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प्यारेलाल नैय्यर

 

88. ‘अंतिम दिन’

30 जनवरी के, उस दैवनिर्मित शुक्रवार को, गाँधीजी की भावना थी कि दो दिन पश्चात् सेवाग्राम के लिए प्रस्थान करेंगे । उनसे पूछा गया कि ‘आपके वहाँ पहुँचने की तारीख की सूचना तार द्वारा सेवाग्राम भेज दें ?’ तो उन्होंने कहा, ‘तार के पैसे क्यों बर्बाद करें ? यहाँ से निकलने की तारीख मैं संध्या के प्रार्थना-प्रवचन में जाहिर कर दूँगा और सेवाग्रामवालों को तार पहुँचाने से पहले ही समाचार-पत्र से यह जानकारी प्राप्त हो जायेगी ।’ 

उस दिन स्नान करके आने के पश्चात् वे बहुत प्रफुल्ल रहे थे । आश्रम की लड़कियों ने, उनके दूबले, सींकिया शरीर के लिए, मजाक उडा़या । किसी ने बताया कि एक बहन आज सेवाग्राम जानेवाली थी पर सवारी न मिलने से गाडी छूट गई । यह सुनकर गाँधीजी बोले, ‘वह पैदल चल कर स्टेशन क्यों नहीं पहुँच गई ?’ गाँधीजी की यह अपेक्षा रहती थी कि अपने पास जो साधन हो उसी के आधार पर किसी भी परिस्थति से निबटने के लिए हर किसी को तैयार रहना चाहिए । सुविधा का अभाव या कठिनाई आदि बहाने उन्हें स्वीकार नहीं होते थे । दक्षिण भारत में उनके प्रवास के दौरान एक बार वाहन में पेट्रोल खत्म हो गया । तब तेरह मील दूर स्टेशन पहुँचने के लिए सामान उठाकर पैदल जाने के लिए वे तैयार हो गये थे ।

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सर्दी की वजह से उन्हें तेज खाँसी हो गई । इसके शमन के लिए किसी ने पेनिसिलिन की गोलियाँ चूसने की सलाह दी । तब एकमात्र रामनाम की शक्ति से ही स्वस्थ होने का अपना निर्णय गाँधीजी ने अंतिम बार फिर से दोहराया । उनके सिर की मालिश करनेवाले परिचारक से उन्होंने कहाः ‘यदि मैं किसी रोग से मरूँ, चाहे एक छोटी – सी फुँसी ही क्यों न हो, तो तू पुकार-पुकार कर दुनिया से कहना कि यह दंभी महात्मा था । मैं जहाँ भी रहूँगा, मेरी आत्मा को तभी शांति मिलेगी । भले ही मेरी खातिर लोग तुझे गाली दें, परन्तु यदि मैं रोग से मरूँ तो मुझे दंभी महात्मा ही ठहराना । पर कदाचित मुझे कोई गोली मारे और मैं उसे सीने पर झेलते हुए भी, मुख से आह न निकाल रामजी का नाम रटता रहूँ, तभी कहना कि मैं सच्चा महात्मा था ।’

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दोपहर चार बजे के बाद गाँधीजी ने कातते हुए घंटे-भर तक सरदार पटेल से बातें कीं । बातें करते हुए ही शाम को भोजन लिया । प्रार्थना का समय हो गया था पर बातें पूरी नहीं हुई थीं । आभा की हिम्मत नहीं हो रही थी कि बीच में बोले, पर गाँधीजी की घडी़ उठाकर उसने उनके सामने रखी । लेकिन कुछ असर नहीं हुआ । अंत में वे सरदार से यह कहते हुए खडे़ हो गये कि, ‘अब तो जाये बिना छुटकारा नहीं ।’ फिर आभा और मनु के कंधों पर अपने दोनों हाथ रख कर उनसे ठिठोली करते वे प्रार्थनास्थल की ओर चले । प्रार्थना-स्थल के चबूतरे की तरफ जाते सीढ़ियाँ पार करते हुए वे बोले, ‘मैं दस मिनट देर से पहुँचा हूँ । विलम्ब करना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है । मैं चाहता हूँ कि मैं ठीक पाँच बजे प्रार्थना में उपस्थित रहूँ ।’

यही बापू के अंतिम शब्द थे ।