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उस रिज़्क़ से मौत अच्छी...

प्रो. सिद्धेश्वर प्रसाद

मैंने गाँधीजी को बड़े क़रीब से देखा है। सन् 1945 में जब उन्होंने सेवाग्राम में 'समग्र ग्राम सेवा विद्यालय' शुरू किया था, वहाँ मैं विद्यार्थी था। सन् 1946 में दंगे शुरू हो गये थे। हम लोगों की पढ़ाई लगभग समाप्त हो गयी थी। गाँधीजी ने विद्यार्थियों से कहा कि तुम लोग अपने-अपने क्षेत्र में जाओ और दंगा रोकने का काम करो। मैं भी इस काम के लिए चला गया। गाँधीजी ने जो रास्ता बताया, उसे हम लोग ठीक से समझ नहीं पाये कि वह व्यावहारिक है या नहीं। मैने नौजवानों का एक संगठन बनाया। तब 'ब्लाक' नहीं बने थे, थाना होता था। हमारा थाना बहुत बड़ा था, पर कहीं किसी का बाल भी बाँका नहीं हुआ - न हिन्दू का, न मुसलमान का, कहीं दंगा हुआ ही नहीं। गाँधीजी, जवाहरलालजी पर इस बात का इतना प्रभाव पड़ा कि सब हमारे यहाँ आये। जो लोग कहते हैं कि गाँधीजी का रास्ता व्यावहारिक नहीं है, उनकी बात को मैं उतना ही महत्त्व देता हूँ, जैसे कोई लड़का घड़ी में एलार्म लगाके सो जाय कि उसे चार बजे उठना है और अलार्म बजने पर उसे दबा दे। आज यही स्थिति है। हम अपनी आत्मा की आवाज़ को दबा रहे हैं।

हमने गाँधीजी के बताये रास्ते पर चलने की कोशिश ही कब की? वर्तमान विसंगतियाँ पैदा ही क्यों हुई? हम अपने को हिन्दू कहते हैं और हिन्दू धर्म की बुनियादी बातों पर अमल नहीं करते। हम अपने को मुसलमान कहते हैं और क़ुरानशरीफ़ में जो बात लिखी है, उस पर अमल नहीं करते। अपने को पारसी कहते हैं, या और धर्मो की केवल बात करते हैं; तो सब जगह यही स्थिति है। आज सारे संसार में प्रचार पर इतना पैसा ख़र्च किया जा रहा है कि दिन को रात और रात को दिन साबित किया जा रहा है। यह क्या बात है!

अमेरिका में 11 सितम्बर 2001 को वर्ल्ड सेण्टर पर हमला हुआ। ठीक एक महीना पहले 11 अगस्त को मैं अमेरिका पहुँचा था। मैं बड़े-बड़े लोगों के व्याख्यान सुनता रहा और अपनी बात कहता, बात होती रही - बर्कले युनिवर्सिटी, स्टॅनफोर्ड युनिवर्सिटी, इन्स्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी, केलिफ़ोर्निया युनिवर्सिटी के सारे लोगों से जब मैं जीवन-मूल्यों की बात कहता था तो वे नाराज़ हो जाते थे। वहाँ का तऱीका यह है कि लेक्चर देने के बाद वे लोग सवाल पूछते हैं। एक सवाल के जवाब में मैंने मज़ाक में कह दिया कि ‘Americans are most illiterate in the World.’ ‘How dare you say so?’ ‘Very simple. Always you equate, ten equal to hundred and hundred equal to ten.’ आप मुंबई के चौराहे पर सब्ज़ी ख़रीदिए तो अनपढ़ सब्ज़ीवाले के पास कैल्कुलेटर नहीं होता, लेकिन उसका हिसाब पक्का होता है। उस देश को आप कहते हैं कि They are not literate. Literacy is not education. दुनिया में यह भ्रम पैदा हो गया है कि साक्षरता ही शिक्षा है। इस भ्रम का दुष्परिणाम आज हमारे सामने है।

