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गांधी-इरविन समझौता

भारतीय राष्ट्रवादियों पर अब तक हुआ यह सबसे निर्दयतापूर्ण अत्याचार वाइसराय लार्ड इरविन के आदेशानुसार हो रहा था, लेकिन उन्हें यह काम पसन्द नहीं था। अंग्रेज अधिकारी और व्यापारी-वर्ग दमन-चक्र और भी कठोरता से चलाना चाहते थे। लेकिन प्रधानमंत्री रैमजे मैकडोनाल्ड और भारत सचिव वैन शान्ति स्थापित करना चाहते थे, बशर्ते कि मजदूर सरकार की स्थिति को कमजोर बनाये बिना ऐसा हो सके। वे गोलमेज-सम्मेलन सफल बनाने को उत्सुक थे, लेकिन उन्हें यह भी पता था कि गांधीजी और कांग्रेस प्रतिनिधियों की उपस्थिति के बिना इस सम्मेलन का कुछ खास असर नहीं होगा। रैमजे मैकडोनाल्ड ने जनवरी 1931 में गोलमेज-सम्मेलन के अन्तिम अधिवेशन में, अपने विदाईगभाषण में यह आशा प्रकट की कि कांग्रेस दूसरे गोलमेज-सम्मेलन में भाग लेगी। वाइसराय ने उनके अभिप्राय को समझ कर गांधीजी और कांग्रेस के सभी सदस्यों को तुरन्त और बिना किसी शर्त के छोड़ने का हुक्म दे दिया। इस सद्भावना-प्रदर्शन की यह प्रतिक्रिया हुई कि गांधीजी वाइसराय से मिलने को राजी हो गए। ये दोनों `महात्मा` सरोजिनी नायडू ने गांधी और इरविन, दोनों के लिए इस शब्द का प्रयोग किया था आठ बार मिले और पूरी वार्ता में 24 घंटे का समय लगा। गांधीजी इरविन की सच्चाई और सद्भावना से बहुत प्रभावित हुए। सत्याग्रह-विराम के लिए गांधीजी ने पहले जो कम से कम शर्त़ें निीिचत की थप, `गांधी-इरविन समझौते` में स्पष्टतः उनसे भी बहुत कम को स्वीकार किया गया था। उनके कुछ साथियों की राय थी कि लार्ड इरविन ने गांधीजी को वाइसराय भवन की भूल-भुलैया में फंसा लिया और समझौते को उन्होंने वाइसराय की निरी कपट भरी चाल बताया। दूसरी ओर यह बता देना भी उचित होगा कि भारत में अंग्रेज अधिकारियों और इंग्लैंड के टोरी अथवा अनुदार दल के राजनीतिज्ञों को, एक ऐसी पार्टी से समझौते की बात से आघात पहुंचा, जो स्पष्ट घोषणा कर चुकी थी कि उसका उद्देश्य अंग्रेजी राज को समाप्त करना है। विंस्टन चर्चिल ने खुले आम कहा था कि इस घिनौने और अपमानजनक तमाशे से उन्हें नफरत हो गयी कि कभी जो इंग्लैंड के इनर टेम्पुल का बैरिस्टर था, वही अब राजौाsही फकीर बन कर सम्राट के प्रतिनिधि से बराबरी की हैसियत से सन्धि-वार्ता करने के लिए वाइसराय-भवन की सीढ़ियों पर अर्धनग्न स्थिति में लम्बे कदम भरता हुआ जा रहा था।

वाइसराय के साथ समझौता करने में गांधीजी के उद्देश्य को उनकी सत्याग्रह की नीति के माध्यम से ही अच्छी तरह समझा जा सकता है। सत्याग्रह-आन्दोलन के लिए सामान्यतः `संघर्ष`, `विौाsह` और `अहिंसात्मक युद्ध` आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है, लेकिन इनसे उसकी सही व्याख्या नहीं हो पाती। ये शब्द उस आन्दोलन के नकारात्मक पक्ष-विरोध और संघर्ष को आवश्यकता से अधिक उभार देते हैं। सत्याग्रह का उद्देश्य विरोधी का शारीरिक विनाश अथवा नैतिक पतन न होकर, उसके हाथों कष्ट सहन कर उन मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं को जन्म देना था, जो दोनों के मन और प्राणों का मिलन संभव कर दें। ऐसी लड़ाई में विरोधी से समझौता करना न तो अधर्म था, न ही अपनों से विीवासघात। इसके विपरीत, ऐसा करना एक स्वाभाविक और आवश्यक कदम था और अगर बाद में पता चले कि समझौता उपयुक्त समय से पहले करने में गलती हुई और विरोधी पक्ष को अपने किए पर पीचाताप नहीं है, तो सत्याग्रही के सामने फिर से अहिंसात्मक युद्ध प्रारम्भ करने का मार्ग तो खुला ही है।


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