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महादेव देसाई

 

84. ‘वियोग – दुख’

सन 1917 का दिसम्बर महीना था । उस समय मैं गाँधीजी के साथ नया-नया जुडा़ था । मुस्लिम लीग की कलकत्ता की सभा में, छिंदवाडा़ में कैद किए गए अली भाईयों में से एक को, सभापति बनाया गया और सभापति की कुर्सी खाली रखी गई थी। गाँधीजी को वहाँ आने का विशेष निमंत्रण था । दोपहर में हम वहाँ गये, तो उर्दू में तकरीरों की बहार चल रही थी । हर वक्ता पल-पल में ऐसे वचन बोलता था कि पूरी सभा खडी़ होकर ‘आमीन’ कहकर समर्थन देती थी । प्रत्येक की आँखें बरस रही थीं, कितनों के फफकने की, जोर से रोने की आवाज भी सुनाई पड़ती थी ।

ऐसे में, गाँधीजी से बोलने के लिए कहा गया । वे रोनेवालों में शामिल नहीं हुए, उन्होंने तो श्रोताओं से सीधे-सीधे कुछ प्रश्नों के जवाब माँगे ।

“आँसुओं की जो यह बरसात हो रही है, क्या ये आँसू सच्चे हैं ? यदि आपको शौकतअली और मोहम्मदअली के वियोग का दुख सचमुच सता रहा है तो आपकी आँखों से पानी नहीं बल्कि लहू बहना चाहिए । यदि आपके ये आँसू, इस बात की साक्षी देते हों कि आप दोनों भाईयों को छुड़वाने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हैं, प्राण तक जोखिम में डालने को तैयार हैं, तो ये आँसू सच्चे हैं ।”

आज, यही प्रश्न हम स्वयं से पूछ सकते हैं । गाँधीजी को विदाई देने जानेवाले सभी स्वजनों के भाव क्या सच्चे थे ? उनकी विदाई के दिन अनेक घरों में कोने में बैठकर रोनेवालों के आँसू क्या सच्चे थे ? यदि सच्चे थे, तो हमने उनके जाने के बाद क्या किया ?

वियोग दुख की विहवलता के चित्र हमारे साहित्य में – बल्कि जगत के साहित्य में – भरत के पात्र में जैसे मिलते हैं वैसे कहीं भी नहीं मिलते । भरत को रामचंद्रजी को विदा देने का लाभ नहीं मिला था । गाँधीजी को विदाई देकर, उनके संदेश सुनने का जो सौभाग्य हममें से कइयों को मिला था, वह भरत के भाग्य में न था । भरत को अपने भाई के वियोग की बात अयोध्या पहुँच कर ज्ञात हुई, जिस अयोध्या में उनके आँसू पोंछकर, संसार के दुख क्षणिक हैं समझाकर, राज्य ग्रहण करने की सलाह देनेवाले स्वजन ही क्यों, गुरुजन भी थे । परन्तु भरत ने उनमें से किसी की सलाह पर कान नहीं दिया । उन्हें तो सब सुझाव विषमय लगे । क्षण-भर भी रामचंद्रजी को देखे बिना जीना दुखद लगा । तत्क्षण उन्होंने रामचंद्रजी के दर्शन करने चाहे, उनके चरण-स्पर्श करके ठंडक पाने और संभव हो तो उन्हें वापस अयोध्या लाने का निश्चय किया ।

यह निश्चय करवाकर, तुलसीदास भरत को सीधे रामचंद्रजी के पास नहीं ले जाते । भरत रामचंद्रजी से मिले, उससे पहले अश्रु से भीगा भरत का हर कदम, हर स्थल को कवि ने चित्रित किया है । बावरे से भरत रथ में निकलते है । गंगाजी पार करने के समय रामचंद्रजी का परम भक्त गुहक उन्हें मिलने आता है । रामचंद्रजी के भक्त को अपने लिए पुज्य मानकर, दूर से ही रथ से उतर कर गुहक को प्रणाम करते हैं । राम को जिस श्रद्धा और भक्ति से निहारते, उसी श्रद्धा और भक्ति का अनुभव उन्हें देखकर करते हैं । रामचंद्र किस ओर गये हैं यह जानकर ही भरत गुहक से विदा नहीं लेते – बल्कि वे कहाँ उतरे थे, कहाँ सोये थे, कहाँ बैठे थे – सब पूछकर उन प्रत्येक स्थान की पदरज ग्रहण करते हैं और राम नाम का उच्चारण करते हुए अश्रुपात करते हैं । गुहक के साथ रामचंद्रजी के पास जाकर भरत की विनती, अंत में भिक्षा रूप में उनकी पादुका और खिन्न हृदय से नंदिग्राम में पुनरागमन – आदि प्रसंग कठोर से कठोर हृदय को द्रवित कर देनेवाले हैं । रामचंद्रजी के वनवास के दुख, सीताजी का दुख भूला जा सकता है परन्तु भरत का वियोग-दुख, भरत की चौदह वर्ष की उग्र तपस्या की प्रतिज्ञा, प्रभु को पाने के लिए प्रभु जैसा दुख-कष्ट सहकर जीने की प्रतिज्ञा कोई भूल नहीं सकता ।

भक्ति की ऐसी पराकाष्ठा और वियोग-दुख के पश्चात् किया गया ऐसी पराकाष्ठा का तप जिस देश ने जाना है, उस देश में क्या धर्म का इतना लोप हो गया है कि वह अपना वियोग दुख भूल जाये और पूर्ववत् कर्तव्यविमुख, विलासप्रिय अवस्था में लौट जाये ? जेल जाने के पहले गाँधीजी प्रजा के समक्ष अपना संदेश देने में नहीं चूक । ‘पतंग नृत्य’ जैसा लेख लिखकर प्रजा के रोग की चिकित्सा और उनका निदान मुखर रूप में कह गये । गाँधीजी के लिए रोनेवाले कितनों ने उस संदेश पर अमल किया ? जहाँ आँख से रक्त की धारा बहनी चाहिए, जब देश में अखण्ड विरहाग्नि सुलगती रहनी चाहिए, वहाँ जिधर देखिए या तो निराश उदासीनता का माहौल है, अथवा मृत्यु की ओर बढ़ती विलासिता की शहनाई बज रही है ।

कौन कहेगा कि इस देश को वियोग-दुख हो रहा है ?