हमारे देश की जो परंपरा रही है; चाहे जिस धर्म की हो, हिंदू की हो, मुसलमान की हो, ईसाई की हो, सिक्ख की हो, पारसी की हो, कितने प्रवचन होते थे, कितनी बातें जनता को सुनायी जाती थीं। आज तो वह बात ख़तम हो गयी है न! हम सिनेमा का इतना प्रचार करते हैं, मारपीट और गुंडागर्दी दिखायी जाती है, उसका बच्चों पर कितना बुरा असर पड़ता है! वे टीअवीअ खोलकर बैठे रहते हैं। तो गाँधीजी अप्रासंगिक नहीं हो गये, गाँधीजी ने हमारी बीमारी का जो इलाज बताया, वह दवा हमने ली ही नहीं। वह दवा थी मन को बदलना। हम बीमार हैं, सारी दुनिया बीमार है, हम दवा खायें तो! कोई ह़कीम के पास गया, तो ह़कीम ने कहा, आपको ज़ुकाम है, सर्दी है, खाँसी है, आप दही मत  खाइए। घर पर आकर उसने बीबी से कहा, ह़कीम तो पागल है, दही के बिना कोई खाना होता है! यही हमारी मुसीबत है, दुनिया में जो बड़े लोग हैं, वे बराबर यह बात कहते आये हैं, हम उनकी बात नहीं मानते। डाँ. इक़बाल का एक शेर है, आपने सुना होगा, कई बार सुना होगा -

ऐ तायरे-लाहूती, उस रिज़्क़ से मौत अच्छी

जिस रिज़्क़ से आती हो परवाज़ में कोताही।

अर्थात् ऐ आकाश में उड़नेवाले पक्षी! उस दाने से मौत अच्छी है, जिससे तुम्हारे पाँव बँध जाते हैं।

पर यहाँ जो भूमण्डलीकरण हो रहा है, उसमें पैसा ही सब कुछ है। पैसा ही ईश्वर है, पैसा ही ख़ुदा है। इन्सान के लिए तो कहीं जगह ही नहीं है। आपके मुल्क ने आपको डॉक्टर बनाने में दस लाख रुपये ख़र्च किये और आप भारत की सेवा करने के बदले दूसरे देश में चले गये। आपको यहाँ पच्चीस हज़ार रुपये मिलते थे, लेकिन पच्चीस हज़ार रुपया वेतन पानेवाले भारत में कितने लोग हैं। और आप चले गये, जहाँ आपको पच्चीस हज़ार डॉलर मिलते हैं। इक़बाल ने इसका अनुभव किया। लाहौर में जब उनकी हालत ख़राब हो गयी थी तो भोपाल के नवाब ने उन्हें बुलाया। वे वहाँ गये तो संस्कृत के एक पंडित से संस्कृत सीखने और पढ़ने लगे। उन्होंने संस्कृत की अच्छी कविताओं का, उपनिषद् के कुछ अच्छे मंत्रों का फ़ारसी और उर्दू में अनुवाद किया। कठोपनिषद् में है - 'न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो'। मनुष्य धन से प्रसन्न नहीं होता। इक़बाल ने इसका शब्दश: अनुवाद नहीं किया। ऊपर के शेर में इसका भावानुवाद किया। भर्तृहरि आज से क़रीब दो हज़ार साल पहले हुए थे, उनकी पंक्तियों का भी भावानुवाद डॉअ इक़बाल ने किया था। अब बीसवीं शताब्दी में कोई कुछ लिखेगा तो उसी के मुताब़िक ही तो लिखेगा। इसीलिए उन्होंने लिख दिया - ऐ तायरे-लाहूती, उस रिज़्क़ से मौत अच्छी...आज हम वही कर रहे हैं और गाँधीजी को दोष देते हैं। प्रधानमंत्री भाषण दे रहे हैं, मुख्यमंत्री भाषण दे रहे हैं कि यह करो, वह करो! हमारी विदेशी मुद्रा और बढ़ेगी। यहाँ लोग भूखों मर रहे हैं, बीमार हैं, सड़कें अच्छी नहीं हैं, दवा लोगों को नहीं मिलती है। वे कहते हैं कि हमारी विदेशी मुद्रा बढ़ेगी, हमारी विदेशी मुद्रा हर हप़्ते इतनी बढ़ी - यह समस्या का समाधान नहीं। समस्या का समाधान ढूँढ़ना चाहिए। आज हम वास्तविक समस्याओं से भागते फिर रहे हैं। गन्दगी को ढँककर समझते हैं कि गन्दगी है ही नहीं। ऐसी है हमारी आधुनिकता!

