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वल्लभभाई पटेल

 

78. ‘आंगन में बहती गंगा’

 अहमदाबाद के निवासियों की ओर से आपने जो मानपत्र प्रदान किया है उसमें मुझे गाँधीजी के पटृशिष्य के रूप में वर्णित किया गया है । मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ कि मुझमें ऐसी योग्यता विकसित हो । परन्तु मैं जानता हूँ, मुझे बिल्कुल पता है कि मुझमें यह नहीं है । इस योग्यता को प्राप्त करने के लिए मुझे कितने जन्म लेने होंगे – मैं नहीं जानता । साथ ही कहता हूँ कि आपने प्रेम के आवेश में जो अन्य अतिशयोक्तिपूर्ण बातें मेरे लिए लिखी हैं, उन्हें मैं पी सकता हूँ । परन्तु इस बात को मैं कतई स्वीकार नहीं कर सकता । आप सब जानते होंगे कि महाभारत में द्रोणाचार्य का एक भील शिष्य था, जिसने द्रोणाचार्य से कुछ भी सुना या सीखा नहीं था । परन्तु गुरु की मिट्टी की मूर्ति बनाकर, उसकी पूजा करता, उसके चरणों में बैठकर उसने द्रोणाचार्य की विद्या सीखी थी । जितनी विद्या उसने प्राप्त की थी उतनी द्रोणाचार्य के किसी अन्य शिष्य ने नहीं पाई थी । इसका कारण क्या था ? कारण यह कि उसमें गुरु के प्रति भक्ति थी, उसका हृदय स्वच्छ था । मुझे आप जिनका शिष्य कह रहे हैं वह गुरु तो प्रतिदिन मेरे पास होते हैं । उनका पटृशिष्य तो क्या, अनेक शिष्यों में से एक बन सँकू इतनी योग्यता भी मुझमें नहीं है – इस बारे में मैं निःशंक हूँ । 

मुझे उम्मीद है कि हिंदुस्तान में उनके शिष्य जागृत होंगे, जिन्होंने उनके दर्शन नहीं किये होंगे, जिन्होंने उनके शरीर की नहीं पर उनके मंत्र की उपासना की होगी । इस पवित्र भूमि में कोई तो ऐसा सजग जागृत होगा ही । कितने ही लोग कहते हैं कि गाँधीजी के जाने के बाद क्या होगा ? पर मैं इस संबंध में निर्भय हूँ । उन्हें जो करना था, कर लिया है । अब तो बाकी रहा है, वह आपको और मुझे करना है ।