित्यकारों की यह गाँधी-उन्मुखी चेतना अपना दायित्व निभा पाएगी। 

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