भगवान की अकल ज़्यादा है या कम है? भगवान को अगर बनाना होता हिंदू, मुसलमान, ईसाई, ब्राह्मण, क्षत्रिय तो उन्हें कोई मेहनत लगती? उनके यहाँ स्याही की कमी है? किस चीज़ की कमी है वहाँ? वे वहीं से बनाकर भेजते - हिदू का ख़ून 'ए' ग्रुप का होता, आदि आदि। लोगों के नाम अलग-अलग होते हैं, लेकिन उनमें कुछ तो कॉमन होता है, जिसकी वजह से हम उन्हें आदमी कहते हैं। इनसान कहते हैं। हमने इस बात को भुला दिया। विज्ञान के साथ मुश्किल यह है कि वह ‘Common Denominator पर जाता है, सत्ता में सहायक होता है। विज्ञान की हम उपासना करते हैं, जिसको हम दर्शनशास्त्र कहते हैं, साहित्यशास्त्र कहते हैं, जिसको हम कहते हैं मज़हब, जिसको हम कहते हैं धर्म, जिसको हम कहते हैं ईमान, वह उस चीज़ को नहीं देखता। इन सबसे समाज मे विसंगति बढ़ती जा रही है, कोलाहल बढ़ता जा रहा है।

अंग्रेज़ी की 'टाइम' पत्रिका ने सर्वेक्षण किया कि शताब्दी-पुरुष कौन है, सहस्राब्दी पुरुष कौन है? न उसमें कहीं हिटलर हैं, न कहीं चर्चिल हैं, न कहीं स्टालिन हैं। उस सर्वेक्षण के मुताब़िक शताब्दी-पुरुष और सहस्राब्दी-पुरुष महात्मा गाँधी हैं। यह हैरत की बात नहीं है? दुनिया की किसी संस्था ने गाँधीजी के लिए कोई लॉबी की थी क्या? दस-बीस लाख डॉलर किसी ने ख़र्च किये गाँधीजी के लिए क्या? नहीं। क्यों? इसलिए कि रह-रहकर लोगों को लग रहा है कि हमारे लिए और कोई रास्ता नहीं है। आदमी की कठिनाई क्या है? कठिनाई आदमी की यह है कि उसका निश्चय दृढ़ नहीं है। गाँधीजी की सबसे बड़ी ख़ूबी यही है कि वे कोई असाधारण मेधावी छात्र नहीं थे। जैसे आइन्स्टाइन स्कूल में एक बार अनुत्तीर्ण हो गये। वे कोई मेधावी छात्र नहीं थे, लेकिन उनमें लगन की भावना थी। इसीलिए  वे दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिक हो गये। दुनिया का उन्होंने इतिहास ही बदल दिया। अपनी निष्ठा और आत्मविश्वास के बल पर गाँधीजी ने विश्व-व्यापी क्रांति का ऐसा मार्ग प्रशस्त किया, जो अद्भुत है।

आप लोगों को यह सुनकर हैरत होगी कि आइन्स्टाइन जब जर्मनी से अमेरिका पहुँचे तो उनका इतना भव्य स्वागत हुआ कि किसी भी महापुरुष का ऐसा स्वागत नहीं हुआ था। यह हैरत की बात नहीं है? यह क्यों हुआ? गाँधीजी हरिजन कॉलोनी में रहते थे तो अमेरिका का राजदूत हो, इंग्लैंड का राजदूत या वाईसराय हो, उनसे मिलने वहीं जाता था। तो हमारी मुश्किल यह है कि जो अहमियत रखनेवाली चीज़ें नहीं हैं, हम अपनी कमज़ोरी की वजह से उन्हीं को अहमियत देते हैं और उससे मुसीबत में फँस जाते हैं।

हम जिस मज़हब में पैदा हो गये, हमारा कोई बस है क्या? ख़ुदा ने हमारा जैसा चेहरा बना दिया, उसको हम बदल सकते हैं क्या? लेकिन गाँधीजी से हमने कुछ सीखा नहीं। गाँधीजी की सबसे बड़ी बात थी कि उनके पहले जो बात धर्म की मानी जाती थी, उसको उन्होंने सारे समाज को, सारी मानवता के लिए प्रयोग करके दिखा दिया। सन् 1893 में जब वे दक्षिण अ़फ्रीका गये तो किसी ने सोचा था कि ब्रिटिश साम्राज्य ख़त्म हो जायेगा? इतना बड़ा साम्राज्य कभी दुनिया में हुआ ही नहीं, जिसके राज्य में कभी सूरज नहीं डूबता था, जिसके पास इतने हथियार थे। उसकी राजनीति ऐसी थी। सब ख़त्म हो गया। फिर भी आज हमारा विश्वास गाँधीजी के सत्याग्रह में नहीं, बल्कि हिंसा के हथियारों में है। हमारे मन की कमज़ोरी गयी नहीं, हममें आत्मविश्वास आया नहीं।

