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रवीन्द्रनाथ ठाकुर

 

85. ‘कलेजे में ज्वालामुखी, आँखों में अमृतधारा’

संकट की घडी़ में महात्मा गाँधी आ पहुँचे और भारत के करोडो़ कंगालों के द्वार पर जा खडे़ हुए, उनके जैसे वेश में, उनके जैसे वाणी में बोलते हुए । प्रेम का यह अवतार जैसे ही भारत की दहलीज पर आकर खडा़ हुआ वैसे ही फटाक से दरवाजा खुल गया ।

गाँधीजी महान राजनीतिज्ञ हैं, प्रतिष्ठित और बडे़-बडे़ संगठन स्थापित करनेवाले हैं, बडे़ सुधारक हैं, परन्तु इन सब से अधिक उनकी महानता एक मानव के रूप में है ।

दृढ़ आदर्शवादी होने पर भी वे मात्र आदर्शों को नहीं, मनुष्य को चाहनेवाले हैं ।

इनके पास न तो बाहुबल है, न धन-संपत्ति । लेकिन उनके जबरदस्त प्रभाव के परिणामस्वरूप, एक पराधीन प्रजा जुल्मी सत्ता के विरुद्ध सिर उठाकर खड़ी हो गई है । लोगों को उनमें आस्था है और अपनी श्रद्धा के कारण वे मरने को तैयार हुए हैं, वे दुख सहने को तत्पर हैं । यह एक चमत्कार है कि सदियों से कुचले हुए लोग अब सिर उठाकर बाहर निकल पडे़ हैं । किसी को कोई तकलीफ पहुँचाए बिना, स्वयं सब कुछ सहन कर रहे हैं और इस सहनशक्ति के मार्फत विजयी बन रहे हैं ।

गाँधीजी की सफलता का रहस्य उनमें स्पंदित आत्मबल और अकूत त्याग में है । उनका जीवन यानी अखण्ड त्याग है । किसी सत्ता का उन्हें लोभ नहीं, न मोह किसी ओहदे, नाम, धन या किर्ती का । उनकी त्याग की शक्ति सविशेष दुर्जय बन जाती है क्योंकि उनकी असीम निर्भयता के साथ उसकी गाँठ बंधी हुई है । महाराजा और शाहंशाह, बंदूकें और संगीने, कारावास और यातनाएँ – अरे मौत तक भी गाँधी की तेजस्विता को डिगाने की ताकत नहीं रखती ।

कदाचित् उन्हें सफलता प्राप्त न हो, जैसे बुद्ध निष्फल रहे, ईसा असफल सिद्ध हुए, वैसे ही संभव है कि ये मानवजाति को अन्याय के आचरण से रोक न सके । परन्तु सदा के लिए वे एक एसे नर के रूप में स्मरण किये जायेंगे जिसने अपना सम्पूर्ण जीवन आनेवाले युगों के लिए एक दृष्टांत बना कर प्रस्तुत किया है ।