मैं सन् 1964 से सारी दुनिया में घूम रहा हूँ। सारी दुनिया को हिन्दुस्तान से नाराज़गी इस बात की है कि गाँधीजी ने भारत से गोरों का सामाज्य ख़त्म कर दिया, जो किसी ने किया नहीं था। हिंदू हो, मुसलमान हो, सिक्ख हो, ईसाई हो, बौद्ध हो, काला हो, गोरा हो, अरबी बोलता हो, फ़ारसी बोलता हो, हिन्दी बोलता हो, उर्दू बोलता हो, तमिल बोलता हो, तेलुगु बोलता हो, कन्नड़ बोलता हो, मराठी बोलता हो, औरत हो, मर्द हो, इसका कोई सवाल नहीं है। सवाल है इनसानियत का! इनसान के नाते उन्होंने सबको गले लगाया, यह छोटी बात नहीं। किसी राजनीतिज्ञ ने ऐसा नहीं किया। फिर भी हमारी आस्था महात्मा गाँधी में नहीं, विनाशकारी हथियारों में है।

कुछ लोग कहते हैं कि गाँधीजी आज प्रासंगिक नहीं हैं। मैंने युरोप में, फ्रांस में, जापान में हर जगह कहा कि यदि कोई स्पंदनशील लोकतंत्र कहीं है तो वह भारत में है। यह गाँधीजी के कारण है। और कहीं है सच्चा लोकतंत्र? और कहीं नहीं है। क्यों नहीं है? आप यह सोचिए। जिस रोज़ यह तय हुआ कि डॉअ अब्दुल कलाम इस देश के राष्ट्रपति होंगे तो कितने लोगों ने मुझको अमेरिका से, लंदन से, कहाँ-कहाँ से फ़ोन नहीं किया कि क्या यह सच है? डॉ. कलाम राष्ट्रपति हो रहे हैं? एक वैज्ञानिक को राष्ट्रपति बनाने की हिम्मत अमेरिका में नहीं है, इंग्लैंड में नहीं है, फ्रांस में नहीं है। नेशनल डेमोक्रेटिक फ्ऱंट की जो सरकार है, उसने अच्छा काम किया तो उसे क़बूल करना चाहिए। डॉअ कलाम जो कहते हैं, वह करते हैं। मेरी पत्नी ने मुझसे कहा कि राष्ट्रपति बन जाने के बाद वे अपने रास्ते पर चलेंगे, आज आप देख लीजिए। गुजरात गये, सरकार नहीं चाहती थी; मध्यप्रदेश गये, सरकार नहीं चाहती थी; त्रिपुरा गये, सरकार नहीं चाहती थी, मणिपुर गये, सरकार नहीं चाहती थी। राष्ट्रपति राष्ट्रपति होता है, राज्यपाल राज्यपाल होता है। उसके जो अधिकार हैं, उस पर बंधन कम होता है।

राज्यपाल की हैसियत से मुझे जो करना था, मैंने किया। जिसको नहीं करना है, न करे। मेरे शपथग्रहण समारोह के बाद मुझसे अख़बारवाले ने पूछा, टीअवीअ वाले ने पूछा, रेडियोवाले ने मेरी भूमिका के बारे में पूछा तो मैंने यही कहा, “I have not come here to oust the Chief Minister, nor I have come here to install anybody as Chief Minister, nor I have come here to allow any political party to run office from theRaj Bhawan. I will not allow.” मैंने वह नहीं किया। वहाँ एक लाख शरणार्थी बंगलादेश से आये हुए थे। बंगलादेश के राजदूत मुझसे मिलने के लिए आये। उन्होंने कहा कि आपका कोई संदेश है? मैंने कहा, ''हाँ, आप अपने प्रधानमंत्री से कहिए, यहाँ जो एक लाख शरणार्थी हैं, उनको अपने देश में ले जा सकते हैं।'' मैंने उनको समझाया कि भारत देश में उनका क्या भविष्य है? वे गये। आप प्रेम से किसी से बात कीजिए न! लेकिन आप ऐसा नहीं करते, आप ऍटम बम का डर दिखाते हैं। अमेरिका के राजदूत जब मुझसे मिलने के लिए आते थे तो मैं उनसे बराबर कहता था, ''रूस का तो आपने विघटन कर दिया न? चीन को कमज़ोर बनाकर रखा दिया न? भारत को कमज़ोर बना दिया न?'' ओसामा बिन लादेन के पास न कोई ऍटम बम है, न कोई रॉकेट है। अगर अमेरिकन नौकरशाही भ्रष्ट नहीं है तो जिसने वहाँ हमला किया, उसे सारी बातें कैसे मालूम हुईं? तो आप अपनी कमज़ोरी नहीं देखते। अमेरिका में आज तक कोई काला आदमी राष्ट्रपति क्यों नहीं हुआ? अमेरिका में कोई महिला राष्ट्रपति क्यों नहीं हुई? इंग्लैंड में वहाँ का जो राजा होता है, जो रानी होती है, वह राज्य का प्रमुख भी होता है और चर्च का भी प्रमुख होता है। क्या वह धर्मनिरपेक्ष देश है? कैसे धर्मनिरपेक्ष देश है वह? अगर वह धर्मनिरपेक्ष है, तो आयरलैंड में प्रोटेस्टेंट या कैथोलिक का युद्ध कैसे चलता आ रहा है? धर्मयुद्ध तो युरोप में हुआ न! न जाने कितने वर्षों तक यह होता रहा। और आप कहते हैं कि भारत में मज़हबी दंगे होते ही रहते हैं। लोग सच बोलना तो सीखें। तभी गाँधीजी को समझेंगे।

यह सब हममें हीनता की भावना भरने के लिए किया जाता है। गाँधीजी में आत्मबल इतना था, इतना  आत्मविश्वास था कि उन्होंने इस प्रचार को नकार दिया। मुझे याद आता है, सेवाग्राम में वर्धा से कोई आदमी गाँधीजी से मिलने आया था। उसने कहा, 'अमुक आदमी मुझको बहुत गालियाँ देता है। मैं क्या करूँ, बहुत परेशान हूँ।' तो गाँधीजी ने कहा, 'तुम गालियाँ लेते क्यों हो, वह जब गाली देता है, तो तुम सुनते रहो, मुस्कराते रहो। उसके बाद उसे अच्छी मिठाइयाँ खिलाओ। उसके पास गालियाँ लौट जायेंगी।' उसने कहा, 'वह कैसे?' उन्होंने कहा, 'ऊपर थूककर देखो।' थूक उसके ही मुँह पर पलटकर गिरा। तो गाँधीजी इतने व्यावहारिक थे। आप जब गालियाँ नहीं लेंगे तो वह क्या करेगा? वह तो इसीलिए न ऐसा करता है कि हम गुस्सा हों। जब गुस्सा किया तो हम इनसानियत से गिर गये। तो गाँधीजी ने बग़ैर किसी भेदभाव के पूरे मानव-समाज को इनसान बनाना चाहा। जिस देश में वे पैदा हुए, उन्होंने उस भारत को ऊपर उठाने के लिए कोई भेदभाव नहीं किया। हम उस रास्ते पर चलें तो न! सबको सच्चाई के रास्ते पर चलने से कौन रोकता है?

गाँधीजी भौतिक विकास या परिवर्तन के विरुद्ध नहीं थे। लेकिन फ़र्क संतों ने बराबर समझाया है। गौतम बुद्ध को आप जानते हैं। उनके शिष्य आनंद एक बार उनके पास चार-पाँच आदमियों को ले गये कि ये तो हमारा उपदेश सुनते ही नहीं। उन्होंने आदेश दिया 'इन आदमियों को नहलाओ।' उन्हें नहलाया गया, साफ़-सुथरे कपड़े पहनाये गये, अच्छा भोजन कराया गया। उन चार-पाँच आदमियों ने हाथ जोड़कर कहा - 'तथागत! अब मैं आपका उपदेश सुनना चाहता हूँ।' यह दृष्टिकोण है न! हमने सब चीज़ों को एकदम यांत्रिक बना दिया है। सन् 1964 में जब मैं इंग्लैंड में था तो वहाँ कई स्कूल देखने के लिए गया, युनिवर्सिटी भी देखने के लिए गया। उस वक़्त टी.वी. शुरू-शुरू में चला था। जो टीअवीअ के समर्थक थे, वे कहते थे कि इससे शिक्षा का स्तर सुधरेगा। तो मैं कहता था, बच्चे जब कोई सवाल पूछेंगे तो उसका जवाब टीअवीअ देगा क्या? मानवीय सम्पर्क अगर आप मिटा देंगे तो इनसानियत ख़त्म हो जायेगी। इस बात को गाँधीजी ने जितना समझा, दुनिया के किसी विद्वान और किसी विशेषज्ञ ने नहीं समझा। हम भारतीयों के लिए यही सत्य है कि हमें गाँधीजी के रास्ते पर चलना है। यही हमारे विकास का रास्ता है, सारे संसार के विकास का सच्चा रास्ता है।

गाँधीजी की वजह से ही आज भारत का लोकतंत्र सुरक्षित है। सन् 1947 की 'हरिजन' पत्रिका आप लोग पढ़ेंगे तो देखेंगे कि मद्रास में तब अनाज की बहुत कमी थी। सन् 1942-43 में बंगाल में अकाल पड़ा तो उसमें 50-52 लाख आदमी मर गये। अंग्रेज़ी राज्य था न? क्यों ऐसा हुआ! अब उसी देश में आज इतना अनाज है कि रखने की जगह नहीं। हमारे गाँवों की सड़कें ख़राब हैं, बिजली नहीं, स्कूल की हालत ख़राब है तो भी गाँववालों में अपने देश के प्रति प्रेम है। अनपढ़ लोगों में इतना देश-प्रेम है तो हिन्दुस्तान के उन पढ़े-लिखे लोगों में, जो मुम्बई व दिल्ली में रहते हैं, देश-प्रेम क्यों नहीं है? हमको सोचना चाहिए। अनपढ़ देहाती किसानों ने अनाज, फल, स़ब्जी, दूध से भारत का भंडार भर दिया, पढ़े-लिखे भी ऐसा क्यों नहीं करते?

गाँधीजी ने जो रास्ता बताया, उसका एक उदाहरण मैं आपको दे रहा हूँ। सन् 1914-15 में देश के सबसे धनी आदमी टाटा थे और दूसरे थे घनश्यामदास बिड़ला। घनश्यामदास बिड़ला कलकत्ता में गाँधीजी से मिलने के लिए गये। उन्होंने कहा, 'घनश्यामदास! तुम महीने में अपने ऊपर कितना ख़र्च करते हो?' उन्होंने कहा, 'बापूजी! 1500-1600 रुपये महीना।' उन्होंने कहा, 'दूसरी बार मिलने के लिए कब आऊँ?' बापू ने कहा, 'तब मिलने के लिए आना, जब तुम्हारा ख़र्च 150-200 रुपये महीना हो।' एक आदमी, जो उनकी बात सुन रहा था, बोला 'बापू! आपने 150-200 रुपये क्यों कहा? 15 रुपये क्यों नहीं कहा?' बापू ने जवाब दिया, 'मैं बिड़ला को ज़िंदा रखना चाहता हूँ। काम करने लायक रखना चाहता हूँ। अगर 1500 रुपये से 15 रुपये तक आ जाये तो वह ज़िंदा रह पायेगा क्या?' घनश्यामदास बिड़ला ने अपने संस्मरण में बापू का जो वर्णन किया है, वह पढ़ने-लायक है ।

गाँधीजी के आंदोलन में राजा-महाराजा तो नहीं शामिल हुए न! साधारण जनता शामिल हुई। उन्होंने तलवार नहीं उठायी। और यह देश आज़ाद हो गया। तभी यह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। गाँधी का असर नहीं होता तो यह लोकतंत्र नहीं रहता। इतना होने पर भी लोगों को अपने ऊपर क्यों शर्म मालूम पड़ती है? आपने देखा होगा, देश के प्रधान मंत्री जब बोलते हैं, तो उनके पीछे गाँधी की तस्वीर रहती है,  गोलवलकर की नहीं। क्यो वे गाँधी की तस्वीर रखते हैं? इसलिए कि अगर हम  कुछ ग़लती करते हैं, तो हमारी आत्मा हमें कचोटती है कि तुम उस आदमी का विस्मरण कर रहे हो, जिसने अगर चाहा होता तो बड़े-से-बड़ा पद ले सकता था। जब 'युनाइटेड नेशन्स' की स्थापना हुई थी तो संसार के नेता चाहते थे कि गाँधीजी वहाँ जाकर रहें और 'युनाइटेड नेशन्स' के सेक्रेटरी जनरल सबसे पहले वे बनें। क्यों? सोचिए, ऐसी भावना तब थी, पर आज क्या है? चलते-चलते हम कहाँ ले आये गाँधीजी के उस भारत को!

जिन्ना साहब को जब कैंसर हो गया और उन्हें पता चल गया कि वे बचनेवाले नहीं हैं तो उन्होंने लिय़ाकत अली ख़ाँ से कहा, 'तुम जवाहरलाल के यहाँ जाओ, महात्मा गाँधी से मुल़ाकात का कार्यक्रम बनना चाहिए, मैं उनसे अपनी ग़लती के लिए माफ़ी माँगूँगा। मैं इस लायक नहीं हूँ कि जाकर उनके सामने खड़ा होऊँ। मुल्क एक साथ मिलकर चले'। जिन्ना साहब बचे नहीं। लिय़ाकत अली ख़ाँ को मार दिया गया। दुनिया की राजनीति ही ऐसी है कि भारत और पाकिस्तान का जो भी नेता हिंदू-मुसलमान के बीच भाईचारा बनाना चाहेगा, उसकी हत्या करवा दी जायेगी। देख लीजिए, जवाहरलाल बच गये, ब़ाकी लोगों की क्या हालत हुई। लाल बहादुर शास्त्री ताशकंद गये थे और वहीं रह गये थे। इंदिरा गाँधी की हत्या हो गयी, राजीव गाँधी की हत्या हो गयी। क्यों ऐसा होता है? जिन्होंने कुछ किया नहीं, वे आराम से आइसक्रीम खाते हैं, उन पर कोई ख़तरा नहीं  आता। उसी तरह से पाकिस्तान में लिय़ाकत अली ख़ाँ से लेकर जनरल मुशर्रफ़ से पहले तक जितने लोग हुए, या तो देश के बाहर उनको रहना पड़ रहा है - बेनज़ीर भुट्टो हों या नवाज़ शरीफ़ - या उनकी गर्दन काट दी गयी है।

इऱाक से अमेरिका का क्या झगड़ा है? किस बात का झगड़ा है? यह लड़ाई इसको-उसको या आतंकवाद का समाप्त करने के लिए नहीं की जा रही है। मध्य एशिया का तेल चाहिए, इऱाक का तेल चाहिए। दुनिया की सारी खनिज संपदा हमारे हाथ में रहे, मिलकियत हमारे हाथ में रहे, हम उसके मालिक रहें। इसीलिए बराबर मैं यह कहता हूँ कि यह भूमण्डलीकरण नहीं है, जिसे हम विश्व-बंधुत्व कहते हैं, वह नहीं है। यह बाज़ारवाद है। उसमें धनी देश और धनी होंगे, धनी देशों में जो धनी हैं, वे और धनी होंगे। अमेरिका में धनी लोग और धनी हो गये हैं। ग़रीब और ग़रीब हो गये हैं। किसान जो अनाज पैदा करता है, उसकी क़ीमत एक चौथाई से भी कम हो गयी है और अमीर देश जो सामान बनाते हैं, उनकी क़ीमत चार गुना से ज़्यादा हो गयी है। यह जो असंतुलित अर्थव्यवस्था है, यह टिक नहीं सकती। दुनिया में यह जो संकट आया है, वही है वर्तमान विसंगतियाँ - जिस व्यवस्था में हम चल रहे हैं, उस व्यवस्था में विनाश के अलावा और कुछ है ही नहीं। अमेरिका में जो हमला हुआ, उसकी वजह से दस लाख आदमी बेरोज़गार हो गये। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ (जैसे एनरॉन) असफल हो गयीं। दुनिया की सबसे बड़ी कंपनी 'आर्थर एंडरसन चार्टर्ड एकाउंटिंग' असफल हो गयी। कितनी कंपनियों के नाम बताऊँ। युनाइटेड एअरलाइन्स का यही हाल है। यहाँ भारत में यू.टी.आई. का दिवाला पिट गया। न जाने कितने कारख़ाने वहाँ - यहाँ बंद हो गये! यह दु:ख की बात है। इसे हमें समझना चाहिए।

इस विसंगति को हम दूर कर सकते हैं। टेक्नॉलॉजी से नहीं, अपने दृष्टिकोण को बदलकर। तो बदलने का क्या? गाँधीजी का दृष्टिकोण था कि इनसान को इनसान समझो। उसे ऊपर उठाओ, उसे गले लगाओ। हम जैसे-जैसे ज़्यादा धनी होते जाते हैं, जैसे-जैसे पढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे हमारी ज़ाहिलियत बढ़ती जाती है, हमारा कुसंस्कार बढ़ता जाता है। हमारे गाँव में हमारे घर के दोनों तरफ एक तालाब था। दूसरी तरफ़ मुसलमान रहते थे। कभी यह सवाल ही नहीं पैदा होता था कि एक दूसरे के यहाँ खाना खाने से हमारा धर्म भ्रष्ट हो जायेगा। साठ वर्ष पहले यह सवाल नहीं पैदा होता था। आज यह सवाल पैदा हो गया है, वह बड़ा गंभीर है। यह दीवार गाँधीजी की मानवतावादी भावना से गिरायी जा सकती है। सरकार का स्वरूप जितना भी बदलेंगे, आर्थिक नीतियों का स्वरूप जितना भी बदलेंगे, उससे कुछ नहीं होगा। हमें मनुष्य के दिमाग़ का स्ट्रक्चर बदलना पड़ेगा। गाँधीजी जैसा वैज्ञानिक चिंतक संसार में पैदा नहीं हुआ। उन्होंने अपनी आत्मकथा का नाम क्या रखा? - 'सत्य के प्रयोग'। ऐसा कोई आदमी अपनी आत्मकथा का नाम रखता है? प्रयोग किया उन्होंने। सारी चीज़ें उन्होंने हमारे सामने रख दीं कि तुम भी प्रयोग करो। और नतीज़ा देखो कि सही निकलता है कि नहीं। आप किसी विज्ञान की प्रयोगशाला में जाइए, केमिस्ट्री की प्रयोगशाला में जाइए। बताया जाता है कि यह मिलाओ, वह मिलाओ। वह तो प्रयोग करके देखने की चीज़ है।

दुनिया में ऍटम बम अमेरिका ने बनाया और अमेरिका ने जापान पर गिराया। उसके बाद भी वे कहेंगे कि संसार का सबसे ख़तरनाक हिस्सा भारत और पाकिस्तान है। अजीब बात है। मैने न जाने कितने लोगों से कहा, 'नागासाकी पर आपने बम गिराया। आतंकवादियों को आप शह दे रहे हैं।' क्योंकि उनका आर्थिक हित इसमें है, राजनीतिक हित इसमें है। सारी राजनीति पैसे के लिए है। हर धर्म में, हर मज़हब में, धन को भगवान के रूप में पूजने को मनुष्य का पतन बताया गया। और इस पतन के रास्ते को छोड़कर अगर हम सही रास्ते पर चलना चाहेंगे तो गाँधीजी के रास्ते को छोड़कर और कोई रास्ता नहीं। दुनिया को विनाश से बचाने के लिए और कोई रास्ता नहीं है, कोई मुसलमान का रास्ता नहीं है, न वह ब्राह्मण का रास्ता है, न हरिजन का रास्ता है। वह इनसान का रास्ता है। इनसानियत के रास्ते पर हम चलें। हम इनसानियत के रास्ते पर चलेंगे तो आगे का रास्ता हमको और साफ़ दिखायी देगा और प्रेरक दिखायी देगा। ज़िन्दगी में ज़्यादा अमन-चैन आयेगा, बहार आयेगी। हम ज़्यादा सुखी जीवन व्यतीत  कर सकेंगे। सन् 1971-72 में जब मैं उद्योग मंत्रालय में था, अतिथि कहते थे, चाय में चीनी नहीं लेंगे, डॉक्टर ने मना किया है। तो मैं मज़ाक करता था कि एक अरब रुपया जो आपका बैंक में जमा है, उसका क्या करेंगे आप? न आप कुछ खा सकते हैं, न पी सकते हैं। जमा करते जा रहे हैं, यह भी एक बीमारी है। उसी तरह से दूसरी बीमारी यह है कि हम दूसरों को सुखी नहीं देखना चाहते हैं। दूसरा जब सुखी है तो आपको क्यों कष्ट होता है? अमेरिका भले ही आसमान के ऊपर चला जाये, लेकिन भारत अगर ऊपर जाता है तो आपको क्यों कष्ट होता है? हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी अगर मिलकर रहते हैं दो भाई की तरह तो आपको क्यों कष्ट होता है? आपको प्रसन्न होना चाहिए न? गाँधीजी का कहना है कि तुम अनुभव करो। जो मैं कहता हूँ, वह यदि सही है तो उस रास्ते पर चलो और उस रास्ते पर जब तुम चलना शुरू कर दोगे तो तुमको रास्ता ख़ुद मिलेगा। थोड़ा भी अगर आदमी धर्म पर आचरण करता है, तो बड़े-बड़े भय से मुक्त हो जाता है। यही गाँधीजी का रास्ता है। इससे सरल, इससे सीधा, कोई दूसरा रास्ता नहीं हो सकता। हमारे आधुनिक जीवन में आधुनिकता के नाम पर, धन की पूजा करने के नाम पर, जो विसंगति आ गयी है, उस विसंगति को दूर करने का और कोई रास्ता नहीं है। अंग्ऱजी में एक कहावत है, अगर मुहम्मद का उपदेश सुनने के लिए पहाड़ नहीं आयेगा तो वे पहाड़ के पास जायेंगे। तो गॉधीजी जा रहे हैं सारी  दुनिया में अपनी बात सुनाने के लिए। 

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